Indira Gandhi : इंदिरा गांधी यदि अपने पद से त्यागपत्र दे देतीं तो ?
PM Indira Gandhi : उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का रायबरेली से (मार्च 1971) का चुनाव भ्रष्टाचार के लिए अवैध करार दिया। वे अब पदासीन नहीं रह सकतीं।
Indira Gandhi : आज (12 जून 2022) भारतीय इतिहास ने (47 वर्ष पूर्व) दो घटनाओं का होना देखा था। दोनों युगांतकारी तथा युगांतरकारी थे। काशीवासी लोहियावादी, जो सोशलिस्ट कहलाना पसंद करते हैं न कि समाजवादी ने याद दिलाई इन दोनों बातों की। तब 1975 सुबह का वक्त था। अहमदाबाद में गुजरात विधानसभा के चुनाव की मतगणना हो गयी थी। तभी ग्यारह सौ किलोमीटर दूर इलाहाबाद (प्रयागराज) स्थित हाईकोर्ट से न्यूज फ्लैश आया। राजनारायणजी की चुनाव याचिका स्वीकार हो गयी। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का रायबरेली से (मार्च 1971) का चुनाव भ्रष्टाचार के लिए अवैध करार दिया।
वे अब पदासीन नहीं रह सकतीं। उपरोक्त दोनों वाकये अनहोनी नहीं थे। गुजरात विधानसभा में इंदिरा कांग्रेस की पराजय तथा प्रधानमंत्री का संसदीय चुनाव रद्द होना निश्चित था। ऐसा ही हुआ। फिर आपातकाल लगाना, विपक्षी जननायकों की लंबी कैद सब जानी मानी है। आज यह प्रश्न समीचीन है कि लोकतांत्रिक मूल्यों का आदर करते जवाहरलाल नेहरु के पुत्री ने त्यागपत्र क्यों नहीं दिया ? करीब आधी सदी होने को आ रही हैं। अनुसंधानकर्ता तथा इतिहासकार अभी भी उत्तर तलाश रहे हैं।
अंधेरे कमरे में काली बिल्ली की खोज जारी है, जो कमरे में हैं ही नहीं। उस दौर में हम बड़ौदा डायनामाइट के अभियुक्त तिहाड़ जेल में मंथन करते थे कि यदि इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री पद छोड़ देतीं, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय मान कर रायबरेली से अपने रद्द किये गये लोकसभा के चुनाव पर सर्वोच्च न्यायालय में पुन र्विचार की अपील दायर करतीं, फैसले की प्रतीक्षा करतीं। तब तक किसी माकूल कांग्रेसी को खड़ाऊं प्रधानमंत्री बना देतीं जो वक्त आने पर उनके खातिर हट जाता।
अपनी जनपक्षधर छवि को तब वे गहरा बना देतीं। इससे उनके दोस्त दंग और दुश्मन तंग हो जाते। फलस्वरूप नेहरू-गांधी परिवार का सत्तावाला सिलसिला अटूट बना रहता और फिर अगले वर्षों तक सत्ता से परिवार अलग नहीं रहता। इस कीर्तिमान को विश्व का कोई भी राजवंश तोड़ न पाता। हालांकि अब यह प्रश्न महज अकादमिक रह गया है। फिर भी इतिहास वेत्ताओं को पड़ताल करनी चाहिये। इस अगर-मगर के सवाल का उत्तर खोजना चाहिए, ताकि भविष्य में सावधानी बरती जा सके।
लेकिन इन प्रश्नों पर मेरी सुनिश्चित राय वैसी ही है जैसी 26 जून 1975 के दिन थी। इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री पद कभी भी नहीं छोड़तीं। उनके पैतृक संस्कार, उनकी निजी सोंच, राजनीतिक प्रशिक्षण और कौटुम्बिक कार्यशैली, इन्दिरा गांधी को इस लोकतांत्रिक चिन्तन तथा व्यवहार को अंगीकार करने के लिए कतई कायल न बनातीं। भारतीय संविधान बनाने वाले महारथियों ने ही वे प्रावधान रचे थे जिनके तहत राष्ट्रपति बस एक हस्ताक्षर से सारी राजसत्ता को समेट कर महात्वाकांक्षी और अधिनायकवादी प्रधानमंत्री को उपहार में दे सकता था। यही हुआ भी।
एक और मुद्दा तिहाड़ जेल में हम लोगों की चर्चा में उभरता था। यदि 1975 वाली स्थिति जवाहरलाल नेहरू के समक्ष आ जाती तो वे कैसे निबटते ? कुछ बन्दीजन, जो अटल बिहारी बाजपेयी के प्रभाव में रहते थे, की राय थी कि नेहरू उदार थे अतः पद छोड़ देते। मेरा पूर्ण विश्वास था कि नेहरू 1975 वाली परिस्थिति में इन्दिरा गांधी से बेहतर करते। वे अपना एकाधिकार ही नहीं, सम्राटनुमा शासन देश पर लाद देते।
आजादी के पूर्व ''माडर्न रिव्यू'' में नेहरू ने छद्म नाम से लेख लिखा था, कि "सत्ता पाकर क्या नेहरू तानाशाह बन जायेंगे ? "यह एक शगूफा तब नेहरू ने छोड़ा था कि कांग्रेसी उनके बारे में कैसी आशंकायें रखते हैं? संविधान बनने के बाद लखनऊ के काफी हाउस में एक ने राममनोहर लोहिया से पूछा था कि ''कौन अधिक शक्तिशाली है? राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री?'' लोहिया का उत्तर था; ''निर्भर करता है कि जवाहरलाल नेहरू किस पद पर आसीन रहते हैं।'' इतिहास गवाह है कि अधिकार और सत्ता पाने के लिए नेहरू ने क्या-क्या प्रहसन नहीं रचे।