परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्माः एक हाथ से लड़ी जंग, बचाया कश्मीर
मेजर शर्मा ने अपनी स्कूली शिक्षा नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में की बाद में उन्होंने प्रिंस ऑफ वेल्स रॉयल मिलिट्री कॉलेज देहरादून में दाखिला लिया। वह 8वीं बटालियन, 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट (बाद में चौथी बटालियन, कुमाऊं रेजिमेंट) में कमीशन किया गया।
रामकृष्ण वाजपेयी
लखनऊ: मेजर सोम नाथ शर्मा देश के पहले परमवीर चक्र विजेता थे। उन्हें मरणोपरांत यह सर्वोच्च वीरता पुरस्कार दिया गया था। 1947-48 के दौरान कश्मीर में जब पाकिस्तान ने पहली बार युद्ध के दौरान कबायिलियों की घुसपैठ कराई थी तब श्रीनगर हवाई अड्डे से पाकिस्तानी घुसपैठियों और हमलावरों को बाहर निकालने मेजर सोमनाथ शर्मा अद्भुत बहादुरी दिखाते हुए शहीद हुए थे। वह 4 कुमाऊं रेजिमेंट के थे। उस समय मेजर शर्मा की उम्र बहुत कम थी।
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जन्म 31 जनवरी 1923 को दाद, कांगड़ा में हुआ था
मेजर सोम नाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 को दाद, कांगड़ा में हुआ था, जो तब ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत में था। उनके पिता, मेजर जनरल अमर नाथ शर्मा, निदेशक, चिकित्सा सेवा (सेना) से सेवानिवृत्त हुए, उनके भाई लेफ्टिनेंट जनरल सुरिंदर नाथ शर्मा इंजीनियर-इन-चीफ के रूप में सेवानिवृत्त हुए और जनरल विश्व नाथ शर्मा ( सेनाध्यक्ष, 1988-1990) और उनकी बहन मेजर कमला तिवारी (मेडिकल डॉक्टर) के रूप में सेवानिवृत्त हुईं। यानी यह पूरा परिवार प्रतिम देशभक्ति की मिसाल रहा।
मेजर शर्मा ने अपनी स्कूली शिक्षा नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में की बाद में उन्होंने प्रिंस ऑफ वेल्स रॉयल मिलिट्री कॉलेज देहरादून में दाखिला लिया। वह 8वीं बटालियन, 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट (बाद में चौथी बटालियन, कुमाऊं रेजिमेंट) में कमीशन किया गया।
31 अक्टूबर 1947 को श्रीनगर में एयरलिफ्ट किया गया था
सोमनाथ की कंपनी को 31 अक्टूबर 1947 को श्रीनगर में एयरलिफ्ट किया गया था। उस समय उनके बायें हाथ में प्लास्टर चढ़ा हुआ था, जो कि कुछ पहले हॉकी मैदान में लगी चोटों के कारण फ्रैक्चर हो गया था, लेकिन उन्होंने अपनी कंपनी के साथ मुकाबले में रहने पर ज़ोर दिया और उन्हें जाने की अनुमति दी गई।
3 नवंबर 1947 को, मेजर सोमनाथ शर्मा की कंपनी (4 कुमाऊं की कंपनी) को कश्मीर घाटी के बडगाम गाँव में घुसपैठ पर कार्रवी करने का आदेश दिया गया।
जहां 700 हमलावरों के एक आदिवासी "लश्कर" ने गुलमर्ग की दिशा से बडगाम का रुख किया था। सोमनाथ की कंपनी यहां तीन तरफ से दुश्मन से घिर गई और मोर्टार बमबारी से भारी नुकसान हुआ। सोमनाथ श्रीनगर शहर और हवाई अड्डा दोनों के महत्व को समझ रहे थे। उन्हें लगा अगर यह क्षेत्र हाथ से निकल जाता है तो पूरी घाटी असुरक्षित हो जाएगी। भारी गोलाबारी के बीच उन्होंने अपनी कंपनी से बहादुरी से लड़ने का आग्रह किया।
वह कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कमांडर थे
वह कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कमांडर थे। साथियों ने रोकने की कोशिश की तो जवाब मिला, 'सैन्य परंपरा के अनुसार जब सिपाही युद्ध में जाता है तो अधिकारी पीछे नहीं रहते हैं।'
भारी संख्या में हताहतों ने जब उनकी कंपनी की फायरिंग पावर पर प्रतिकूल प्रभाव डाला, तो बाएं हाथ में फ्रैक्चर होने के नाते साथियों को गोला बारूद दे रहे मेजर शर्मा ने लाइट मशीन गन का संचालन अपने ऊपर ले लिया। मेजर सोमनाथ ने लगातार छह घंटे तक सैनिकों को लडऩे के लिए उत्साहित किया और नतीजा अपने हक में किया। श्रीनगर के दक्षिण पश्चिम में युद्ध भूमि से करीब 15 किलोमीटर दूर बडग़ांव में 3 नवंबर, 1947 को दुश्मनों से लोहा लेते हुए मेजर सोमनाथ शर्मा ने उस समय शहादत पाई जब दुश्मन का गोला उनके पास रखे बारूद के ढेर पर गिर गया।
शहीद होने से कुछ समय पहले ब्रिगेड मुख्यालय को दिए अंतिम संदेश में उन्होंने लिखा
शहीद होने से कुछ समय पहले ब्रिगेड मुख्यालय को दिए अंतिम संदेश में उन्होंने लिखा: ''दुश्मन हम से सिर्फ 50 गज के फासले पर है, हमारी तादाद न के बराबर है और हम जबरदस्त गोलाबारी से घिरे हैं...मगर एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा, जब तक हमारे पास आखिरी गोली और आखिरी फौजी है।''
जब तक कुमाऊँ रेजिमेंट की बटालियन बडगाम पहुंची, तब तक स्थिति काबू में आ चुकी थी। मेजर सोमनाथ और उनके साथियों के बलिदान से श्रीनगर और कश्मीर घाटी बच गए थे। लेकिन मेजर शर्मा जैसा महान योद्धा सदा के लिए भारत माता की गोद में सो चुका था।
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मेजर सोमनाथ शर्मा को अपनी शहादत का पूर्वाभास था
ऐसा लगता है कि मेजर सोमनाथ शर्मा को अपनी शहादत का पूर्वाभास था क्योंकि जंग में जाने से पहले उन्होंने अपनी बहन मनोरमा शर्मा यानी कूक्कू के नाम पर अपनी वसीयत कर दी थी। उन्हें यह चिंता थी कि उनकी बहनें अभी छोटी हैं। अफसोस इस बात पर होता है कि हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के पालमपुर विधानसभा क्षेत्र के मेजर शर्मा के डाढ गांव में स्थित उनके घर पर आज तक उनका स्मारक नहीं बन सका है। ये मेजर शर्मा की सैन्य पृष्ठ भूमि और विरासत में मिले वीरता के गुण ही थे कि दुश्मन देश कश्मीर को नहीं ले पाया।
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