Manipur Violence Video: दुआ करिए, हमारे आपके बीच न फैले ‘मणिपुर’

Manipur Violence Video: मणिपुर के मैतेयी एसटी नहीं हैं जबकि कुकी एसटी हैं सो उनको इसके नाते कई प्रिविलेज मिले हुए हैं। मैतेयी चाहते हैं कि वो भी एसटी में गिने जाएं ताकि उनको भी प्रिविलेज मिल सकें।

Update:2023-06-20 15:59 IST

Manipur Violence: इन सारी समस्याओं या चालों के बीच ही उलझ गया है या उलझा दिया गया है मणिपुर। इसी चाल के चलते बीते दो मई से मणिपुर सौ से ज़्यादा मौतें, पचास हज़ार से ज़्यादा विस्थापन, सैकड़ों चर्च, घर और दुकानों को आग के हवाले करने के सिलसिले से लगातार गुजर रहा है। उसके इर्द गिर्द मूल रूप से यही समस्या है। इसी तरह की राजनीतिक चालें हैं। इन चालों की गिरफ़्त में आये मणिपुर के कुकी व मैतेई समाज के लोगों में आपसी वैमनस्य इतना बढ़ गया है कि वे एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं। साथ रहने की बात तो बहुत दूर की है। रंजिश नाराज़गी की इस हद तक पहुंच चुकी है कि नेताओं को निशाना बनाया जा रहा है। केंद्रीय मंत्री आर के रंजन सिंह के घर को फूंका जा चुका है, भाजपा नेताओं के घरों पर हमले हुए हैं।

# केंद्रीय ओबीसी सूची में जोड़ी जायेंगी अस्सी जातियां।

# उत्तर प्रदेश में जब भी सपा सरकार होती है तो सत्रह ओबीसी जातियों को अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ दिलाने की राजनीति चलती रहती है।

# प्रमोशन में रिज़र्वेशन का मसला है।

# कर्नाटक में कांग्रेस का मुस्लिम आरक्षण का दांव है।

# जातीय जनगणना की बढ़ती मांग है।

इन हालातों में सवाल यह उठता है कि हमारे राजनेता आरक्षण को जिस तरह हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे उपज रहा आपसी वैमनस्य क्या केवल मणिपुर तक ही सिमटा रहेगा? सच्चाई ये है कि ऐसा मानना गलती होगी।

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी हथियार के तौर पर ही ओबीसी आरक्षण (OBC Reservation) लागू किया था। पर वह इसको लागू करने के बाद भी सरकार नहीं बना पाये थे। प्रोन्नति में आरक्षण लागू करने के बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार नहीं बना पाये। फिर भी हर राजनेता को आरक्षण में बड़ा वोट बैंक नज़र आता है।

आरक्षण है मूल समस्या

यही आरक्षण मणिपुर की समस्या के मूल में है। आरक्षण से जमीन, पहचान और रोजगार के मसले जुड़े हैं। मणिपुर के मैतेयी एसटी नहीं हैं जबकि कुकी एसटी हैं सो उनको इसके नाते कई प्रिविलेज मिले हुए हैं। मैतेयी चाहते हैं कि वो भी एसटी में गिने जाएं ताकि उनको भी प्रिविलेज मिल सकें। इसी प्रिविलेज की लड़ाई में मणिपुर आग और खून से लथपथ है। प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर मणिपुर में आज सुरक्षाबलों के जवान ज्यादा नज़र आते हैं। राज्य पुलिस बलों के अलावा मणिपुर में लगभग 30,000 केंद्रीय सुरक्षाकर्मी तैनात हैं। इनमें केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की लगभग आठ बटालियन, सेना के 80 कॉलम और असम राइफल्स के 67 कॉलम शामिल हैं। फिर भी खूनखराबा जारी है।

कैसे हुई मणिपुर में लड़ाई की शुरूआत

मणिपुर में लड़ाई की शुरूआत हाईकोर्ट के एक आब्जर्वेशन से हुई। मणिपुर हाईकोर्ट ने मैतेई ट्राइबल यूनियन की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार से कहा कि वो मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा दिये जाने को लेकर विचार करे। दस सालों से यह मांग लटकी हुई है। मैतेई समाज अपने लिए जनजाति का दर्जा मांग रहा है। उसका कहना है कि 1949 में जब मणिपुर का भारत में विलय हुआ, उससे पहले मैतेई जनजाति में शुमार थे। हालांकि इन्हें एससी और ओबीसी आरक्षण के साथ आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के आरक्षण का लाभ मिला हुआ है लेकिन उन्हें एसटी बनना है।

मैतेयी समुदाय की दलील है कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के बाद वे लोग राज्य के पर्वतीय इलाकों में जमीन खरीद सकेंगे। अभी उन पर ऐसा करने की कानूनी रोक है। मैतेयी समुदाय को राज्य के पहाड़ी इलाकों में बसने की इजाजत नहीं है। पहाड़ी इलाके एसटी यानी मुख्यतः कुकी समुदाय के लिए रिज़र्व हैं।

मैतेयी समुदाय का कहना है कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं होने के कारण पड़ोसी म्यांमार और बांग्लादेश से आने वाले कुकी, चिन और अन्य जनजातीय समुदाय के लोगों की लगातार बढ़ती तादाद उनके वजूद के लिए खतरा बनती जा रही है।

कुकी समाज कर रहे विरोध

उधर आदिवासी समुदाय, यानी मुख्यतः कुकी उनकी इस मांग का विरोध कर रहे हैं। आदिवासी संगठनों का कहना है कि मैतेयी समुदाय को एसटी दर्जा मिलने पर वह उनकी जमीन और संसाधनों पर कब्जा कर लेगा। और यदि मैतेयी को जनजाति का दर्जा मिल जायेगा तो जनजातियों के लिए नौकरियों के अवसर कम हो जायेंगे।

मैतेयी समुदाय को जनजाति का दर्जा दिये जाने के खिलाफ जनजातीय संगठनों की एक बड़ी रैली निकाली गई जो जल्द ही हिंसक हो गई। चुराचांदपुर से हिंसा शुरू हुई। पर अब चुराचांदपुर के साइनबोर्ड को हटाकर "लमका" नाम लिखा जा रहा है। कुकी और अन्य जनजातियों का कहना है कि वे लोग मैतेयी राजा चुराचंद सिंह के साथ जुड़े नहीं रहना चाहते। इसी मणिपुर में किसी ज़माने में कुकी और मैतेयी ने साथ मिलकर अंग्रेजों से लोहा लिया था। मणिपुर के लिए हाथ से हाथ मिलाकर लड़ाई की थी। अब वह बंधन टूट चुका है।

मणिपुर की लड़ाई में धर्म का एंगल जोड़ा जा रहा है। ये यहां के घमासान को एक अलग नैरेटिव देने की राजनीतिक कोशिश ज्यादा है, ये साफ दिखता है।

मणिपुर में हिंदू और ईसाई प्रमुख प्रचलित धर्म हैं। 1961 और 2011 की भारत की जनगणना के बीच, राज्य में हिंदुओं की हिस्सेदारी 62 फीसदी से घटकर 41 फीसदी हो गई, जबकि ईसाइयों की हिस्सेदारी 19 फीसदी से बढ़कर 41 फीसदी हो गई। मैतेई बोलने वाले लोगों के धार्मिक समूहों में हिंदू, सनमाहिस्ट, मैतेई ईसाई और मैतेई पंगल शामिल हैं। हिंदू धर्म का पालन करने वाला बहुसंख्यक समूह मैतेई है। हिंदू आबादी मणिपुर घाटी में केंद्रित है। प्राचीनकाल में वैष्णव हिंदू धर्म मणिपुर साम्राज्य का राजकीय धर्म था। 1704 में, मैतेयी राजा चरैरोंगबा ने वैष्णववाद को स्वीकार कर लिया और अपने पारंपरिक मैतेई नाम को हिंदू नाम पीतांबर सिंह में बदल दिया।

19वीं शताब्दी में प्रोटेस्टेंट मिशनरियों द्वारा ईसाई धर्म मणिपुर लाया गया था। और आज राज्य के जनजातीय समुदाय के बीच ईसाई धर्म प्रमुख धर्म है। राज्य में ईसाई आबादी का विशाल बहुमत (96 फीसदी से अधिक) जनजातीय समुदाय से है। राज्य में 41 फीसदी लोग ईसाई धर्म के अनुयायी हैं। ग्रामीण इलाकों में तो 53 फीसदी ईसाई हैं और पहाड़ियों में ये प्रमुख रूप से प्रचलित है। नगा व कुकी मुख्य तौर पर ईसाई हैं।

मैतेयी समुदाय में पंगल लोग मुस्लिम या मणिपुरी मुस्लिम के रूप में जाने जाते हैं और यह राज्य में तीसरा सबसे बड़ा धार्मिक बहुसंख्यक समूह है। 2011 की जनगणना के अनुसार मुस्लिम लोग राज्य की आबादी का लगभग 8.3 फीसदी हैं। वे सुन्नी समूह से संबंधित हैं।

राज्य के नब्बे फ़ीसदी क्षेत्रों में नगा, कुकी आदि रहते हैं। जबकि दस फ़ीसदी ज़मीन मैतेई के हिस्से आती है। राज्य विधानसभा में साठ में से चालीस विधायक मैतेई समुदाय के हैं। बीस नगा और कुकी से आते हैं। अब तक के बारह मुख्य मंत्रियों में से दस मैतेई समाज से रहे हैं। बाकी दो तांगखुल नागा समुदाय के रहे हैं।

राज्य में बढ़ रही बाहरी लोगों की आबादी

मणिपुर में एक समस्या बाहरी लोगों की भी है। यहां बांग्लादेश और म्यांमार से घुसे लोगों की भी भरमार है। इनमें चिन समुदाय के बहुत से लोग शामिल हैं। ये लोग म्यांमार में हिंसा और उत्पीड़न से भागकर भारत में आ कर रह रहे हैं। चिन लोगों को कुकी अपने परिवार जैसा मानते हैं। इसलिए इन अवैध शरणार्थियों के खिलाफ सरकार के सख्त रुख ने कुकियों को नाराज कर रखा है।

मणिपुर के तमाम संगठनों का दावा है कि राज्य में बाहरी लोगों की आबादी लगातार बढ़ रही है। हालत यह है कि घाटी में रहने वाले मैतेई समुदाय की आबादी जहां 7.51 लाख है, वहीं बाहरी लोगों की तादाद 7.04 लाख तक पहुंच गई है। इससे मैतेई समुदाय का अपना वजूद खतरे में नजर आ रहा है। मणिपुर की जनसंख्या अड़तालीस लाख है। 2011 की जनगणना की रिपोर्ट में कहा गया कि जनगणना में वृद्धि का राष्ट्रीय औसत जहां 17.64 फीसदी है, वहीं मणिपुर में इसकी दर 18.65 फीसदी है। आरोप लगाया जाता है कि बाहरी लोगों के आने पर कोई रोक न होने के कारण ही जनसंख्या तेजी से बढ़ी है।

एक मसला ड्रग्स का है। मणिपुर की सरकार इसका भी नैरेटिव देती है। बताया जाता है कि राज्य की पहाड़ियों में कई एकड़ भूमि का उपयोग अफीम की खेती के लिए किया जा रहा है। जनजातीय लोग जंगलों को साफ करके अफीम की खेती कर रहे हैं और इसमें म्यांमार, बांग्लादेश, चीन के एलिमेंट्स शामिल हैं। सरकार ने अफीम के धंधे के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। सरकार वन क्षेत्रों पर अपनी कार्रवाई को ड्रग्स के खिलाफ एक बड़े युद्ध के हिस्से के रूप में देखती है। लेकिन कुकी लोगों को अपने खिलाफ "ड्रग लॉर्ड्स" जैसे शब्दों के उपयोग पर सख्त ऐतराज है।

मणिपुर में कुकी सशस्त्र संगठन लंबे अरसे से अलग कुकी राज्य की मांग करते रहे हैं। उनका कहना है अलग हुए बगैर मसला सुलझने वाला नहीं है। केंद्र सरकार वर्ष 2016 से ही उनसे शांति वार्ता कर रही है लेकिन अब ताजा हिंसा ने अलग राज्य की मांग को नए सिरे से उकसा दिया है।

आरक्षण के खिलाफ शुरू हुआ धरना प्रदर्शन इतना भयानक रूप धारण कर लेगा यह किसी को अंदाज़ नहीं था। हालाँकि आरक्षण की आग हमारे नेता मणिपुर में ही नहीं, किसी न किसी रूप में देश के हर इलाक़े में फैलाने से बाज नहीं आ रहे हैं। जातीय राजनीतिक दलों के खिलाफ कुछ भी कर पाने में खुद को निर्वाचन आयोग सक्षम नहीं पा रहा है। खुद को राष्ट्रीय दल कहने वाली भाजपा व कांग्रेस का भी काम जातीय सियासत करने वालों के बिना चलता दिख नहीं रहा है। नेता जब तक जातिवाद जैसी बुराई को अपने स्वाभिमान या अभिमान से जोड़ने की आदत से खुद को और अपने समाज को अलग करने में कामयाब नहीं होते तो बस मानिये कि मणिपुर की गुत्थी और उलझेगी। इस की आँच में बहुत कुछ झुलसेगा। जिस तरह जातीयता का ज़हर नस नस में फैल चुका है या फैलाया जा चुका है उसकी बहुत बड़ी कीमत आम नागरिक को चुकानी पड़ सकती है। खैर मनाइए और दुआ कीजिये कि ये आंच हमारे आपके पड़ोस में न फैले। यहां तो छुपने के लिए न जंगल बचे हैं न पहाड़ ही हैं।

( दैनिक पूर्वोदय से साभार। लेखक पत्रकार हैं।)

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