देश के लिए कौन फिक्रमंद : चर्चा में नहीं हंगामे में सांसदों ने उड़ा दिए जनता के 137 करोड़
नई दिल्ली: संसद का शीतकालीन सत्र शुक्रवार(16 दिसम्बर) को खत्म हो गया। सत्र की शुरुआत 16 नवम्बर से हुई थी। सरकार की नोटबंदी के फैसले के बाद संसद का यह पहला सत्र था। ये तो तय था कि हंगामा होगा लेकिन कोई काम नहीं होगा ये पता नहीं था।
संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर ढाई लाख रुपए खर्च होते हैं। लोकसभा की कार्यवाही पूरे सत्र में 91 घंटे 59 मिनट तक नहीं चली यानि 92 घंटे। लोकसभा में मात्र 19 घंटे ही काम हो सका। इसी तरह राज्यसभा में भी 21 घंटे ही काम हुआ । इस लिहाज से 137 करोड़ रुपए हंगामें के कारण बर्बाद हो गए। ये पैसे जनता के टैक्स के थे। जिसे सरकार ने विकास की योजनाएं चलाने और जनता को सहूलियत देने के लिए लिया था।
पूरे शीतकालीन सत्र में दो विधेयक ही पारित हो सके। एक था आयकर संशोधन विधेयक और दूसरा दिव्यांगों को ज्यादा सुविधा देने वाला विधेयक। लेकिन जब तक ये राज्यसभा से पारित नहीं होता कानून नहीं बन सकता। हंगामें के कारण राज्यसभा में तो अभी तक इसे पेश भी नहीं किया जा सका है।
दिलचस्प है कि हंगामें को लेेकर अभी तक लोकसभा का नाम ही आगे रहता था लेकिन इस बार राज्यसभा ने अपने छोटे सदन को पीछे छोड़ दिया। संसद में हंगामा कोई नई या बड़ी बात नहीं है। साल 2010 का शीतकालीन सत्र भी पूरा हंगामें के कारण बर्बाद हो गया था। तब विपक्ष में बीजेपी थी और सत्ता पक्ष यूपीए जिसका नेतृत्व मनमोहन सिंह कर रहे थे।
बीजेपी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने की मांग कर रही थी । संसद नहीं चलने से अब दुखी और इसी बात को लेकर इस्तीफा तक देने की सोचने वाले बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तब कहा था कि कभी कभी संसद का नहीं चलना अच्छा होता है। इसके अच्छे परिणाम आते हैं। छह साल पहले उस हंगामें को संसद का सबसे खराब सत्र माना गया था।
इसी तरह अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व वाले एनडीए के 2001 के कार्यकाल में तहलका मामले को लेकर भी कामकाज नहीं हो सका था।
विपक्ष ने गंवाया मौका
संसद में कोई काम नहीं होने से जनता के टैक्स के पैसे का अपव्यय तो हुआ ही ,साथ ही नोटबंदी और कैशलेस को लेकर चल रही चर्चा पर बहस भी नहीं हो पाई। विपक्ष ने हंगामा कर अपना ही नुकसान कर लिया। इससे जनता के बीच उसकी छवि पर भी असर पड़ा ।
ये भी सच है कि नोटबंदी को लेकर जनता को परेशानी आ रही है लेकिन विपक्ष बहस से दूर भाग कर अपनी बात जनता तक नहीं पहुंचा पाया। बहस नहीं होने से सरकार भी अपना पक्ष नहीं रख पाई।
पीएम नरेंद्र मोदी नोटबंदी को लेकर ये साफ कर चुके थे कि इससे जनता को 50 दिन तक परेशानी होगी। मतलब तकलीफ का आलम 30 दिसम्बर तक रहेगा। लेकिन बैंकों में कैश की हालत को देखते हुए ऐसा नहीं लगता है कि दो तीन महीने से पहले परेशानी कम होने वाली है। लगता है कि इस मामले में पीएम ने देश से असत्य बोला है। संभवत: उनको अंदेशा रहा होगा कि सही समय सीमा बताने से जनता की नाराजगी बढ़ सकती है।
नोटबंदी पर बहस को लेकर मुख्य विपक्ष कांग्रेस लगातार अपना स्टैंड बदलती रही। पहले कांग्रेस का कहना था कि बहस के दौरान पीएम मोदी सदन में मौजूद रहें और जवाब दें। विपक्ष के दबाव या मांग पर मोदी राज्यसभा में आए भी लेकिन कांग्रेस फिर अपने स्टैंड से पलटी और कहा कि पूरी बहस के दौरान पीएम को मौजूद रहना होगा ।
कांग्रेस ने अपनी बात से फिर पलटी मारी और इसके लिए संयुक्त संसदीय समिति की भी मांग की। बहस नहीं होना केंद्र सरकार को भी रास आ गया। जनता के बीच कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष की खराब होती छवि से मोदी सरकार प्रसन्न दिखी। लोकतंत्र में संसद ही सर्वोपरि होता है लेकिन पूरा विपक्ष सरकार को घेरने का मौका गंवा गया।