Bihar Caste Census: जातीय जनगणना के सवाल को लेकर बवाल
Bihar Caste Census: पहले पटना हाईकोर्ट का स्थगन आदेश और अब कॉस्ट सर्वे की प्रश्नावली के सवालों ने सरकार और जनता दोनों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। ग़ौरतलब है कि प्रश्नावली में सत्रह सवाल हैं।
Bihar Caste Census : देश भर में उठ रही जातीय जनगणना की मांग के मद्देनज़र बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने अपने यहाँ जातीय जनगणना क्या शुरू की तमाम अवरोधों का उसे सामना करना पड़ रहा है। पहले पटना हाईकोर्ट का स्थगन आदेश और अब कॉस्ट सर्वे की प्रश्नावली के सवालों ने सरकार और जनता दोनों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। ग़ौरतलब है कि प्रश्नावली में सत्रह सवाल हैं। पहली अगस्त को हाईकोर्ट के स्थगन आदेश के हटने के बाद इन्हीं मुश्किलों के बाद कॉस्ट सर्वे फिर शुरू हो गया है। बिहार में दो करोड़ 59 लाख परिवारों की सूची तैयार की गई है। इस सर्वेक्षण में 12.7 करोड जनसंख्या के आँकड़े इकट्ठा किये जा सकेंगे । बिहार में 38 ज़िले, 534 ब्लांक , 261 शहरी स्थानीय निकाय हैं।
सरकार का दावा है कि कॉस्ट सर्वे के बाद सरकार को नीतियाँ बनाने में मदद मिलेगी। यही नहीं, सरकारी योजनाओं का लाभ ज़रूरतमंदों तक पहुँचाना आसान होगा। जबकि कॉस्ट सर्वे का विरोध करने वालों का कहना है कि ये आँकड़े सरकार को जाति आधारित राजनीति करने में मदद करेंगे। सरकार इसका उपयोग राजनीति के लिए करना चाहती है। क्योंकि बिहार की राजनीति में जाति की पहचान बहुत मज़बूत हैं। नीतीश कुमार और तेजस्वी दोनों जातीय राजनीति करते हैं।
सर्वे के सवाल -
- परिवार के सदस्यों के नाम ?
- परिवार के किस सदस्य की कितनी शिक्षा है ।
- सदस्यों की उमर, लिंग, धर्म व जाति क्या है?
- परिवार के सदस्य काम क्या करते हैं?
- परिवार के किन किन सदस्यों के नाम शहर में मकान/ ज़मीन है?
- परिवार के पास खेती की ज़मीन है या नहीं?
- ज़मीन व मकान की पूरी जानकारी दे ?
- परिवार में लैपटॉप व कंप्यूटर हैं या नहीं?
- परिवार में दो पहिया, तीन पहिया या चाऱ पहिया वाहन हैं या नहीं?
- परिवार के सभी सदस्यों की सम्मिलित आमदनी कितनी है ?
लोगों की नाराज़गी संपत्ति व परिवार की आमदनी की जानकारी को लेकर है। इस कॉस्ट सर्वे में शिक्षा के बार में जानकारी देने को लेकर भी लोगों की नाराज़गी देखी जा सकती है।
ग़ौरतलब है कि 1931 में जातिगत जनगणना हुई थी। 1941 में यह जनगणना हुई तो पर आँकड़े सार्वजनिक नहीं किये गये। आज यह सवाल जेरे बहस इसलिए है क्योंकि मंडल कमीशन ने पिछड़ों की आबादी को 52 फ़ीसदी बता कर 27 फ़ीसदी आरक्षण दिया था। लेकिन जनगणना के मुताबिक़ 14.3 फ़ीसदी मुसलमान हैं। अनुसूचित जाति 16.6 फ़ीसदी व जनजाति 8.6 फ़ीसदी हैं। इस लिहाज़ से ये सह 92 के आसपास बैठते हैं। बाक़ी के आठ फ़ीसदी में ब्राह्मण,ठाकुर, वैश्य, पंजाबी, खत्री, ईसाई, जैन आदि आते हैं। यह आँकड़ा गले उतरने वाला नहीं है।
दिलचस्प है कि जब भी कोई नेता या दल विपक्ष मे होता है तो जातीय जनगणना उसके एजेंडे का हिस्सा होता है। जब वही सत्ता में हो जाते हैं तो यह उसके एजेंडे से सरक कर जाने कहाँ चला जाता है। 2018 की जनगणना की तैयारी के समय राजनाथ सिंह ने एक विज्ञप्ति जारी करके कहा था कि नई जनगणना में ओबीसी का डाटा एकत्र किया जायेगा। पर ससंद में सरकार इससे मुकर गई। 2011 में कॉंग्रेस ने ग्रामीण विकास व शहरी विकास मंत्रालय के तत्वावधान में सोशियो इकॉनॉमिक कास्ट सेंसस (SECC)आधारित डाटा जुटाया था। इस पर चार हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा की धनराशि खर्च की गई।लेकिन 2016 में SECC के सभी आँकड़े प्रकाशित हुए पर जाति के आँकड़े नहीं आम किये गये। सरकारों का भय यह है कि कहीं ओबीसी की संख्या कम हुई तो सारे ओबीसी नेता यह कहेंगे कि जनगणना ग़लत है। क्योंकि वे तो डॉ लोहिया के उस नारे को मान चुके हैं।जिसमें डॉ लोहिया कहा करते थे,- पिछड़े पावैं सौ में साठ। पर ये यह भूल गये कि डॉ लोहिया सभी समाज की महिलाओं को भी पिछड़ा ही मानते थे।
हक़ीक़त यह है कि जातीय जनगणना से ही जातीय राजनीति की शुरूआत होती है। एक बार जातीय जनगणना हो गयी तो उस बात की लड़ाई शुरू हो जायेगी कि- “ जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी ।” सत्ताइस फ़ीसदी आरक्षण के अंदर संख्या बल के हिसाब से आरक्षण की सियासत तेज होगी। राज्य व केंद्र की ओबीसी सूची अलग अलग है। इसे लेकर भी सियासत होनी शुरू हो जायेगी। पक्ष को यह भी नज़र आ रहा है कि भाजपा के हिंदुत्व की राजनीति की काट केवल जातीय राजनीति ही है।