माओ तथा डेंग शियापिंग के बाद अब चीन शी जिनपिंग युग में प्रवेश कर विश्व को चुनौती दे रहा है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं बैठक में न केवल शी जिनपिंग को अगले राष्ट्रपति का कार्यकाल दिया गया, अपितु शी जिनपिंग के विचारों को चीनी संविधान में जगह दी गयी है।
अब शी जिनपिंग का कद चीन में कितना ऊंचा हो गया,उसे इसी से समझा जा सकता है कि शी जिनपिंग थॉट अब चीन के करोड़ों छात्र अनिवार्य पाठ्यक्रम के अंतर्गत पढ़ेंगे। पूर्व चीनी नेताओं हू जिन्ताओ और जियांग जेमिन के सिद्धांत इसमें शामिल किए गए हैं, लेकिन उनका नाम शामिल नहीं किया गया। खुद को सर्वशक्तिमान बनाते हुए शी जिनङ्क्षफग ने अपनी टीम घोषित कर दी है। दुनिया के सबसे बड़े जनसंख्या वाले देश को चलाने के लिए वहां की सबसे शक्तिशाली सात सदस्यीय संस्था पोलित ब्यूरो स्टैंडिंग कमेटी की तस्वीर साफ हो चुकी है।
सीपीसी की 19वीं कांग्रेस में अपने उत्तराधिकारी का संकेत न देकर जिनङ्क्षफग ने अपने इरादे जाहिर कर दिए हैं कि अभी वे टिककर चीन की दिशा-दशा तय करते रहेंगे। शी ने ऐसी टीम चुनी है जिसमें कोई उनको चुनौती देता नजर नहीं आता है। पिछले 5 वर्षों में उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के तहत लगभग सभी ऐसे नेताओं को या तो अनुशासन के डंडे से हाशिये पर डाल दिया या फिर उन्हें वफादार बनने पर मजबूर कर दिया।
पिछले ही सप्ताह पोलित ब्यूरो के सदस्य सू चंगसाए को राष्ट्रपति शी के खिलाफ साजिश करने की वजह से अचानक सभी पदों से हटाया गया,जबकि माना जा रहा था कि 2022 में जिनपिंग के बाद वही चीन की कमान संभालेंगे। लेकिन स्टैंडिंग कमेटी के नए सदस्यों के चुनाव से स्पष्ट हो गया है पार्टी 2022 में नेतृत्व के लिए फिलहाल किसी को तैयार नहीं कर रही है।
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महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि शक्तिशाली शी जिनपिंग भारत के लिए एक मौका हैं या चुनौती? अगर भारत के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह स्थिति भारतीय विदेश नीति के अनुकूल ही है। प्रथमत: भारतीय विदेश नीति निर्माता शी जिनङ्क्षपंग के विस्तारवादी आक्रामक रवैये से पहले से परिचित हैं तथा उसके अनुरुप ही चीन के साथ संबंधों का निर्धारण कर रही है। ऐसे में चीन के किसी नए राष्ट्रपति बनने के तुलना में शी जिनपिंग के राष्ट्रपति बनने से विदेश नीति में एकरूपता बनी रहेगी। वैसे भी विदेश नीति में अघोषित शत्रु के स्थान पर घोषित शत्रु से संघर्ष ज्यादा आसान होता है।
शी जिनपिंग एवं भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के पिछले सभी मुलाकातें काफी तनावपूर्ण स्थिति में हुई हैं। फिर भी दोनों नेताओं ने प्रत्येक मौके पर संयम और संतुलन की नीति से आगे बढऩे पर बल दिया है। दोनों का पूर्ण प्रयास रहा है कि मतभेदों का कूटनीतिक समाधान ही निकाला जाए।
शक्तिशाली शी जिनपिंग वन बेल्ट वन रोड को एक बड़ी वैश्विक पहल के रूप में पेश करते हैं। भारत भी जापान के साथ मिलकर एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर प्रारंभ कर रहा है। इसे एक अलग वैकल्पिक मॉडल खड़ा करने के रूप में देखा जा रहा है। चीन का ओबीओआर प्रोजेक्ट तो टॉप डाउन मॉडल है,जिसमें चीन ने फैसला लिया है कि यूरोप से लेकर मध्यपूर्व और अफ्रीका तक किस तरह निवेश करेगा और क्या आधारभूत ढांचा विकसित करेगा। लेकिन भारत और जापान का बॉटम अप मॉडल जिसमें अफ्रीकी देशों से पूछा जाएगा कि उनकी क्या जरुरतें है। इस योजना से सिर्फ फायदा नहीं देखा जा रहा बल्कि अफ्रीकी देशों की क्षमता भी बढ़ाई जाएगी और वहां पर आॢथक विकास को बढ़ावा दिया जाएगा।
चीन को समझ लेना चाहिए कि वह लंबे समय तक विकास के नाम पर निवेश के बहाने छोटे देशों के संप्रभुता से नहीं खेल सकता। अगर उसकी साम्राज्यवादी विस्तार की छवि बनी रहेगी तो चीन को काफी नुकसान उठाना होगा। यही कारण है कि शी जिनपिंग को पार्टी संबोधन में कहना पड़ा कि चीन से किसी को डरने की जरूरत नहीं है। इसके अतिरिक्त शी भारत पर डोकलाम मामले में अत्यधिक मनोवैज्ञानिक दबाव डालकर देख चुके हैं परंतु भारत दृढ़ता से चीन के सामने खड़ा रहा। इससे जिनपिंग भी समझ चुके हैं कि यह भारत 1962 से पूरी तरह परिवॢतत हो चुका है,जिस पर युद्ध की धमकी अब बेअसर रहती है।
दुनिया के एक बड़े हिस्से में जिस तरह संरक्षणवाद की आंधी चल रही है,वैसे में चीन में वैश्वीकरण के समर्थक शी जिनपिंग के अत्यधिक शक्तिशाली रुप से उभरने से भारत के वैश्वीकरण समर्थन वाले प्रयासों को भरपूर बल मिल सकता है। अमेरिका में अमेरिका फस्र्ट के नारे के साथ ट्रंप का मामला हो या ब्रिटेन में ब्रैक्जिट का मामला हो,सभी संरक्षणवाद की ओर ही अग्रसर हैं। ऐसे में भारत जिनपिंग के साथ वैश्वीकरण युक्त विश्व के लिए गंभीर प्रयास कर सकता है।
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इसके अतिरिक्त जिस तरह अमेरिका ने पर्यावरण संबंधित संधियों से स्वयं को दूर किया है,वैसे में भारत-चीन ने मिलकर वैश्विक स्तर पर पर्यावरण मामलों पर विकासशील देशों के मामलों पर बेहतरीन रूप से उठाया है। इस तरह का सहयोग आगे भी जारी रहने की पूरी संभावना है। लेकिन इन सब के बीच अगर शक्तिशाली जिनपिंग फिर से भारत के प्रति आक्रामक होते हैं तो चीन को कई बातों को समझ लेना होगा।
तुलनात्मक तौर पर भारत चीन के समक्ष भले ही कमजोर लगता है,परंतु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। चीनी सेना ने वियतनाम युद्ध के बाद किसी युद्ध में भाग नहीं लिया है जबकि भारतीय सेना सदैव पाकिस्तानी सीमा पर अघोषित युद्ध से संघर्षरत ही रहती है। विशेषकर हिमालयी सरहदों में चीन की इतनी काबिलियत नहीं है कि वह भारत का मुकाबला कर सके। साथ ही हिन्द महासागर में भारत काफी मजबूत स्थिति में है।
भारतीय नौसेना बड़ी आसानी से यूरोप,मध्यपूर्व और अफ्रीका के साथ चीन के रास्ते की नाकेबंदी कर सकती है। चीन 87' कच्चा तेल इसी रास्ते आयात करता है। आईएनएस विक्रमादित्य की अगुवाई में भारतीय नौसेना इस नाकेबंदी को और मजबूत कर सकती है।
चीन फिलहाल 11 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था है और भविष्य में यह 2021-23 तक 18-19 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएगी। निवेश के लिहाज से भारत के लिए महत्वपूर्ण होगा क्योंकि भारत को विकास के लिए निवेश चाहिए और चीनी कंपनियां निवेश कर रही हैं। अलीबाबा, पेटीएम और कई व्यवसाय है,जहंा चीन का निवेश है। यह भारत के लिए अच्छा है, लेकिन देखा जाए तो भारत की कंपनियां अब तक चीन में निवेश नहीं कर पाई हैं। भारत को निवेश को कम करने के स्थान पर बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए।
(लेखक कूटनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)