गतिरोध दूर करने को सरकार और आरबीआई दोनों को 'कुछ नरमी' दिखानी होगी: पनगढ़िया
नई दिल्ली: सरकार और आरबीआई के बीच जारी गतिरोध पर नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष चर्चित अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया ने सुझाव दिया है कि सरकार तथा आरबीआई दोनों को 'कुछ नरमी' दिखानी होगी और राष्ट्रहित में मिल-जुलकर चलना चाहिए। उन्होंने कहा कि आरबीआई को अमेरिका के फेडरल रिज़र्व बैंक की तरह स्वतंत्रता नहीं है।
पनगढ़िया ने कहा कि अमेरिका के फेडरल रिज़र्व बैंक के मुकाबले आरबीआई क़ानूनी रूप से कम स्वतंत्र है पर प्रभावी तौर पर देखा जाए तो उसे उतनी ही आज़ादी है जितना कि अमेरिकी नियामक को है। आरबीआई तथा सरकार को मिलकर काम करने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा 'यहां तक कि जब दोनों पक्षों के बीच मतभेद होता है, उन्हें अंतत: सुलह करनी चाहिए और राष्ट्रीय हित में एक साथ चलना चाहिए।
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मतभेद हैं लेकिन अंतत: दोनों पक्ष साथ चलते हैं
बता दें कि पनगढ़िया इस समय अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में भारतीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्राचार्य है। उन्होंने यह भी कहा कि मीडिया मतभेदों की ख़बर को कुछ ज़्यादा ही फैलाता है। मीडिया दोनों की सहमति का दायरों की बात नहीं करता। पूर्व में कई बार देखा गया है कि वित्त मंत्रालय और आरबीआई प्रमुख के बीच ब्याज दर, नकदी और बैंक क्षेत्र के प्रबंधन से जुड़े विभिन्न मामलों को लेकर मतभेद हैं लेकिन अंतत: दोनों पक्ष साथ चलते हैं।
इस बार दोनों पक्षों के बीच मतभेद उस स्तर पर पहुंच गया जहां ऐसी चर्चा है कि सरकार ने आरबीआई क़ानून की धारा 7 के तहत केंद्रीय बैंक के साथ विचार-विमर्श शुरू किया है। पूर्व में कभी भी इस धारा का उपयोग नहीं किया गया। वित्त मंत्रालय और उर्जित पटेल की अध्यक्षता वाले आरबीआई के बीच कई मुद्दों पर मतभेद है। इसमें वित्तीय दबाव झेल रहे बिजली क्षेत्र को राहत, सार्वजनिक क्षेत्र के कमज़ोर बैंकों का प्रबंधन, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के समक्ष नकदी समस्या का समाधान तथा रिज़र्व बैंक से स्वतंत्र भुगतान नियामक प्राधिकरण का गठन शामिल हैं।
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ऐसा समझा जाता है सरकार ने धारा 7 के तहत तीन पत्र आरबीआई को भेजा है। आरबीआई क़ानून की यह धारा सरकार को जनहित से जुड़े मामले में केंद्रीय बैंक के गवर्नर को निर्देश देने का अधिकार देता है। मालूम हो कि बीते छह नवंबर को इंडियन एक्सप्रेस की एक विशेष रिपोर्ट में बताया गया था कि केंद्र की मोदी सरकार की ओर से 3.6 लाख करोड़ रुपये की सरप्लस (अतिरिक्त) रकम की मांग की गई थी, जिसे भारतीय रिज़र्व ने ठुकरा दिया था।
इतनी बड़ी राशि देने के बाद अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा
वित्त मंत्रालय की ओर से यह प्रस्ताव रिज़र्व बैंक को दिया गया था। प्रस्ताव में रिज़र्व बैंक के पास जमा कुल रकम या पूंजी 9.59 लाख करोड़ रुपये में से एक तिहाई यानी 3.6 लाख करोड़ रुपये की सरप्लस रकम केंद्र सरकार को देने की बात कही गई थी। हालांकि सरकार को केंद्रीय बैंक के भंडार से इतनी बड़ी राशि देने के बाद अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा, इस वजह से सरकार के इस प्रस्ताव को बैंक की ओर से नामंज़ूर कर दिया गया था।
केंद्र सरकार की राय है कि कुल पूंजी को लेकर केंद्रीय बैंक का अनुमान ज़रूरत से ज़्यादा है। इस वजह से उसके पास 3.6 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि है। उल्लेखनीय है कि उर्जित पटेल की अगुवाई वाले आरबीआई और सरकार में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
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आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के एक वक्तव्य के बाद केंद्रीय बैंक और सरकार के बीच मतभेद खुलकर सतह पर आ गए थे। डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने कहा था कि जो सरकारें अपने केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का सम्मान नहीं करतीं उन्हें देर सबेर 'बाज़ारों के आक्रोश' का सामना करना पड़ता है।
इसके बाद यह सामने आया कि सरकार ने एनपीए नियमों में ढील देकर क़र्ज़ सुविधा बढ़ाने सहित कई मुद्दों के समाधान के लिए आरबीआई अधिनियम के उस प्रावधान का इस्तेमाल किया है, जिसका उपयोग पहले कभी नहीं किया गया था ताकि वृद्धि दर तेज़ की जा सके। हालांकि केंद्रीय बैंक की सोच है कि इन मुद्दों पर नरमी नहीं बरती जा सकती है।