Bhagwan Ram Story: भारत की अन्तरात्मा हैं भगवान राम, आइये पढ़ें विस्तार से

Bhagwan Ram Story: यह देश जिसकी अन्तरात्मा हैं भगवान् राम, उस अन्तरात्मा को विस्मृत करते हुए इस बात पर पश्चिमी और उनके अनुगामी विद्वानों ने बहुत ऊहापोह किया कि महाकाव्य का मूल रूप क्या है

Newstrack :  Network
Update:2024-01-16 20:26 IST

उत्तर भारत की कला व संस्कृति में राम: Photo- Social Media

Bhagwan Ram Story: विश्व के अनेक सुप्रसिद्ध महाकाव्य हैं, लेकिन उन सबको क्या ये सौभाग्य मिला है ? क्या वे सब महाकाव्य कहीं किसी भी राष्ट्र के जन-जन की स्मृति में हैं? क्या होमर उसी तरह कहीं है ? कहीं पश्चिम की परम्परा में उसी तरह विद्यमान है? कहीं उसी तरह ही परम्परा में वे महाकाव्य हैं, जो प्राचीन इटली में, रोम में या अन्यत्र विकसित हुए, क्या वह इस प्रकार की अविच्छिन्नता में जीवित हैं? जब हम उत्तर भारत में भगवान राम की उपस्थिति पर चर्चा करने के लिए यहाँ एकत्र हैं, तो हमें यह ध्यान रखना पड़ेगा कि इस देश की बिल्कुल अलग परम्परा है, एक परम्परा जो अनेकानेक परम्पराओं के संयुक्त होने से विकसित हुई तथा इस भारतीय समाज का निर्माण करती है और दूसरी आख्यान की परम्परा, यह परम्परा वाचिकता में विकसित हुई और वह मात्र वाचिक नहीं, वरन् लिखित भी है, वह उस समूची सांस्कृतिक विविधता का प्रतिबिम्बन करती है। उस परम्परा की ओर राजेशजी पहले ही इंगित कर चुके हैं। वह निरंतर अनुस्मरण की परम्परा है।

प्रो० कमलेश दत्त त्रिपाठी

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे।

रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः।।

रामकथा और महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण पर्याय हैं। रामायण और रामकथा भारत के जन-जन के हृदय में व्याप्त है।

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यह अनुस्मरण हमारी राष्ट्रीय स्मृति है, सम्पूर्ण राष्ट्र को एक साथ यदि स्मरण करना है, वह सम्पूर्ण राष्ट्र जिसकी अन्तरात्मा तथा अन्तश्चेतना में भगवत्-तत्त्व उपस्थित हो, राम के नाम से हो, श्री कृष्ण के नाम से हो। ये 'भगवत्-तत्त्व हैं, इस बात को ध्यान में रखते हुए उनकी ऐतिहासिकता पर और उनकी स्थिति पर विचार करना आवश्यक होगा। पश्चिम में 19वीं शताब्दी तक तो होमर की स्थिति के बारे में ही संदेह था, भला हो उस विद्वान का, जिसे होमर की सत्ता की फिर से याद दिलाया। यूरोप होमर को भी कहाँ जानता था? किस रूप में? लेकिन यह देश जिसकी अन्तरात्मा हैं भगवान् राम, उस अन्तरात्मा को विस्मृत करते हुए इस बात पर पश्चिमी और उनके अनुगामी विद्वानों ने बहुत ऊहापोह किया कि महाकाव्य का मूल रूप क्या है ? और क्या उसमें प्रक्षिप्त तत्त्व है। मुझे याद आता है कि पेरिस की बहुत बड़ी विदुषी थीं- मदाम एम विआर्दो, उस समय मैं मध्यप्रदेश में था, वह मध्यप्रदेश आयी थीं, उन्होंने इस बात पर चर्चा आरम्भ की कि महाभारत तथा रामायण की परम्परा में जो सम्पादन की विधि अपनायी जा रही है, क्या वह ठीक है या नहीं? तब उन्होंने रामनगर के किले से छपने वाली 'पुराण' नामक पत्रिका में लिखा कि आप एक वाचिक परम्परा में ये कैसे तय करेंगे कि क्या मूल है और क्या प्रक्षिप्त है? समान रूप से एक-एक श्लोक जहाँ लोगों के हृदय में समाया हुआ है, एक-एक चौपाई जो लोगों के हृदय में समाई है, उसके सम्पादन की परम्परा और वह परम्परा जो 'न्यू टेस्टामेंट' के मूल रूप को स्थापित करने के लिए बनाई गयी, क्या दोनों एक हो सकती हैं और स्वयं उन्होंने इस बात को स्थापित किया कि नहीं, उस परम्परा के ग्रन्थ की सम्पादन विधि भित्र होगी। उनका इशारा सुकथनकर के महाभारत के उस संस्करण की ओर था जो पुणे से प्रकाशित हुआ था।

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यह आख्यान की एक जीवित परम्परा है, ये 'मिथ' नहीं है, जिस 'मिथ' में असत्य का पुट होता है। यह आध्यात्मिक भी है और ऐतिहासिक भी है। यह परम्परा कल्पना की परम्परा नहीं है, इस बात को भी हमें ध्यान में रखना होगा। तब जबकि यह उपक्रम 'ग्लोबल इन्साइक्लोपीडिया ऑफ रामायण' का अंग है, यद्यपि 'इन्साइक्लोपीडिया' तो 'ग्लोबल' होती ही है, किन्तु यह जो 'इन्साइक्लोपीडिया' है उसकी विषयवस्तु को किस तरह से हम देखेंगे। प्रमाण की प्राथमिकता क्या है ? क्या प्रमाण की श्रेष्ठता वही है जो पुरातात्त्विक और दृश्य प्रमाण में दीखती है? क्या वही प्रमाण सर्वोच्च है? आधुनिक 'हिस्ट्री' के विद्वान यही मानते आये हैं कि दृश्य प्रमाण ही इतिहास का अंग है। तब भी उसमें युग का निर्धारण बहुत कठिन है। लेकिन एक दूसरी परम्परा है जो लिखित परम्परा से भिन्न है और वह वाचिक परम्परा है। इसलिये उसके लिए शब्द है, 'आख्यान' - "आ समन्तात् ख्यायते इति आख्यानम्। यहाँ पूरी तरह से कहा जाता है और कहा ही नहीं जाता गायन किया जाता है, चाहे श्रीमद्भगवद्गीता हो, महाभारत हो, वह भी गायन है। रामायण- इसका तो कहना ही क्या है। वहाँ समस्त पुरातन इतिहास से परे इतिहासातीत ज्ञान का रूप मूर्त हो जाता है। ज्ञान की एक परम्परा जो इतिहास से अतीत है, चाहे उसे 'प्रीहिस्ट्री' कहिए या 'प्रोटोहिस्ट्री' कहिए, वह है वस्तुतः इतिहास से अतीत। इतिहास से अतीत वह ज्ञान जब अपने मूर्त रूप को पाता है, तब वह अद्वितीय, परात्पर 'परतत्त्व', उस तत्त्व का ज्ञान अपने मूर्त रूप में आता है, तब वह आर्ष महाकाव्य होता है। यह लौकिक महाकाव्यों से भिन्न है। ये आर्ष महाकाव्य हैं- यह ऋषियों द्वारा रचित महाकाव्य होता है।

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ये ऋषि हैं कौन ?

साक्षात्कारकृतधर्माणःऋषयो बभूवुः धर्म का साक्षात्कार करते हैं। ऋषि जो उपदेशाय ग्लायन्तः अपरेभ्यः - उपदेश सुनने के लिए व्याकुल जो दूसरे हैं, उनको धर्म का उपदेश करने के लिए, उनको उस परम्परा का उपदेश करने के लिए ऋषि कवन करते हैं, आर्ष महाकाव्य में। 'भगवान् यास्क हों या भगवान वाल्मीकि, वह तो भगवान हैं हमारे लिए, वह केवल ऋषि नहीं, वे तो वस्तुतः पुरुषोत्तम के स्वरूप ही हैं।

इस रूप में विचार करने पर बार-बार इस पर जोर देना पड़ता है कि क्यों राम की ऐतिहासिकता मात्र को सिद्ध करने के लिए हम व्याकुल हो रहे हैं ? राम परात्पर ब्रह्म भी तो हैं न। इसमें कोई अन्तर्विरोध नहीं है कि वह परात्पर ब्रह्म पुनः मनुष्य रूप में भी आते हैं। यही अवतीर्णता है, इसमें परस्पर विरोध की बात और लोगों को लगती है, किन्तु हमारे लिये तो वह परात्पर ब्रह्म ही स्वयं पुरुषोत्तम के रूप में और पुरुषोत्तम भी मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में सामने आते हैं और दोनों का ऐक्य है। इसलिए एक तो यह प्रस्थान विन्दु हमारे ध्यान में रहना चाहिए कि हम उसी पद्धति का आँख मूँद कर अनुसरण नहीं कर सकते, जो पश्चिम की लिखित परम्परा मात्र पर अवलम्बित है। हमारी परम्परा लिखित भी है और वाचिक भी-दोनों है। गणेश जी बैठकर लिख रहे हैं, ये एक प्रतीक है, एक रूपक है कि गणेश जी लिख रहे हैं और व्यास जी बोल रहे हैं, उन्होंने शर्त रखी, लिखिए तो समझकर लिखिए। जो लिखा जाय, वह समझकर लिखा जाय। गणेश जी सा तीव्र गति से लिखने वाला, झट लिख लेता है और तब व्यास जी द्वारा कही गयी ऐसी 'ग्रंथि' आ जाती है कि गणेश जी को भी लेखनी रखकर सोचना पड़ जाता है। तब तक व्यास जी आगे की बात कहने के लिए तैयार हो लेते हैं। तत्त्व ये है कि लिखित परम्परा तो ऐसी होनी चाहिए, जो समझी गयी हो, जो समझा ही नहीं गया तो उसके लिखित होने का क्या मतलब होता है। ये एक तत्त्व-मीमांसीय दृष्टि है, इस तत्त्व-मीमांसा में ऐतिहासिकता का स्वरूप भिन्न होगा।

दूसरी बात, यह जीवित परम्परा है, यह मात्र पुस्तकीय परम्परा नहीं है। यदि कभी ऐसा कुछ हो जाय, कि वेद की जितनी भी प्रतियाँ हैं इस दुनिया में सब एक साथ अनुपलब्ध कर दी जाएँ, जो पूर्व में की जा चुकी हैं, ये कोई काल्पनिक बात नहीं, अपितु की गयी हैं-सारी वेद की प्रतियाँ नष्ट कर दी जाएँ फिर भी वेद अभी कण्ठ में जीवित रहेंगे। वैदिक साहित्य, वेद कोई एक पुस्तक नहीं है, एक तरह की किताब नहीं है, न तो वह कुरान की तरह का एक 'टेक्स्ट' है, न तो 'न्यू टेस्टामेंट' की तरह का एक टेक्स्ट है, वे न तो एक तरह की अनेक रचनाएँ हैं, वेद पुराण की तरह एक कोटि की अनेक रचनाएँ भी नहीं हैं। वेद अनेक प्रकार की अनेक रचनाओं का एक बृहत् समूह है। ऐसा ग्रन्थ समूह भी यदि किसी प्रकार से नष्ट हो जाए, तो वह अभी भी, आज भी वह कण्ठ में संरक्षित होने के कारण पुनः अस्तित्व में आ जायेगा। यह अनुपम वाचिक परम्परा है। वेद, रामायण, महाभारत में-सभी में उसका प्रतिबिम्बन है।

वाल्मीकि रामायण का श्रवण मैंने किया है, जो मौखिक परम्परा के द्वारा होता आया है। अब तो बड़ा मुश्किल हो गया है, अब तो वाल्मीकि रामायण कहने वाले लोग दुर्लभ हो रहे हैं। हम ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मालवीय भवन में अयोध्या के स्वामी लक्ष्मीशरण दास जी महाराज से सुना है कि क्या है रामायण, कैसे कहना चाहिए और कैसे उसे सुनना चाहिए, ये मैंने अयोध्या की परम्परा से सुना, जाना। उसमें किस प्रकार समस्त शास्त्र, समस्त भक्ति परम्परा, कैसे दक्षिण देश के सन्तों की वाणी तथा उत्तर के सभी सन्तों की वाणी-वह सब कुछ समाया हुआ है। सभी का स्रोत रामायण है। वही फिर 'रामचरितमानस' के रूप में प्रकट होती है।

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किस प्रकार रामचरितमानस की परम्परा है जिसमें अनेक नदियाँ आकर मिलती हैं और बहती तथा बढ़ती गंगा है, जिसमें निगम, आगम, पुराण और अन्यत्र भी कहा गया तथा तत्सम्मत सभी कुछ विद्यमान है। यह सम्पूर्ण संस्कृति है। रामायण और मानस की उपस्थिति अन्तश्चेतना के रूप में सम्पूर्ण उत्तर भारत की कला में है, ये हमें देखना है और ध्यान रखना है।

रामकथा का अवतार कैसे हुआ ? कैसे रामायण का अवतार हुआ, किस प्रकार महर्षि वाल्मीकि तमसा के तट पर पहुँचते हैं और देखते हैं कि कोई व्याध प्रेम में निमग्न क्रौंच जोड़े में से एक को बेध देता है, तब वह तड़पने लगता है, जो विद्ध है और दूसरी हाहाकार करती है। जो विद्ध है वह शायद नर है, यहाँ थोड़ा तय करना मुश्किल है, लेकिन हत पक्षी नर है और जो हाहाकार कर रही है, वह मादा है। इससे भिन्न रूप में भी यह घटना समझी जा सकती है, किन्तु अपरिवर्त्य है- द्वन्द्व के बीच वियोग। उस घटना से उपजा वाल्मीकि का शोक श्लोक बन जाता है।

आनन्दवर्धन के शब्दों में उसे यों कहा गया :

काव्यस्यात्मा स एवार्थस्तथाचादिकवेः पुरा।

क्रौञ्चद्वन्द्ववियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागतः ।।

- आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक

क्रौञ्चयुगल के वियोग से उपजा आदिकवि वाल्मीकि का शोक श्लोक बन गया।

इस पूरे के पूरे आर्ष महाकाव्य का आरम्भ कहाँ से होता है? वागात्मक ब्रह्म में प्रबुद्ध आदिकवि ब्रह्मा से प्रेरित होकर अपने महाकाव्य के नायक की खोज में हैं। तब भगवान् वाल्मीकि सम्पूर्ण सृष्टि में भ्रमण करने वाले देवर्षि नारद से पूछते हैं :

कोऽन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान् इत्यादि

अर्थात् इस समय और इस लोक में कौन है जो सभी गुणों से सम्पन्न, शक्तिशाली, धर्मज्ञ, धर्म में निरत, समुद्र की तरह गम्भीर, हिमालय की तरह उन्नत है-इत्यादि। नारद जी का उत्तर है- वह हैं- दशरथ के पुत्र, माता कौसल्या के आनन्द को बढ़ा देने वाले-श्रीराम। आदिकवि उन्हीं को 'रामायण' का नायक बनाते हैं और उनके चरित का वर्णन करते हैं।

इस महाकाव्य की तुलना हम किससे करें? जो लोग विवाद खड़ा करते हैं; कहते हैं कि जहाँ राम को परात्पर माना गया है, वह अंश प्रक्षिप्त है। आधुनिक विद्वत्ता हम को समझाती है कि राम की ऐतिहासिकता परात्परता की विरोधी है, वह प्रक्षेप है। इस बात पर जोर दिया गया कि बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड दोनों प्रक्षेप है। इन सब पर गहराई से विचार करना पड़ेगा, जब हम भारतीय संस्कृति में या समस्त उत्तर भारत की संस्कृति में पूरे भारत की संस्कृति में ही क्यों, सुदूर एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और मध्य एशिया से श्रीलंका तक यह जो विराट् भूमण्डल है, इसमें राम की उपस्थिति पर हम विचार करें, तो रामायण के स्वरूप पर विचार करना पड़ेगा। तभी कलाओं में प्रतिबिम्बित राम को हम पहचान सकेंगे।

हमारे लिए यह आवश्यक नहीं है कि मैं आख्यान के अतिरिक्त अन्य आयामों पर बोलूँ। लेकिन आख्यान में कैसे भगवान की उपस्थिति हैं, कैसे वे महाकाव्य में आते हैं, आर्ष महाकाव्य से कैसे वे साहित्य में तथा परवर्ती श्रव्य परम्परा में आते हैं, उस श्रव्य परम्परा का हमें पूरी तरह से अवगाहन तथा आकलन करना पड़ेगा। पश्चिम से हम यही सुनते आये हैं कि श्रव्य परम्परा की प्रामाणिकता संदिग्ध होती है। प्रामाणिकता है कि नहीं? जब वह राम अभी हमारे हृदय में विद्यमान हैं, तो वे संदिग्ध कैसे हो सकते हैं। वे राम कैसे सम्पूर्ण कलाओं में व्याप्त हैं, कैसे देवगढ़ के दशावतार मंदिर में 5वीं शती में राम वनगमन अंकित किया गया है ? कैसे नचना के मंदिर में राम दृश्यमान हैं। ऐसे अनेक मंदिर हैं और सबसे बड़ी बात यह है, जितने हैं, उससे अधिक मंदिर ध्वस्त हो गये हैं, उन्हें ध्वस्त किया जाता रहा है- यह सब प्रमाणसिद्ध है उसे दुहराने की आवश्यकता यहाँ नहीं है। इसलिए उत्तर भारत में चित्र, मूर्ति एवं स्थापत्य में भगवान राम के अंकन अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। एक बात मेरे मन में कौंधती रही है कि अपनी श्रव्य जीवंत परम्परा में जो अनादि काल से उपस्थित है, जो उस शाश्वत तत्त्व को पुनः

आविष्कृत करती है। ऐसी आख्यान परम्परा सजीव रूप में अभी तक चलती रही है, तब वह दृश्य कलारूपों में अर्थात् स्थापत्य, मूर्ति एवं चित्र आदि में 5वीं शती में यद्यपि थोड़ी देर में आयी, ऐसा क्यों हुआ, उसके ऊपर विचार करना पड़ेगा।

दक्षिण भारत की दृश्य कलारूपों में राम की उपस्थिति है तथा पुरातात्विक प्रमाण हैं, उनकी अपेक्षा उत्तर भारत में कम हैं। इनके क्या कारण हैं? इस पर विचार करें। 

अयोध्या में हरिविष्णु मंदिर की सत्ता तो अब असंदिग्ध रूप में सिद्ध हो चुकी है, तब स्थापत्य पंचम शती से भगवान राम की सतत उपस्थिति प्रमाणित है। अब भारतीय चित्रकला विशेषकर लघुचित्रों में अद्भुत विकास दृष्टिगत होता है। इनमें आख्यानात्मक चित्र की समृद्ध परम्परा है, जिसको कहते हैं 'नैरेटिव पेंटिंग्स' (Narrative Paintings)। यह भगवान राम के आख्यान मूर्तिकला तथा सर्वाधिक चित्रों में उपस्थित हैं, जो चित्रकला की नाना शैलियाँ विकसित हुईं, उनमें रामकथा की मोहक छवियाँ हैं। स्वयं अकबर ने किस तरह रामायण का अनुवाद कराया, वह सर्वविदित तथ्य है, उसे इंकार नहीं किया जा सकता। उसकी पाण्डुलिपि चित्रित है। मुगल शैली में भी भगवान राम की उपस्थिति है। राजस्थानी और पहाड़ी शैली के चित्रों में अद्भुत अंकन है। किस प्रकार मिनिएचर पेंटिंग में राम की उपस्थिति है, जिसे कुमारस्वामी ने देखकर उसे संजोया और सुरक्षित किया। अन्यत्र भी आज सारी दुनिया में और यहाँ भी वह सुरक्षित सम्पदा सुरक्षित है। उसमें प्रतिबिम्बित राम की कलात्मकता पर हमारा ध्यान जाता है, तो उसके सौन्दर्य पर बरबस ध्यान जाता है।

किस प्रकार सम्पूर्ण रसात्मकता जो भारतीय सौंदर्यशास्त्र का अन्तस्तत्त्व है, वह एक ओर पहाड़ी दूसरी ओर मालवा और राजस्थानी शैलियों में अभिव्यक्त होता है। विश्व में परिवर्तन बहुत तीव्र हो रहा है। इस समय इस परम्परा की प्रामाणिकता को कैसे सुरक्षित किया जाय- इस पर भी विचार करें।

कैसे भगवान राम हमारी जो मंच कलाएँ हैं, उनमें उपस्थित हैं। हमारी ये अनादि परम्परा जो भास से आरम्भ होती है, कालिदास के यहाँ रघुवंश के रूप में आती है और श्रीलंका में कुमारदास से लेकर कश्मीर में क्षेमेन्द्र तक, भास, भवभूति, राजशेखर से लेकर रामायणमञ्जरी तक किस प्रकार महाकाव्य एवं नाटकों में वह परिवर्तित होती है तथा आगे बढ़ती है। काव्यों में, संगीत में, लोक कला, लोक गायन पद्धतियों में आती है और पुनः लीला रूपों में महापुरुष शंकर देव जी द्वारा प्रवर्तित अंकियानाट से लेकर तुलसीदास जी द्वारा प्रवर्तित रामलीला की जो अविच्छिन्न परम्परा नाना रूपों में है और यहाँ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में तमाम लीला मंडलियाँ बनीं, जिन्होंने गुजरात तथा दक्षिण भारत तक इसे फैलाया।

(ग्लोबल इन साइक्लोपीडिया ऑफ रामायण संगोष्ठी में लेखक द्वारा दिया गया उद्घाटन वक्तव्य ।’कला व संस्कृति में श्रीराम’ पुस्तक से साभार। यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के संरक्षक , संस्कृति व पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के मार्ग दर्शन , प्रमुख सचिव पर्यटन व संस्कृति मुकेश कुमार मेश्राम के निर्देशन, संस्कृति निदेशालय के निदेशक शिशिर तथा कार्यकारी संपादक तथा अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डॉ लव कुश द्विवेदी के सहयोग से प्रकाशित हुई है। ) 

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