गांधी जी के इन आंदोलनों से हिली ब्रिटिश हुकूमत, घुटने टेकने पर मजबूर हुए अंग्रेज

महात्मा गांधी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने से पहले दक्षिण अफ्रीका में भी मानवाधिकारों के लिए काफी संघर्ष किया था। अंग्रेजों के चंगुल से भारत को आजाद कराने के लिए उनका संघर्ष बाद में पूरी दुनिया के लिए मिसाल बन गया।

Update: 2020-10-01 16:25 GMT

अंशुमान तिवारी

लखनऊ। ब्रिटिश राज से देश को आजादी दिलाने में वैसे तो असंख्य लोगों का योगदान है मगर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के योगदान को सबसे उल्लेखनीय कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। महात्मा गांधी ने सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए अनूठा प्रयोग किया और अंग्रेजों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

महात्मा गांधी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने से पहले दक्षिण अफ्रीका में भी मानवाधिकारों के लिए काफी संघर्ष किया था। अंग्रेजों के चंगुल से भारत को आजाद कराने के लिए उनका संघर्ष बाद में पूरी दुनिया के लिए मिसाल बन गया। यही कारण है कि महात्मा गांधी को केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य देशों में भी काफी सम्मान मिला।

आंदोलनों से उखड़ गई ब्रिटिश हुकूमत

वैसे तो दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद महात्मा गांधी का पूरा जीवन अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष करके भारत को आजादी दिलाने में बीता मगर उनके कुछ आंदोलनों ने ब्रिटिश हुकूमत को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि‌ एक धोती पहनने वाले इस शख्स में कितनी ताकत है।

इन आंदोलनों में महात्मा गांधी को आम लोगों का पूरा सहयोग मिला। यही कारण था कि ब्रिटिश राज की चूलें हिल गईं। वैसे यह जानना दिलचस्प है कि वे कौन से प्रमुख आंदोलन थे जिनके जरिए महात्मा गांधी पूरे देश के लोगों से जुड़ गए और जिनके जरिए उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत को हिला दिया।

चंपारण आंदोलन

महात्मा गांधी के भारत लौटने से पहले ही देश में कई नेताओं ने अंग्रेजों के खिलाफ विरोध का झंडा बुलंद कर रखा था। ‌गांधी जी जब 1915 में भारत लौटे तो अंग्रेजी राज में देश के लोगों की विवशता देखकर उन्हें काफी तकलीफ हुई। अंग्रेज किसानों के साथ भी बहुत बेरहमी से पेश आ रहे थे।

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उन्होंने पहले किसानों को उनकी उपजाऊ जमीन पर नील और अन्य नकदी फसलें उगाने के लिए मजबूर किया और फिर फसलों को काफी सस्ती कीमत पर बेच दिया। मौसम की बदहाल स्थिति और अधिक करों के कारण पहले ही गरीबी झेल रहे किसान और मुसीबत में फंस गए।

इसी दौरान गांधी जी को बिहार के चंपारण में किसानों की दयनीय हालत की जानकारी मिली। उन्होंने अप्रैल 1917 में इस जिले का दौरा करने का फैसला किया। उन्होंने किसानों के समर्थन में आवाज बुलंद करते हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन का दृष्टिकोण अपनाया और अंग्रेजों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया।

गांधी जी के इस आंदोलन के कारण अंग्रेज घुटने टेकने पर मजबूर हुए और उन्होंने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया जिसके तहत किसानों को नियंत्रण और क्षतिपूर्ति प्रदान करने की अनुमति दी गई। इसके साथ ही करों का बोझ भी कम कर दिया गया। इस आंदोलन के बाद ही मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा की उपाधि हासिल हुई।

खेड़ा आंदोलन

अंग्रेजों की कर वसूली के खिलाफ गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों ने आंदोलन छेड़ा था। 1918 में बाढ़ और अकाल के कारण खेड़ा काफी प्रभावित हुआ था जिससे किसानों की फसलें नष्ट हो गईं। किसानों की करों में छूट देने की मांग को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया।

ऐसे में किसानों ने महात्मा गांधी और वल्लभ भाई पटेल की अगुवाई में अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। अंग्रेज सरकार ने किसानों की जमीन जब्त करने की धमकी देकर उन्हें डराने की कोशिश की मगर किसान अपनी मांग पर अड़े रहे। करीब पांच महीने तक चले आंदोलन के बाद अंग्रेज हुकूमत घुटने टेकने पर मजबूर हुई और उसने किसानों से कर वसूली बंद कर दी। इसके साथ ही अंग्रेजों ने किसानों की जब्त की गई संपत्ति भी लौटा दी।

खिलाफत आंदोलन

पहले विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद खलीफा और तुर्की साम्राज्य पर ऐसे आरोप लगाए गए जो काफी अपमानजनक थे। ऐसी स्थिति में मुस्लिम अपने खलीफा की सुरक्षा को लेकर भयभीत हो गए और तुर्की में खलीफा की स्थिति को मजबूत बनाने और अंग्रेज सरकार के खिलाफ लड़ने के लिए गांधी जी की अगुवाई में खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की। गांधी जी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मुस्लिम समुदाय से समर्थन मांगा और बदले में खिलाफत आंदोलन शुरू करने में मुस्लिम समुदाय को मदद दी।

महात्मा गांधी ने बड़ा कदम उठाते हुए दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य से मिले पदक भी वापस कर दिए। खिलाफत आंदोलन की कामयाबी ने महात्मा गांधी की लोकप्रियता में और बढ़ोतरी की और उन्हें राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।

रॉलट एक्ट का विरोध

देश में बह रही बदलाव की हवा को दबाने के लिए 1919 में अंग्रेजों की ओर से रॉलेट एक्ट लाया गया। इस एक्ट को काले कानून के नाम से भी जाना जाता है। इस कानून में भारतीयों की आवाज को दबाने के लिए कई प्रावधान किए गए थे।

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इस कानून में वायसराय को प्रेस को काबू में करने, किसी भी समय किसी भी राजनीतिज्ञ को गिरफ्तार करने और बिना वारंट किसी को भी अरेस्ट करने का कर लेने का प्रावधान किया गया था। पूरे देश ने इस एक्ट के खिलाफ आवाज उठाई और महात्मा गांधी अगुवाई में पूरे देश में इस एक्ट का जमकर विरोध किया गया।

असहयोग आंदोलन

पंजाब के जलियांवाला बाग में ब्रिटिश हुकूमत की क्रूर कार्रवाई से गांधीजी की अंतरात्मा को काफी चोट पहुंची थी। निहत्थे भारतीयों पर ब्रिटिश अफसरों की क्रूर कार्रवाई ने गांधी जी की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया और इसी कारण उन्होंने असहयोग आंदोलन शुरू करने का फैसला किया।

उन्होंने लोगों को विश्वास दिलाया कि शांतिपूर्ण तरीके से असहयोग आंदोलन से आजादी की लड़ाई जीती जा सकती है। गांधी जी के कुशल नेतृत्व में जल्द ही यह आंदोलन व्यापक हो गया और लोगों ने अंग्रेजों की ओर से संचालित संस्थानों और सरकारी कार्यालयों का बहिष्कार शुरू कर दिया। ब्रिटिश सरकार समझौते के लिए तैयार हो रही थी मगर इसी बीच चौरीचौरा कांड हो गया और गांधी जी ने यह आंदोलन वापस ले लिया।

सविनय अवज्ञा आंदोलन

भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन भारतीय स्वाधीनता संग्राम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। मार्च 1930 में महात्मा गांधी ने यंग इंडिया अखबार के माध्यम से कहा था कि यदि उनकी 11 मांगें मान ली जाती हैं तो आंदोलन को स्थगित कर दिया जाएगा मगर लॉर्ड इरविन की ओर से उनकी मांगों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई गई। अंग्रेजों की ओर से कोई जवाब न मिलने पर गांधी जी ने पूरे उत्साह के साथ आंदोलन शुरू कर दिया।

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आंदोलन की शुरुआत दांडी मार्च के साथ हुई थी। गांधी जी ने 12 मार्च 1930 को गुजरात के साबरमती आश्रम से दांडी तक मार्च किया। दांडी पहुंचने के बाद महात्मा गांधी उनके सहयोगियों ने समुद्र के नमकीन पानी से नमक बनाकर नमक पर टैक्स लगाने वाले कानून को तोड़ा। गांधी जी के इस कदम के बाद अंग्रेजों के कानून को तोड़ने के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ा और लोग इसके लिए आगे आने लगे। महात्मा गांधी ने भारतीय महिलाओं से कताई शुरू करने की अपील की। उनकी अपील पर लोगों ने सरकारी कार्यालयों और विदेशी सामान बेचने वाली दुकानों के सामने विरोध जताना शुरू कर दिया।

इसी बीच लॉर्ड इरविन की ओर से 1930 में लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से बहिष्कार कर दिया गया। दूसरे दौर के सम्मेलन में कांग्रेस की भी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए लॉर्ड इरविन ने 1931 में गांधी जी के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया। इस समझौते को गांधी-इरविन पैक्ट कहा जाता है। इस समझौते के तहत सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने और दमनकारी कानूनों को रद्द करने की बात कही गई थी।

भारत छोड़ो आंदोलन

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गांधी जी ने 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ दिया। गांधी जी के आह्वान पर काफी संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए और अंग्रेजों से भारत छोड़ने की मांग करने लगे। इस आंदोलन से अंग्रेज अफसरों में भी घबराहट फैल गई और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सभी सदस्यों को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया।

इन गिरफ्तारियों का पूरे देश में व्यापक विरोध हुआ। अंग्रेज अपनी दमनकारी नीतियों से भले ही इस आंदोलन को कुछ समय तक रोकने में कामयाब रहे मगर उन्हें इस बात का एहसास हो गया कि अब उनके लिए भारत में लंबे समय तक शासन करना संभव नहीं रह गया है। यही कारण था कि द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्ति पर अंग्रेजों की ओर से भारत को सभी अधिकार सौंपने के संकेत दिए गए थे। इन आंदोलनों के जरिए गांधी जी ने भारत में ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला दीं और आखिरकार 15 अगस्त, 1947 को देश को आजादी मिली।

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