Siddaramaiah Biography: सिद्धारमैया कैसे कर्नाटक में बन गए सबसे ताकतवर कांग्रेसी नेता, जानें उनका अब तक का सियासी सफर

Siddaramaiah Biography in Hindi: सिद्धारमैया का जन्म 12 अगस्त 1948 को मैसूर जिले के सिद्धारमहुंडी गांव के एक किसान परिवार में हुआ था। उनका परिवार कुरूबा समुदाय से ताल्लुक रखता है, जो कि कर्नाटक में ओबीसी में आता है।

Update:2023-05-18 15:57 IST
Siddaramaiah Biography in Hindi(photo: social media )

Siddaramaiah Biography in Hindi: कन्नड़ भाषा में ‘सिद्धारमा’ का अर्थ होता है एक ऐसा शख्स जो वह चाहता है, उसे पा लेता है। अपने नाम के अनुरूप ही सिद्धारमैया का अब तक का सियासी सफर रहा है। बचपन से ही जिद्दी और समझौता न करने वाले शख्स रहे सिद्धारमैया के इस गुण ने उन्हें सार्वजनिक जीवन में सफल होने में सबसे ज्यादा मदद की। अपने चार दशक से अधिक लंबे सियासी करियर में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे लेकिन उनकी निरंतरता बनी रही। जिसकी वजह से उस पद पर पहुंचने में कामयाब रहे, जहां हर सियासतदां अपने सियासी जीवन में जरूर पहुंचना चाहता है।

सिद्धारमैया ने ये मुकाम उस पार्टी में रहते हुए हासिल किया, जिसके कभी वे कट्टर प्रतिद्वंदी रहे हैं। करीब ढ़ाई दशक तक कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाले सिद्धारमैया कभी राज्य में पार्टी के सबसे बड़े विरोधियों में शुमार थे। लेकिन आज वह राज्य के सबसे लोकप्रिय कांग्रेसी हैं। लोकप्रियता के मामले में कांग्रेस का कोई भी नेता उनके आसपास तक नहीं फटकता। 135 विधायकों में से 85 विधायकों की पसंद बतौर मुख्यमंत्री सिद्धारमैया हैं। तो आइए एक नजर कर्नाटक के लोकप्रिय नेता के अब तक के सफर पर डालते हैं –

गांव का पहला ग्रेजुएट और वकील

सिद्धारमैया का जन्म 12 अगस्त 1948 को मैसूर जिले के सिद्धारमहुंडी गांव के एक किसान परिवार में हुआ था। उनका परिवार कुरूबा समुदाय से ताल्लुक रखता है, जो कि कर्नाटक में ओबीसी में आता है। सिद्धारमैया के परिवार लोग बताते हैं कि बचपन में उन्हें पढ़ाई में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। गांव के ही अन्य ल़ड़कों की तरह वे खेलने-कूदने और मवेशी चराने का काम किया करते थे। लेकिन उनके पिता ऐसा नहीं चाहते थे। उन्होंने बेटे सिद्धारमैया के अंदर शिक्षा के प्रति ललक पैदा की।

सिद्धारमैया का परिवार बेहद गरीब था। इसलिए उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ काम भी जारी रखा और परिवार को थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद करते रहे। उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से बीएससी और एलएलबी किया। सिद्धारमैया अपने गांव के पहले ऐसे शख्स बने जिसने स्नातक किया और फिर वकील बना। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे वकालत के पेशे में उतरे और धीरे-धीरे वहां अपनी पहचान बना ली। उनके करीबी कहते हैं कि सिद्धारमैया अगर आज राजनीति में न होते तो वे एक चर्चित और सफल वकील के रूप में जाने जाते।

सियासी सफर का हुआ आगाज

वकीलों के राजनीति में आने का काफी पुराना चलन रहा है। सिद्धारमैया के अंदर भी वकालत के पेशे में आने के बाद सियासत में उतरने की इच्छा पैदा हुई। समाजवादी विचारधारा को मानने वाले सिद्धारमैया डॉ राम मनोहर लोहिया से काफी प्रभावित थे। इसलिए उनकी सियासत कांग्रेस विरोध से शुरू हुई। उस दौर में मुख्य लड़ाई कांग्रेस और समाजवादी खेमे की जनता पार्टी के बीच हुआ करती थी। सिद्धारमैया ने साल 1978 में अपने जीवन का पहला चुनाव लड़ा था। वे मैसूर तालुका के लिए चुने गए थे।

पांच साल बाद उन्होंने विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाने की ठानी और जिले की चामंडेश्वरी सीट से टिकट हासिल करने के प्रयास में जुट गए। उस दौर में जनता पार्टी की कमान एचडी देवगौड़ा के हाथ में हुआ करती थी, जिन्होंने टिकट देने से इनकार कर दिया। जिद्दी स्वभाव के सिद्धारमैया ने हार नहीं मानी और निर्दलीय ही ताल ठोंक दिया। उनका यह कदम कामयाब साबित हुआ। लोक दल की मदद से वे अपना पहला विधानसभा चुनाव जीतने में सफल रहे। उन्होंने तब राज्य में रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार का समर्थन किया था।

1985 में जब मध्यावधि चुनाव हुए तो लगातार दूसरी बार विधायक निर्वाचित हुए। सिद्धारमैया अब तक जनता पार्टी के बड़े नेताओं की नजर में आ चुके थे। उनकी काबिलियत को देखते हुए तत्कालीन सीएम हेगड़े ने अपनी सरकार में कई अहम मंत्रालयों की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी। साल 1989 में उन्हें अपने सियासी जीवन में पहली हार का सामना करना पड़ा था। 1992 में उन्हें जनता दल का महासचिव बनाया गया था।

जिस एचडी देवगौड़ा ने कभी उन्हें टिकट देने से मना कर दिया था, उन्हीं देवगौड़ा के सबसे भरोसेमंद बनकर उभरे थे सिद्धारमैया। मुख्यमंत्री रहते हुए देवगौड़ा ने उन्हें अपनी सरकार अहम जिम्मेदारी देते हुए वित्त मंत्री बनाया था। 1996 में जब देवगौड़ा प्रधानमंत्री बनने दिल्ली गए तब कर्नाटक सीएम की कुर्सी के सबसे प्रबल दावेदार के रूप में सिद्धारमैया को ही देखा जा रहा था। वे सीएम तो बने लेकिन इस ‘डिप्टी’। सीएम पद की जिम्मेदारी जेएच पटेल को मिली।

देवगौड़ा परिवार से दूरी

1999 में जनता दल में बड़ी टूट हुई और पूर्व पीएम एचडी देवगौड़ा ने अपनी पार्टी जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) बना ली। सिद्धारमैया भी उनके साथ हो लिए और उन्हें नई नवेली पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। हालांकि, उसी साल हुए चुनाव में पार्टी तो दूर वे खुद की सीट भी नहीं बचा पाए। 2004 के विधानसभा चुनाव में कर्नाटक में खंडित जनादेश आया था। सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस और जेडीएस ने हाथ मिला लिया था।

कांग्रेस नेता धर्म सिंह की अगुवाई में बनी इस सरकार में जेडीएस कोटे से सिद्धारमैया डिप्टी सीएम बने थे। पिछड़े समुदाय से आने वाले सिद्धारमैया का कद बढ़ चुका था। लेकिन ये वही दौर था जब पूर्व पीएम एचडी देवगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी का राजनीति में उभार हो रहा था। पिता की मौन सहमति से कुमारस्वामी पार्टी के साथ – साथ सरकार में भी दखल बढ़ाने लगे थे। डिप्टी सीएम सिद्धारमैया के विभागों के कामकाज में भी उनका खूब दखल हो रहा था, जिसे लेकर सिद्धारमैया खासे परेशान थे।

उनकी समस्या तब और बढ़ गई जब एचडी देवगौड़ा ने इसे लेकर उदासीन रवैया अपनाया। कुमारस्वामी अब सिद्धारमैया की जड़ें खोदने लगे थे। खींचतान इतनी बढ़ी कि साल 2005 में सिद्धारमैया को जेडीएस से बाहर कर दिया गया। दरअसल, सिद्धारमैया अहिंदा (अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़े) तबके में तेजी से लोकप्रिय हो रहे थे, जिसे लेकर देवगौड़ा परिवार असहज महसूस कर रहा था। बताया जाता है कि पार्टी से निकाले जाने के बाद सिद्धारमैया इतने दुखी थे कि उन्होंने राजनीति से सन्यास लेकर वापस वकालत के पेशे में जाने का मन बना लिया था।

कांग्रेस का दामन थामा

जेडीएस से निकाले जाने के बाद सिद्धारमैया तय नहीं कर पा रहे थे कि उन्हें क्या करना चाहिए। उनके कई समर्थक उन्हें अपनी अलग पार्टी बनाने का सुझाव दे रहे थे। इन सबके बीच बीजेपी और कांग्रेस भी ओबीसी समाज से आने वाले इस दिग्गज नेता को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहे थे। समाजवाद की विचारधारा से प्रभावित सिद्धारमैया के लिए बीजेपी की राजनीति असहज करने वाली थी, इसलिए उन्होंने बचे आखिरी विकल्प कांग्रेस को चुना। साल 2006 में बेंगलुरू में सोनिया गांधी की मौजूदगी में उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा।

दिग्गज कांग्रेसियों को ऐसे पछाड़ा

साल 2013 में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 122 सीटों के साथ भारी जनादेश के सत्ता में लौटी थी। उस चुनाव में बीजेपी की शर्मनाक हार हुई थी। चुनाव में विराट जीत मिलने के बाद जब कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद को लेकर माथापच्ची शुरू हुई तो रेस में उस वक्त मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार के अलावा पूर्व सीएम वीरप्पा मोइली, दलित नेता जी परमेश्वर समेत कई और पहली पंक्ति के नेता खड़े थे। जिन्होंने दशकों अपना जीवन कांग्रेस को राज्य में मजबूत करने में खपाया था।

दिग्गज कांग्रेसी बेंगलुरू से लेकर दिल्ली तक अपनी संभावनाओं को मजबूत करने में जुटे थे। लेकिन उधर 10 जनपथ में किसी और नाम पर ही विचार चल रहा था, जिसके बारे में शायद ही किसी ने अंदाजा लगाया था। आलाकमान ने महज 6 साल पहले पार्टी में शामिल हुए सिद्धारमैया के नाम पर मुहर लगा दी। दरअसल, उस दौरान भी सिद्धारमैय कांग्रेस के नवनिर्वाचित विधायकों में सबसे अधिक लोकप्रिय थे। सिद्धारमैया ने आलाकमान को निराश नहीं किया और पांच साल तक राज्य में स्थिर सरकार चलाई और वे 40 वर्षों में कर्नाटक के ऐसे पहले मुख्यमंत्री बने जिसने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया।

2023 में भी बाजी मार ले गए सिद्धारमैया

कर्नाटक की राजनीति में बीएस येदियुरप्पा के बाद सिद्धारमैया दूसरे नेता हैं, जिन्हें मास लीडर कहा जाता है। जिनकी धमक पूरे कर्नाटक में है और वे अपने बल पर पार्टी को जीताने का माद्दा रखते हैं। अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़े समुदाय में सबसे अधिक पकड़े रखने वाले सिद्धारमैया येदियुरप्पा के चुनावी राजनीति से दूर होने के बाद राज्य में ऐसे एकमात्र नेता बन गए हैं, जिनके जनाधार के सामने किसी भी दल का नेता आसपास भी नहीं फटकता। तमाम सर्वक्षणों में भी उनकी लोकप्रियता 40 प्रतिशत से ज्यादा रही है। कांग्रेस के नवनिर्वाचित विधायकों में भी अधिकांश सिद्धारमैया के पक्ष में मतदान कर चुके हैं। यही वजह है कि कांग्रेस आलाकमान चाहकर भी कर्नाटक में किसी नए चेहरे के हाथ में बागडोर देने की हिम्मत नहीं जुटा सका है।

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