कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन बन सकते हैं राजनीतिक दलों की मुसीबत

Update:2019-02-08 12:18 IST
कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन बन सकते हैं राजनीतिक दलों की मुसीबत

संदीप अस्थाना

आजमगढ़। कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन कई राजनीतिक दलों के लिए मुसीबत का कारण बन सकते हैं। लोकसभा चुनाव को लेकर सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा के बाद इसका विरोध भी होने लगा है जिसकी शुरूआत आजमगढ़ से हुई है। इसकी अगुआई की है बाटला इनकाउन्टर की कोख से आजमगढ़ में उपजे तथाकथित राजनीतिक संगठन 'उलेमा कौंसिल' ने। उलेमा कौंसिल के अध्यक्ष आमिर रशादी का तो दावा है कि मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवी, सामाजिक व राजनीतिक तबकों की एक बड़ी तादाद ऐसी है जिसमें इस बात को लेकर काफी रोष है कि इस गठबंधन में मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व शून्य है। रशादी के संकेत से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि लोकसभा के इस चुनाव में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले उलेमा कौंसिल, पीस पार्टी, निषाद सेना व ओवैसी के दल एआईएमयूएमआई सहित समान विचारधारा के अन्य दल भी आपस में गठबंधन कर सकते हैं। अगर यह गठबंधन होता है तो यह कई धर्मनिरपेक्ष दलों के आगे मुसीबत खड़ा कर सकता है।

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मुसलमानों के लिए ठगबंधन है सपा-बसपा गठबंधन

राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना आमिर रशादी ने बीते दिनों लखनऊ में मीडिया से बातचीत में गठबंधन को मुसलमानों के लिए 'ठगबंधन' करार दिया। मौलाना रशादी ने कहा कि, 'सेकुलरिज्म के नाम पर बने इस तथाकथित गठबंधन में सबसे ज्यादा अगर कोई खुद को ठगा महसूस कर रहा है तो वो मुस्लिम समाज है।

दशकों से मुस्लिम समाज ने परम्परागत तरीके से सपा-बसपा को वोट दिया है और सेकुलरिज्म की बुनियाद को मजबूत किया है परंतु इस गठबंधन से मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को दूर रखना न केवल सपा-बसपा की मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों के प्रति राजनीतिक दुर्भावना है बल्कि सामाजिक न्याय के मूल्यों के भी विरुद्ध है।' उन्होंने कहाकि 7 प्रतिशत यादव समाज के नेता अखिलेश यादव और 11 प्रतिशत जाटव समाज की नेता मायावती आपस में 38-38 सीटों का बंटवारा कर रही हैं और 22 प्रतिशत मुस्लिम समाज के नेताओं को शून्य हिस्सेदारी देकर मुफ्त में सिर्फ भाजपा का डर दिखा उनका वोट लेना चाहती हैं। उन्होंने कहा कि मुस्लिम समाज अब राजनीतिक तौर पर जागरूक हो चुका है और डर की राजनीति से बाहर आकर अपने राजनीतिक अधिकारों, प्रतिनिधित्व और नेतृत्व के लिए चेत चुका है। रशादी ने कहा कि मुसलमानों को अब खैरात में मुस्लिम नाम वाले सपा-बसपा के प्रतिनिधि नहीं चाहिए बल्कि उन्हें मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करने वाले लीडर चाहिए।

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मुस्लिम तो यूपी विधानसभा में 2012 में 69 थे फिर भी मुजफ्फरनगर आदि जगहों पर दंगे के बावजूद सपा-बसपा के पचासों मुस्लिम प्रतिनिधि में से किसी ने भी आवाज तक नहीं उठाई। यही नहीं, ये तथाकथित सेकुलर दल संसद में ट्रिपल तलाक पर असंवैधानिक बिल का खुलकर विरोध तक नहीं कर सके। ऐसे में इनमें और भाजपा में क्या फर्क रह गया है?

रशादी ने कहा कि सपा-बसपा ने ये गठबंधन अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किया है। अखिलेश और मायावती बताएं कि सच क्या है? आखिर इस गठबंधन में मुसलमानों को जगह क्यों नहीं है? बिना गठबंधन के 2 सीट कांग्रेस के लिए छोड़ दी गयी है, 2 सीट 1.5 प्रतिशत वोट बेस वाले अन्य दल के लिए छोड़ दी गयी है तो फिर इस हिसाब से संख्या के आधार पर मुस्लिम नेतृत्व वाले दल के लिए 16 सीट बनती थी पर 2 सीट भी मुस्लिम समाज के लीडरों के लिए नहीं घोषित की गई।

उन्होंने सवाल किया कि मुस्लिम प्रतिनिधित्व के लिए दोनों दलों के क्या मंसूबे हैं? आखिर कब तक मुसलमान इनके सेकुलरिज्म का कुली बन उसे ढोता रहेगा और यह दल उसके सहारे सत्ता का लाभ लेते रहेंगे? अखिलेश यादव ने तो 2017 के विधानसभा चुनावों से ही मुसलमानों का नाम अपनी जबान से लेना छोड़ दिया है, गर कहीं बोलना भी होता है तो अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल करते हैं। और ये 12 जनवरी की प्रेसवार्ता में भी जहां मायावती ने तो मुसलमानों का नाम अपनी जबान पर लाया भी परन्तु अखिलेश यादव ने मुसलमानों का नाम लेने से परहेज किया।

पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को दिया था समर्थन

वर्ष 2017 के विधानसभा के चुनाव में उलेमा कौंसिल ने बसपा को समर्थन दे दिया था। इसकी वजह थी कि एक जमाने में उलेमा कौंसिल के प्रमुख नेता रहे बाहुबली भूपेन्द्र सिंह मुन्ना को आजमगढ़ सदर सीट से बसपा का टिकट मिल गया। मुन्ना ने उलेमा कौंसिल के अध्यक्ष आमिर रशादी पर दबाव बनाया और उलेमा कौंसिल के अध्यक्ष आमिर रशादी ने केवल आजमगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में कहीं से अपने उम्मीदवार नहीं उतारे और बसपा को पूर्ण समर्थन का एलान कर दिया। बाहुबली भूपेन्द्र सिंह मुन्ना तो चुनाव नहीं जीते मगर उलेमा रोज यह प्रलाप करती चली आ रही है कि बसपा ने वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में जो 19 सीटें जीती है वह उलेमा कौंसिल के समर्थन की वजह से ही संभव हो सका है।

आजमगढ़ में गठबंधन को होगी थोड़ी कठिनाई

उलेमा कौंसिल के विरोध से आजमगढ़ में सपा-बसपा गठबंधन को थोड़ी कठिनाई जरूर होगी। वजह यह है कि इस जिले के काफी मुसलमान अब भी उलेमा कौंसिल के अंधभक्त हैं। यह अंधभक्त गठबंधन प्रत्याशी के जीत का प्रतिशत घटा सकते हैं।

उलेमा दे रही तर्क, मुस्लिम लीग की तरह किया था बलिदान

आमिर रशादी का कहना है कि बसपा 2014 के आम चुनावों में एक भी सीट न जीत सकी और उसके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा। ऐसे में हमने बाबा साहब अम्बेडकर को संसद में भेजने के लिए मुस्लिम लीग के बलिदान के इतिहास को दोहराते हुए 2017 के विधानसभा चुनावों में अपने समस्त प्रत्याशियों को वापस ले लिया और बसपा को पूर्ण समर्थन का एलान किया था। बसपा 19 सीट जीतने में कामयाब रही जिसमे पूर्वांचल की 11 सीटों पर जीत में उलेमा कौंसिल की निर्णायक भूमिका रही। वहीं प्रदेश की अन्य जीती हुई सीटों पर भी कौंसिल का महत्वपूर्ण योगदान रहा। अब सपा बसपा मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों के बारे में अपना मत स्पष्ट करें और अपने इस तथाकथित 'महागठबंधन' में उलेमा कौंसिल व अन्य ऐसे दलों को प्रतिनिधत्व दें। वर्ना उलेमा कौंसिल एक नए गठबंधन को खड़ा करेगी। इस संबंध में बातचीत भी जारी है।

 

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