खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी, वीरता से छुड़ा दिए थे अंग्रेजों के छक्के
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1835 को देश की सांस्कृतिक राजधानी काशी के भदैनी इलाके में एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपंत तांबे और उनकी माता का नाम भागीरथी भाई था।
लखनऊ: अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने वालों में झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई का नाम काफी आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। अंग्रेजों को नाकों चने चबवाने वाली इस वीरांगना का जन्म 1835 में आज ही के दिन काशी में हुआ था। इस वीरांगना की वीरता की गाथाएं आज भी हर किसी को रोमांचित करती हैं। ऐसे समय में जब देश के तमाम राजा अंग्रेजों के सामने घुटने टेक चुके थे, तब रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजी हुकूमत का डटकर मुकाबला किया और अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए।
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काशी में आज ही हुआ था महारानी का जन्म
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1835 को देश की सांस्कृतिक राजधानी काशी के भदैनी इलाके में एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपंत तांबे और उनकी माता का नाम भागीरथी भाई था।
माता-पिता ने उनका नाम मणिकर्णिका रखा था। प्यार से लोग उन्हें मनु कहकर पुकारा करते थे। मराठी ब्राह्मण मोरोपंत मराठा पेशवा बाजीराव की सेवा करते थे। मनु ज्यादा दिनों तक अपनी मां के साथ नहीं रह सकी और जब वे वर्ष की ही थीं तभी उनकी माता का देहांत हो गया।
झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ विवाह
मनु को बचपन से ही शस्त्र और शास्त्रों से बेहद प्यार था और उन्होंने दोनों की शिक्षा हासिल की थी। इसी कारण प्यार से लोग उन्हें छबीली नाम से भी पुकारा करते थे। 15 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह झांसी के महाराजा गंगाधर राव के साथ हो गया और वे झांसी की रानी बन गईं। विवाह के पश्चात इनका नाम रानी लक्ष्मीबाई रखा गया।
राजा को लगा पुत्र वियोग का सदमा
विवाह के बाद 1851 में लक्ष्मी बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया मगर जन्म के 4 महीने बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। महाराजा गंगाधर राव को पुत्र के निधन पर जबर्दस्त सदमा लगा और इसके बाद वे बीमार रहने लगे।
पुत्र वियोग का सदमा दूर करने के लिए उन्होंने दो साल बाद 1853 में एक बालक को गोद लिया और इस दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा। बीमारी के कारण 21 नवंबर 1853 को राजा गंगाधर राव का निधन हो गया।
रानी बोलीं- मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी
गंगाधर राव के निधन के बाद झांसी पूरी तरह शोक में डूबी हुई थी और उधर अंग्रेजों ने मौका देखकर कुटिल चालें चलनी शुरू कर दीं।
अंग्रेजों को झांसी पर कब्जा करने का यह सबसे सही समय लगा और उन्होंने झांसी पर चढ़ाई कर दी। अंग्रेजों को रानी लक्ष्मीबाई की ताकत का एहसास नहीं था और रानी ने अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए साफ कर दिया कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।
संघर्ष में मारे गए कई अंग्रेज अफसर
अंग्रेजी और रानी लक्ष्मीबाई की सेना में जमकर मुकाबला हुआ और 5 जून 1857 को विद्रोहियों ने सदर बाजार स्थित स्टार फोर्ट पर कब्जा कर लिया। विद्रोहियों के इस कदम के कारण अंग्रेजी झांसी में किले में शरण लेने को मजबूर हो गए।
6 से 8 जून के बीच अंग्रेजों और विद्रोहियों के बीच जमकर संघर्ष हुआ और इस दौरान कई अंग्रेज अफसर मारे गए। बचे हुए अंग्रेज सैनिकों के साथ कैप्टन स्कीन ने बागियों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। झांसी के झोकनबाग इलाके में बागियों ने 61 अंग्रेजों को मार डाला।
अंग्रेजों का डटकर किया मुकाबला
उसके बाद महारानी लक्ष्मीबाई में 12 जून 1857 को एक बार फिर झांसी का राजपाट संभाला जो उनके पास अगले साल जून तक रहा।
अंग्रेज जनरल ह्यूरोज ने 21 मार्च 1758 को झांसी पर फिर चढ़ाई कर दी और 21 मार्च से 3 अप्रैल तक अंग्रेजों और महारानी लक्ष्मीबाई के बीच घमासान युद्ध हुआ। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बांधकर घोड़े की लगाम मुंह में दबाए हुए दुश्मन सेना का निडर होकर सामना किया।
पीछे हटने पर मजबूर हुए अंग्रेज
बाद में सलाहकारों की बात मानकर रानी 3 अप्रैल 1818 को कुछ घुड़सवारों के साथ कालपी की ओर रवाना हुईं। अंग्रेजी ने भी रानी का पीछा नहीं छोड़ा मगर रानी अंग्रेजों के हाथ नहीं आईं।
महारानी लक्ष्मीबाई 17 जून 1818 को ग्वालियर पहुंचीं जहां एक बार फिर अंग्रेजों से उनका युद्ध शुरू हो गया मगर रानी के प्रहारों से अंग्रेज सेना को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा।
वीरगति को प्राप्त हुईं रानी लक्ष्मीबाई
अंग्रेज सेना का जनरल ह्यूरोज 18 जून 1818 को खुद ही युद्ध के मैदान में आ गया और तब रानी ने दत्तक पुत्र दामोदर राव को रामचंद्र देशमुख को सौंपकर अंग्रेजों का मुकाबला शुरू कर दिया।
अंग्रेजों से युद्ध करते हुए रानी सोनरेखा नाले की ओर बढ़ीं मगर उसी समय अंग्रेजी सैनिकों ने पीछे से महारानी लक्ष्मीबाई पर तलवार से हमला कर दिया जिससे उन्हें काफी चोटें आईं।
अंग्रेजी सेना का मुकाबला करते हुए 18 जून 1818 को महारानी लक्ष्मीबाई 23 वर्ष की अल्पायु में वीरगति को प्राप्त हुईं। महारानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी आज भी हर किसी को रोमांचित करती है।
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उन पर लिखी गई बहुचर्चित कविता बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी, आज भी रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की गाथा का बखान करती है।
रिपोर्ट- अंशुमान तिवारी
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