Note For Vote: सांसद-विधायक का सदन में 'वोट के बदले नोट' अपराध है या नहीं, 25 साल बाद सुप्रीम कोर्ट करेगा पुनर्विचार
Supreme Court on Note For Vote: सदन में वोट के लिए रिश्वत मामले में शामिल सांसदों/विधायकों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई से छूट पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, 'यह राजनीति की नैतिकता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाला महत्वपूर्ण मुद्दा है।'
Supreme Court on Note For Vote : सदन में 'वोट के बदले नोट' (Note For Vote) केस में बुधवार (20 सितंबर) को सुप्रीम कोर्ट ने अहम निर्णय लिया। सदन में वोट के लिए रिश्वत मामले में शामिल सांसदों/विधायकों (MPs/MLAs) के खिलाफ कानूनी कार्रवाई से छूट पर शीर्ष अदालत फिर से विचार करेगा। पांच जजों की संविधान पीठ (Constitution Bench) ने 1998 के पी.वी. नरसिम्हा राव (P.V. Narasimha Rao) मामले में अपने फैसले पर फिर से विचार करने का फैसला किया है। ज्ञात हो, इस मामले को 7 जजों की संविधान पीठ को भेज दिया गया है।
सदन में वोट के लिए रिश्वत (Bribe) में शामिल सांसदों/विधायकों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई से छूट पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, 'यह राजनीति की नैतिकता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। अदालत ये तय करेगा कि अगर सांसद या विधायक सदन में मतदान के लिए रिश्वत लेते हैं तो क्या तब भी उन पर केस नहीं चलेगा?'
क्या है मामला?
सदन के भीतर किसी मसले पर मतदान या 'खास भाषण' देने के लिए किसी सांसद/विधायक का रिश्वत लेना क्राइम है या नहीं, इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट 25 साल बाद एक बार फिर करने के लिए तैयार है। इसके लिए शीर्ष अदालत ने अपने ही वर्ष 1998 के उस फैसले का परीक्षण करने की सहमति दी है, जिसमें पीवी नरसिम्हा राव (PV Narasimha Rao Note For Vote) के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को समर्थन देने के बदले रिश्वत लेने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के 3 सांसदों की किस्मत तय की गई थी।
...2024 से पहले कांग्रेस की मुसीबत !
सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार (20 सितंबर) को तय किया कि, 25 साल पुराने इस फैसले का परीक्षण 7 जजों की संविधान पीठ करेगी। ताकि, इस पर किसी भी तरह की कोई संशय की स्थिति शेष न रहे। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लोकसभा चुनाव 2024 (Lok Sabha Elections 2024) से ऐन पहले कांग्रेस के लिए परेशानी खड़ी करने वाला माना जा रहा है।
जानें क्या था 1998 में दिया गया फैसला?
सदन के भीतर रिश्वत लेने मामले में दोषी पाए जाने पर किसी सांसद/विधायक को सजा मिलने से इम्युनिटी (Immunity) मिली है या नहीं? इस सवाल का परीक्षण करते समय सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की खंडपीठ ने साल 1998 में 3-2 से बंटा निर्णय दिया था। शीर्ष अदालत ने माना था कि सांसदों/विधायकों को पहले भी ऐसे मामलों में अभियोजन से बचाया गया था। क्योंकि, ऐसी रिश्वत संसदीय वोट से जुड़ी थी। इसे लेकर संबंधित संवैधानिक प्रावधानों (constitutional provisions) के तहत सांसदों/विधायकों को संसदीय इम्युनिटी (parliamentary immunity) का संरक्षण मिला हुआ है। शीर्ष अदालत ने इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 105 (2) का हवाला दिया था, जिसके तहत संसद के किसी भी सदस्य को सदन में दिए गए किसी भी वोट के संबंध में अदालती कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है। इस आधार पर ही सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों के खिलाफ मामले को खारिज कर दिया था। राज्य विधानसभाओं के विधायकों के लिए भी यह प्रावधान आर्टिकल 194(2) के तहत किया गया है।
1993 में बची थी नरसिम्हा की सरकार
आपको बता दें, ये मामला वर्ष 1993 का है। जब कांग्रेस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में केंद्र में अल्पमत की सरकार बनाई थी। तब सदन में 28 जुलाई को नरसिम्हा राव की सरकार (Narasimha Rao Govt) के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव (No confidence motion) पर वोटिंग हुई थी। इस वोटिंग में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) और जनता दल (Janata Dal) के 10 सांसदों ने अपने वोट नरसिम्हा राव सरकार के पक्ष में डाले थे। इसके लिए, झामुमो के प्रमुख शिबू सोरेन (Shibu Soren) और 3 सांसदों सूरज मंडल, साइमन मरांडी और शैलेन्द्र महतो को रिश्वत के रूप में करोड़ों रुपए दिए जाने का आरोप लगा था। इस आरोप की जांच सीबीआई ने की थी। CBI ने जांच के बाद इन सांसदों के खिलाफ क्रिमिनल केस दाखिल किया था। इसमें कहा गया था कि सांसदों ने रिश्वत लेने की बात स्वीकार की।