जानिये संजय गांधी की मौत पर इंदिरा गांधी की पहली प्रतिक्रिया क्या थी
23 जून 1980 की सुबह सबसे पहले यह खबर बीबीसी ने दी थी कि संजय गांधी नहीं रहे। तब यह अफवाह आम थी कि अचानक हुए इस हादसे के पीछे किसी का हाथ है। अफवाहों के इस जंगल में इंदिरा की भूमिका को लेकर भी तमाम तरह के सवाल लोगों के जेहन में घुमड़ रहे थे। सवाल एक था कि संजय की मौत एक दुर्घटना थी या सोची समझी साजिश जिसमें थी किसी खास की भूमिका।
कहा जाता है कि देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संजय गांधी की मौत की खबर के बाद पहली प्रतिक्रिया देते हुए कहा था, 'उसकी घड़ी और चाबियां कहां है।'
23 जून 1980 की सुबह सबसे पहले यह खबर बीबीसी ने दी थी कि संजय गांधी नहीं रहे। तब यह अफवाह आम थी कि अचानक हुए इस हादसे के पीछे किसी का हाथ है। अफवाहों के इस जंगल में इंदिरा की भूमिका को लेकर भी तमाम तरह के सवाल लोगों के जेहन में घुमड़ रहे थे। सवाल एक था कि संजय की मौत एक दुर्घटना थी या सोची समझी साजिश जिसमें थी किसी खास की भूमिका।
सुबह ही निकल गए थे संजय
आज से 39 साल पहले की बात है ये। सुबह का वक्त था, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर से एक गाड़ी बाहर निकली जो कि हरे रंग की मेटाडोर थी इसे उनके छोटे बेटे संजय गांधी चला रहे थे। वह अमेठी से सांसद थे और एक महीने पहले ही कांग्रेस के महासचिव भी बने थे।
संजय घर से निकले। बताया जाता है कि बेटा वरुण सो रहा था। पत्नी मेनका वरुण के पास थीं जो कि तीन साल का हो चुका था।
सफदरगंज एयरपोर्ट
संजय की गाड़ी एक किलोमीटर दूर सफदरजंग एयरपोर्ट पर रुकती है। यहां दिल्ली फ्लाइंग क्लब के चीफ इन्स्ट्रक्टर सुभाष सक्सेना उनका इंतजार कर रहे थे। एक नया एयरक्राफ्ट पिट्स एस 2 ए तैयार खड़ा था। यह हल्के इंजन का विमान कलाबाजी खाने के लिए मुफीद था।
संजय सुभाष के साथ विमान में सवार हुए। सुबह 7.15 बजे उड़ान भरी। कुछ ही मिनटों के बाद उनका नियंत्रण खत्म हो गया और घर्र घर्र की आवाज करता विमान डिप्लोमैटिक एनक्लेव में संजय गांधी के घर से कुछ ही मिनटों की दूरी पर क्रैश कर गया।
फूट फूट कर रो पड़ी थीं
हादसे की खबर फैलते ही मिनटों में एंबुलेंस मौके पहुंच गईं। डालियां काटी गईं। प्लेन के मलबे के बीच से संजय और सुभाष की लाश निकाली गई। ब्रेन हैमरेज के चलते दोनों की मौके पर ही मौत हो गई थी। उन्हें वहीं स्ट्रैचर पर लाल कंबल से ढक दिया गया। कुछ ही मिनटों में वहां पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहुंचीं। उनके साथ सचिव आरके धवन भी थे। कार से उतरते ही इंदिरा दौड़ने लगीं. फिर कुछ संभलीं. मगर बेटे की शकल देखने के बाद फूट फूट कर रोने लगीं।
इस घटनाक्रम के बीच ही कहा जाता है कि पूछा था, 'उसकी घड़ी और चाबियां कहां है।' हालांकि बाद में इस बात की पुष्टि नहीं हो सकी। अफवाहों में तो इंदिरा गांधी को रुमाल में लपेट कर कुछ दिये जाने की बात भी रही लेकिन कभी इसकी पुष्टि नहीं हुई।
बेअंदाज संजय
एक मां के रूप में इंदिरा गांधी की यह बहुत बड़ी क्षति थी। लेकिन बेअंदाज संजय को अपनी सत्ता और शक्ति के आगे सब छोटे नजर आते थे। मां की हैसियत उससे अलग नहीं थी। अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए संजय को किसी पद की दरकार नहीं थी। अघोषित रूप से यह दिखता था कि कांग्रेस के सर्वेसर्वा वही है।
संजय का रवैया सियासत में और उसके बाहर भी दुस्साहस की हद तक लापरवाह और जोखिम भरा था। संजय की जिद के आगे इंदिरा गांधी एक बेबस मां थीं। जिसका अंत एक दुखद हादसे के रूप में हुआ था।
खलनायक थे
संजय गांधी विरोधी दलों के लिए इमरजेंसी के खलनायक थे। संजय की पहली जिद थी जनता कार बनाना। मारूति के नाम से और इस सपने के लिए मां इंदिरा ने बैकों की तिजोरियां खुलवा दीं थीं। लेकिन बाद में संजय को सरकारें बनाने बिगाड़ने के काम में मजा आने लगा था।
तुर्कमान गेट पर मलिन बस्ती हटाने के लिए बुलडोजर चलवा कर गोलियां चलवाना। नसबंदी कार्यक्रम के लिए जबरदस्ती करना आदि से वह बदनाम थे। लेकिन 1980 के चुनाव में इंदिरा की वापसी कराने में भी संजय गांधी की अहम भूमिका थी। एक तरीके से यह तय हो चुका था कि इंदिरा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी संजय होंगे लेकिन काल ने पूरी कहानी पलट दी।