Lok Sabha Election 2024: इतना सन्नाटा क्यों है भाई ?
Lok Sabha Election 2024: वर्तमान आम चुनाव तो बहुत ही डल है। वोटिंग का पहला चरण आ ही गया। लेकिन कहीं चुनाव नजर तक नहीं आ रहा। चर्चा तक का अभाव स्पष्ट है।
Lok Sabha Election 2024: सन् 75 में आई शोले फ़िल्म (Film Sholay) के बेचारे रहीम चाचा नेत्रहीन थे। देख सकते नहीं थे, सिर्फ आवाजें, शोर सुनने के आदी थे। सो शांति महसूस करने पर बरबस बोल उठे- इतना सन्नाटा क्यों है भाई? शोले के 49 साल बाद 2024 के चुनावी समर में भी वही आलम है। आंखों-कानों से दुरुस्त लोग भले ही बोल न रहे हों। लेकिन सोच जरूर रहे हैं कि "इतना सन्नाटा क्यों है भाई?"
इतना बड़ा उत्सव लेकिन माहौल में कुछ भी नहीं। सिर्फ मौसम गर्म है। बाकी सब ठंडा पड़ा है। सन्नाटा सिर्फ कानों का नहीं बल्कि आंखों का भी। चुनावी शोरशराबा, बैनर, पोस्टर, भाषण, आपसी बहसा-बहसी की आदी जेनरेशन अचंभित जरूर है। नई जेनरेशन भी सोच में है कि क्या सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव इसी तरह सोशल मीडिया, टीवी चैनल और अखबारों में या फिर स्टार प्रचारकों की रैलियों और रोड शो में लड़ा जाता है, जहां सिर्फ एक खास सामाजिक वर्ग के लोग ही भीड़ जुटाते हैं? क्या ऐसा प्रचार वनवे ट्रैफिक है, जहां कुछ पूछने की गुंजाइश ही नहीं। क्या प्रचार का मतलब नेता को हाथ हिलाते देखना या उनकी बेसिरपैर की बातें सुनना है?
बदल गया प्रचार का तरीका
इस विशाल देश के विशाल चुनाव में वही घिसापिटा चल रहा है जहां नेता-प्रत्याशी कभी कभार गांव का दौरा यानी "जनसंपर्क" करते नजर आते हैं। सिर्फ चुनाव के दौरान होने वाला ये जन संपर्क हाथ जोड़ कर गली का चक्कर लगाने तक सीमित रहता है। पहले कितनी चिल्लपों होती थी। लाउडस्पीकर लगाए रिक्शे, मोटरें, प्रचार करते चलते थे। गली मोहल्लों चौराहों पर मीटिंगें होतीं थीं। दीवारें पोस्टरों से पट जातीं थीं। बड़े बड़े बैनर, होर्डिंग, पर्चे, बिल्ले बैज... क्या क्या नहीं होता था। इनसे कम से कम माहौल तो बनता था, लोगों के बीच गर्मागर्म बहसें होने का मौका तो बनता था। आज सब नदारद है।
भारत में आज़ादी से पहले भी चुनाव हुए थे। 1920 में ब्रिटिश भारत में केंद्रीय और प्रांतीय दोनों विधायिकाओं के लिए चुनाव हुए। लेकिन औपनिवेशिक भारत में चुनाव कुछ धनी मतदाताओं तक ही सीमित थे। इसलिए 25 अक्टूबर, 1951 को स्वतंत्र भारत का पहला आम चुनाव कुछ खास था, क्योंकि प्रत्येक वयस्क भारतीय को वोट देने का अधिकार मिला। तबसे लेकर आज हमारे देश में चुनावों का गज़ब का इतिहास रहा है। ठीक किसी उत्सव की तरह लोकतंत्र का उत्सव। एक माहौल बनता था। बड़े शहरों से ट्रेनों में भर कर प्रवासी मजदूर वोट डालने पहुंचते थे। धीरे धीरे सब हल्का पड़ता गया और वर्तमान आम चुनाव तो बहुत ही डल है। वोटिंग का पहला चरण आ ही गया। लेकिन कहीं चुनाव नजर तक नहीं आ रहा। चर्चा तक का अभाव स्पष्ट है। जो कुछ है वो टीवी चैनलों या अखबारों तक सीमित है, जिन्हें अब ज्यादा कोई पढ़ता ही नहीं। बहसें हैं वो भी टीवी चैनलों पर। ऐसी बहसें जिसमें एक दूसरे की बुराई के अलावा कुछ नहीं होता। ये भी किसी न किसी के हित में फ़िक्स होती हैं।
त्योहार जैसे होते थे चुनाव प्रचार
कभी वो समय भी हुआ करता था जब गली गली में लाउड स्पीकर का शोर चुनाव के महीनों पहले से ही शुरू हो जाता था। हर घर, दुकान, गली मोहल्ला और दीवारें पोस्टरो से भरी नजऱ आती थी। प्रचार की गाड़ी गली गली घूमती रहती थी। हर दिन त्योहार सा महसूस भी होता था। आज इस गर्मी के मौसम में चुनाव ठंडा पड़ा है। लगता है अबकी बार चुनाव में किसी की दिलचस्पी नहीं के बराबर है। न ड्राइंग रूम में, चर्चा न पान की गुमटियों में और न ट्रेनों में। वोटर इतना साइलेंट तो कभी नहीं रहा।
2024 का लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election 2024) तेजी से बिना किसी व्यापक मुद्दे या राजनीतिक नैरेटिव वाला चुनाव बनता जा रहा है। आम मतदाता के नजरिये से यह यकीनन हाल के समय के सबसे नीरस चुनावों में से एक है। पीछे मुड़कर देखें तो तब भी राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर चुनाव गर्माने के लिए कई मुद्दे हुआ करते थे। इस बार लगता है चुनाव प्रचार कहीं आसमान की ऊंचाई पर हो रहा है, जबकि जमीन पर जीवन हमेशा की तरह चल रहा है। हर कोई अलग-अलग दिशाओं में बाण छोड़ रहा है और आम आदमी में कोई हलचल नहीं है।
रैलियों, बयानों, सोशल मीडिया पर बड़ी बड़ी हवाई बातें जरूर हैं। लेकिन इनमें से कोई भी बड़े पैमाने पर मतदाताओं के बीच कोई खास असर नहीं डाल रही है। घोषणा पत्र आ चुके हैं लेकिन शायद ही मतदाताओं को इनके बारे में पता हो।
ऐसी भागीदारी भी जरूरी
ठीक है, चुनाव में फालतू शोर, गन्दगी नहीं होनी चाहिए। लेकिन जन भागीदारी तो होनी ही चाहिए। भागीदारी भी सिर्फ वोट जाल कर स्याही लगी उंगली दिखा कर सेल्फी पॉइंट पर फोटो खिंचवाने तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए। बल्कि वादों, इरादों, घोषणापत्रों, ट्रैक रिकॉर्ड आदि को समझने और सवाल करने की भागीदारी होनी चाहिए। जिसे प्रोत्साहित करने की जिम्मेदारी मीडिया या प्रत्याशी पर ही छोड़ने के बजाए चुनाव आयोग की होनी चाहिए। चुनाव सिर्फ वोटिंग नहीं होता। चुनने में आयोग को सहायक बनना चाहिए, ऐसे मंचों के साथ जहां वोटर को जानकारी मिले, जागरूकता मिले।
अभी तो आम मतदाताओं के लिए लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा बस शांतिपूर्वक वोट डालने तक सीमित है। इसे विस्तार देना होगा। दुनिया का सबसे बड़ा, सबसे महंगा चुनाव हमारे यहां होता है। अनुमान है कि इस मर्तबा 1400 अरब रुपये से भी ज्यादा खर्च हो जाएंगे। जरा सोचिए, इतने नीरस चुनाव में इतना बड़ा खर्चा!
लोकतंत्र का उत्सव मनाने में हम आम हिंदुस्तानी भी तो शरीक हैं। इस खर्चे में जरा हमारी जागरूकता सोशल मीडिया और आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस से परे कुछ गंभीर करने में कर देते तो कितना ही अच्छा होता। हमें तो अपटूडेट करिये भाई। हमें शोले के रहीम चाचा न बनाइये।
( लेखक पत्रकार हैं।)