Cheetah: बेहद सीधा जानवर है चीता, अपने स्वभाव से भी मारा गया ये बेजुबान

Cheetah: एक तो, चीते को वश में करना बहुत आसान रहा है। पुराने समय में इसे अक्सर जानवरों का शिकार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। लगभग एक शिकारी कुत्ते की तरह इनसे काम लिया जाता था।

Written By :  Neel Mani Lal
Update:2022-06-08 14:19 IST

बेहद सीधा जानवर है चीता (Social media)

Animal News: चीता भले ही देखने में आक्रामक लगे लेकिन ये किसी पालतू बिल्ली की प्रकृति वाला होता है। शेर, बाघ, तेंदुए जैसे बिल्ली परिवार के बाकी सदस्यों से चीते का व्यवहार एकदम अलग होता है। कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि स्वभावगत विशेषताएं ही चीते को इसके अंत की ओर ले गईं। 

एक तो, चीते को वश में करना बहुत आसान रहा है। पुराने समय में इसे अक्सर जानवरों का शिकार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। लगभग एक शिकारी कुत्ते की तरह इनसे काम लिया जाता था। राजा महाराजा और शिकारी इनकी मदद से शिकार करते थे और इसलिए इस तरह के उपयोग के लिए बड़ी संख्या में इनको पकड़ा गया था। दूसरी बात ये कि चीतों का कैद में प्रजनन करना लगभग असंभव था। कहा जाता है कि अकबर ने 16वीं शताब्दी में अपने 49 साल के शासनकाल के दौरान अपने शाही परिवार के लिए 9,000 चीतों को जंगल से पकड़वाया था। आखिरकार, 18वीं शताब्दी की शुरुआत में, जंगली, विशेष रूप से शावकों से चीतों का लगातार पकड़ा जाना एक महत्वपूर्ण बिंदु पर पहुंच गया।

 जब अंग्रेजों ने भारत पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली और चीतों की संख्या और उनसे जुड़ी घटनाओं को रिकॉर्ड करना शुरू कर दिया, तब तक चीतों की संख्या बहुत कम हो चुकी थी। बताया जाता है कि 1772 और 1997 के बीच केवल 414 चीतों।के लिखित संदर्भ दर्ज किए गए।

एक अन्य कारक ने जानवर के खिलाफ काम किया, इसकी आंतरिक रूप से विनम्र प्रकृति। एक्सपर्ट्स के अनुसार चीते इतने सौम्य थे कि उसकी तुलना कुत्ते से की गई है। इसने कभी उस डर को पैदा नहीं किया जो बाघों, शेरों और तेंदुओं ने किया था। इनको आसानी से वश में कर लिया जाता है, आसानी से ये घरेलू जीव बन जाते हैं। इन जानवरों में से कई तो पालतू होने के बाद कुत्ते की तरह कोमल और विनम्र होते हैं। इनका व्यवहार पालतू बिल्लियों की तरह हो जाता है। ब्रिटिश काल के चित्रों और दस्तावेजों में दर्ज है कि लोग चीतों को अपने घरों में चेन से बांध कर रखते थे। इनको पिंजरे की बजाए चारपाई से बांध कर रखा जाता था।

वास्तव में चीते के हमले से मानव मृत्यु का केवल एक ही रिकॉर्ड है जिसके बारे में पता है। विशाखापत्तनम में गवर्नर के एजेंट ओ.बी. इरविन की 1880 में एक यात्रा के दौरान विजयनगरम के राजा के पालतू चीते के पंजों से मारे जाने के बाद मृत्यु हो गई थी।

इसके बाद, तो ब्रिटिश सरकार को चीतों के विनाश की ठान ली और उनको मारने के लिए पुरस्कार की घोषणा कर दी। पर्यावरण इतिहासकारों द्वारा उल्लेख किया गया है कि 1871 के आसपास से वयस्क चीतों और शावकों के सफाये के लिए पुरस्कार दिए गए थे। शायद इसी कदम ने देश में चीतों के भाग्य को लिख दिया।

1951-52 में, भारत सरकार द्वारा चीतों को वास्तविक रूप से विलुप्त माना गया था। लेकिन 1970 के दशक की शुरुआत में कुछ ऐसे वाकये हुए जिनमें चीतों को देखे जाने के विश्वसनीय उल्लेख दर्ज किए गए। 1967 में कोरया, छत्तीसगढ़ के जंगलों और 1968 में मध्य प्रदेश के सरगुजा में, और फिर 1975 में झारखंड के हजारीबाग में दांतो कलां नामक एक गाँव के आसपास के खुले जंगलों में चीते देखे गए थे।

पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में, आखिरी चीते 1990 के दशक के अंत तक जीवित रहे। एक चीते को कथित तौर पर 1997 में बलूचिस्तान के चगाई मैदानों में गोली मार दी गई थी। उसी वर्ष यहां के ओरमारा के आसपास एक मादा और दो शावक देखे गए। वास्तव में, 'एशियाई चीता' शब्द भारत में प्रजातियों के विलुप्त होने के बाद ही गढ़ा गया।इससे पहले, इसे भारतीय चीता के नाम से जाना जाता था।

कहा जाता है कि'चीता' शब्द संस्कृत के चित्रक से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'चित्तीदार'। 2500 से 2300 ईसा पूर्व के एशियाई चीते का सबसे पहला दृश्य प्रमाण, मध्य प्रदेश में खारवई और खैराबाद और ऊपरी चंबल घाटी में गुफा चित्रों में पाया जाता है। 1935 में, जर्नल ऑफ बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी द्वारा प्रकाशित एक दस्तावेज ने चीता की पूर्ववर्ती सीमा का संकेत दिया: यह बंगाल से संयुक्त प्रांत, पंजाब और राजपूताना, मध्य भारत से दक्कन तक घूमता था।

भारत के बाहर, चीता उत्तर की ओर रूसी तुर्किस्तान और ट्रांस-कैस्पिया तक फैला हुआ है। माना जाता है कि दक्षिण-पश्चिमी एशिया में इसकी सीमा सिंध की सीमा से अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और फारस और मेसोपोटामिया के कुछ हिस्सों से होते हुए सीरिया और फिलिस्तीन तक पहुंचती है। 

भारत में चीते का निवास स्थान झाड़ियाँ, शुष्क और अर्ध-शुष्क खुली भूमि हुआ करता था। ये घने जंगलों में नहीं पाए जाते थे। आबादी और मानवीकरण होने के साथ चीतों के आवास लगातार पीछे धकेले जाते गए। अंतिम चीतों को पूर्व-मध्य भारत में साल के जंगलों के किनारों के आसपास शरण मिली लेकिन वहां भी ये ढूंढ कर खत्म कर दिए गए।आज यह जानवर एशिया से ही विलुप्त होने के कगार पर है। दुनिया के आखिरी एशियाई चीते मुश्किल से 50 बचे हैं।

1970 के दशक की शुरुआत से, भारतीय अधिकारियों और उनके ईरानी अधिकारियों के बीच चीता को भारत वापस लाने के लिए बातचीत चल रही थी। बदले में, ईरान चाहता था कि भारत उसे दो बाघ व एशियाई शेर दे। ईरान में पिछली शताब्दी में ये विलुप्त हो गए थे।प्रारंभिक बातचीत के बावजूद ये परियोजना आगे नहीं बढ़ सकी क्योंकि ईरान में चीतों की संख्या गंभीर रूप से कम थी और ये हजारों वर्ग मील ऊबड़-खाबड़ इलाकों में फैले थे।।हाल के वर्षों में, भारत ने एक बार फिर परियोजना को पुनर्जीवित करने में रुचि दिखाई और अफ्रीका की ओर देखा। यह सुझाव दिया गया था कि चूंकि एशियाई और अफ्रीकी चीतों के बीच आनुवंशिक अंतर बहुत बड़ा नहीं था, इसलिए अफ्रीकी प्रजातियों को यहां लाया जा सकता है। भारत के गंभीर रूप से संकटग्रस्त घास के मैदानों, सवाना और शुष्क भूमि के पुनरुद्धार के लिए चीता एक प्रमुख प्रजाति बन सकते हैं। 

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