PFI Ban: जड़ों पर प्रहार का वक्त, बहुत भयानक थी इस संगठन की साजिश

PFI Ban: पीएफआई के राज्य सचिव अब्दुल हमीद कभी सीमी के सचिव थे, आदि इत्यादि। नतीजतन, वे वही काम करने लगे, जो सिमी के बैनर तले किया जा रहा था।

Written By :  Yogesh Mishra
Report :  Neel Mani Lal
Update:2022-09-30 07:37 IST

PFI Ban: भारत के मूल ताने बाने के खिलाफ काम कर रहे कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों की घेराबंदी लंबे समय से जारी थी। पर अलग अलग अस्तित्वों के रूप में इनका जाल लगातार फैलता रहा। स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी), दीनदार अंजुमन, इस्लामिक सेवक संघ (पीपुल डेमोक्रेटिक फ्रंट और बाद में पीपुल फ्रंट ऑफ इंडिया में परिवर्तित), इंडियन मुजाहिदीन और मुस्लिम यूनाइटेड लिबरेशन ऑफ असम, साथ ही जम्मू-कश्मीर में इस्लामी चरमपंथी संगठन इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि देश में इस्लामी कट्टरपंथी ताकतें किस तरह से काम कर रही हैं।

एसएटीपी (दक्षिण एशिया आतंकवाद पोर्टल) ने पिछले 20 वर्षों में भारत के भीतर संचालित 180 आतंकवादी समूहों को सूचीबद्ध किया है। उनमें से कई बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों में या अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी नेटवर्क से जुड़े हुए हैं।सिमी के बाद उन्हीं तत्वों में से बहुतों ने मिलकर पॉपुलर फ़्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई ) बना लिया। जैसे पीएफआई के कभी चेयरमैन रहे अब्दुल रहमान सीमी के राष्ट्रीय सचिव रहे हैं। पीएफआई के राज्य सचिव अब्दुल हमीद कभी सीमी के सचिव थे, आदि इत्यादि। नतीजतन, वे वही काम करने लगे, जो सिमी के बैनर तले किया जा रहा था। ऐसे में सिमी पर प्रतिबंध के बाद पीएफआई पर प्रतिबंध यह बताने के लिए पर्याप्त है कि देश में मुसलमान की ओट लेकर किस तरह का खेल खेला जा रहा है? तुष्टिकरण के नाम पर किस तरह की गतिविधियों को संचालित होते देख अनदेखी की जा रही है? क्या तुष्टिकरण में पीएफआई जैसे संगठनों को फलते फूलते रहना शामिल होना चाहिए? क्या पीएफआई पर प्रतिबंध के बाद इस लड़ाई को पीएफआई बनाम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बनाया जाना चाहिए? कोई भी भारतवंशी इसका उत्तर देनें में पल भी न लगायेगा। पर राजनीतिक दलों को बरसों और दशकों इस सवाल का उत्तर देने में लग जा रहे हैं?

भारत सरकार द्वारा पहली बार पूरे देश में पीएफ़आई पर कठोर कार्रवाई करते हुए उस सहित आठ आनुषंगिक संगठनों पर पाँच साल का प्रतिबंध आयद किया गया है। पर इस सवाल का उत्तर शेष रह जाता है कि आख़िर पीएफआई को इतना अवसर कैसे मिल पाया कि उसने पूरे देश में अपने पैर पसार लिये? हमारी एजेंसियाँ जागी क्यों नहीं? यह भी सही है कि कुछ राजनीतिक दल के नेता संरक्षण देते हैं। पर हमारी एजेंसियाँ चाहें तो उनके नाम व कारनामों को मीडिया को थमा सकती हैं। एजेंसियाँ यह कहें कि नेताओं के खिलाफ खबरें छपती नहीं हैं, तो यह अर्ध सत्य कहा जायेगा। क्योंकि अगर नेता क्षेत्रीय दल से है तो उसके राज्य में न सही, आजू बाज़ू के राज्य में खबर छप ही जायेगी। यदि केंद्र सरकार का नेता है तो विरोधी राज्य सरकार के क्षेत्र से प्रकाशित होने वाले किसी अख़बार में छप ही जायेगी। यही नहीं, अब तो हर राजनीतिक दल के मीडिया समूह हैं। पर ऐसा होते नहीं देखा गया है। यह ज़रूर कहते सुनते लोग मिलते हैं कि भाजपा को छोड़ सभी सियासी दलों के एजेंडे का हिस्सा है- तुष्टिकरण।

धर्म का प्रचार प्रसार 

लेकिन यह तुष्टिकरण केवल रोज़गार या जीवन की अन्य ज़रूरतों तक सीमित रहता तो कोई बात नहीं । पर यह तो धर्म के प्रचार प्रसार से आगे निकल कर सीमी और पीएफआई जैसे कट्टर संगठनों को संरक्षण देन तक जा पहुँचा है। जहां भारत को कट्टर इस्लामी देश में बदलने के मंसूबे हैं।ग़ौरतलब है कि 2017 में इंडिया टुडे के स्टिंग आपरेशन में पीएफआई के संस्थापक सदस्यों में से एक अहमद शरीफ़ ने क़ुबूल किया था कि उनका मक़सद भारत को इस्लामिक स्टेट बनाना है। धर्म परिवर्तन की मुहिम चलाना है।मुस्लिम नौजवानों को कट्टरता का पाठ पढ़ाना है।देश के क़ानून की जगह शरीयत मानने की ज़िद पर रहना है। मदरसों में पढ़ने व पढ़ाने की मंशा,पाकिस्तान से निर्देश लेने का चलन, मुस्लिम आतंकी संगठनों के लिए काम करने का संकल्प, टेरर लिंक बनना, देश में हिंसा, दंगा व हत्या को अंजाम देना है। कर्नाटक में हिजाब विवाद को हवा देना, लव जिहाद के लिए सहयोग करने जैसे काम पीएफआई व उसस जुड़े आठ आनुषंगिक संगठन करते आ रहे हैं। ओट वंचितों की आवाज़ की ये संगठन लेते हैं।विदेशों से फ़ंडिंग की बात यूपी एसटीएफ़ और ईडी साबित कर चुके हैं।

केरल से संचालित होने वाले इस संगठन को 22 नवंबर,2006 को कर्नाटक फ़ोरम ऑफ डिग्निटी,केरल के नेशनल डेवलपमेंट फ़्रंट और तमिलनाडु के मनिता नीति पसरई को मिलाकर बनाया गया। उद्देश्य साफ़ था- खूनी जेहाद से 2047 तक भारत को इस्लामिक देश में परिवर्तित करना। इस संगठन ने जिहादियों को देश के कई स्थानों पर प्रशिक्षण दिलाया। दिसम्बर 2007- जनवरी 2008 वागामोन कैम्प में इंडीयन मुजाहिदीन, पीएफ़आई और सिमी के अनसारों ने प्रशिक्षण के दौरान तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी एवं वहाँ के गृह मंत्री अमित शाह की हत्या की योजना बनायी। वर्ष 2008 में ही गुजरात के " पावागढ़" प्रशिक्षण शिविर में इसे अंतिम रूप दिया।शुरूआत में इसका मुख्यालय केरल के कोझिकोड में था। जो बाद में दिल्ली आ गया। ओ.एम.ए. सलाम इसके अध्यक्ष हैं। पुलिस की वर्दी की तरह इसके यूनिफ़ॉर्म में सितारे और एम्बलब लगे हैं। हर साल स्वतंत्रता दिवस पर इसके कार्यकर्ता यूनिफ़ॉर्म में परेड करते हैं। 2013 में केरल सरकार इनके परेड पर बैन लगा चुकी है। 2012 में केरल सरकार ने हाईकोर्ट को बताया था कि हत्या के 27 मामलों में पीएफआई का सीधा हाथ है। सीएए के खिलाफ हुए प्रदर्शन, असम में उत्तर दक्षिण के लोगों को लेकर विवाद खड़ा करने सरीखे कई मामले में इस संगठन की संलिप्तता सामने आई है । मुसलमान वोटरों पर इनकी पकड़ का ही नतीजा होता है कि हर राजनीतिक दल इनके लोगों के सामने घुटने टेकते दिखता है।

भाजपा के सांसद व उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी बृजलाल बताते हैं कि "मुलायम सिंह यादव ने 26 जनवरी, 1993 को मेरठ में पीएसी टुकड़ी पर हुई आतंकी घटना की चार्ज- शीट वापस ले ली थी। न्यायालय ने सरकार का प्रस्ताव ठुकराकर सुनवाई की। आधादर्जन आतंकियों को आजन्म कारावास की सजा दे दी। अखिलेश यादव ने अपनी सरकार में आतंकवादियों के डेढ़ दर्जन मुक़दमों की चार्ज- शीट वापस ले लिया।" उस समय उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने टिप्पणी की थी कि आज आप आतंकियों के मुक़दमें वापस ले रहे हैं, कल उन्हें " पद्मविभूषण" दे सकते हैं।समाजवादी सरकार की तुष्टिकरण की राजनीति पर उच्च न्यायालय ने पानी फेर दिया। न्यायालय द्वारा मुक़दमों का विचारण करके आतंकियों को फाँसी और आजन्म कारावास की सजायें दी गयीं।

नवम्बर 2005 के अंतिम सप्ताह में लखनऊ में पुलिस- वीक का आयोजन हुआ । बी.के.भल्ला एडीजी रेलवे ने वरिष्ठ अधिकारी सम्मेलन में आतंकवाद पर चर्चा के लिए एक राइटअप तैयार किया, जो 28 जुलाई, 2005 को जौनपुर स्टेशन पर श्रमजीवी इक्स्प्रेस में हुई ब्लास्ट से सम्बंधित था, जिसमें 13 यात्री मारे गये और 50 से अधिक घायल हुये थे।यह आतंकी घटना इंडीयन मुजाहिदीन के आज़मगढ़ ग्रुप ने किया था। इस ग्रुप ने पूरे देश में बम- ब्लास्ट करके 700 से अधिक लोगों की जान ले थी। इसका नार्थ- इंडिया कमांडर आतिफ़ अमीन निवासी संजरपुर आज़मगढ़ 19 सितंबर, 2008 को दिल्ली बटला हाउस मुठभेड़ में साजिद के साथ मारा गया था।

चर्चा का विंदु था- scenario of Terrorism in India.आतंकवादियो ने किन- किन इस्लामिक संस्थानों में शरण लिया था, इसमें पटना के पास फुलवारी शरीफ़ का " इमारते- शरिया" भी था , जो 1921 में स्थापित किया गया था। चर्चा के बिंदु लीक कर दिये गये। कट्टरपंथी मुसलमानों ने हाय- तोबा मचा दिया कि उत्तर प्रदेश पुलिस इमारते- शरिया को बदनाम कर रही है।

अख़बारों में समाचार छपते ही तत्कालीन रेल मंत्री लालू यादव आग बबूला हो गये और लोकसभा में चर्चा करा दी। अधिकारियों पर कार्रवाई के लिए कहा गया। आख़िर लालू जी की एम-वाई राजनीति प्रभावित हो रही थी। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश ने 29 नवंबर,2005 को सीनियर आईपीएस बी. के.भल्ला को निलम्बित कर दिया, जबकि भल्ला उनके काफ़ी क़रीब माने जाते थे। इस निलम्बन से भल्ला का कैरियर पटरी से उतर गया और वे डीजीपी नही बन पाये।

समाजवादी सरकार में आतंकवाद पर चर्चा गुनाह

समाजवादी सरकार में आतंकवाद पर चर्चा करना भी गुनाह था। यही हाल बिहार का भी था जहां इंडियन मुजाहिदीन का दरभंगा माडूल जड़ जमा लिया और 2013 की पटना गांधी मैदान में मोदी जी हुंकार - रैली में धमाके किये। बोधगया सहित कई जगहों में धमाके करके दर्जनों लोगों की हत्याएँ की।

आज उसी फुलवारी शरीफ़ में पीएफ़आई द्वारा भारत को 2047 तक इस्लामिक देश बनाने की साज़िश रची जा रही थी। आज पीएफ़आई पर हो रही कार्यवाही पर लालू, अखिलेश, तेजस्वी , मुलायम , नीतीश कुमार, सभी चुप है, आख़िर वोट- बैंक का सवाल है।पीएफ़आई को प्रतिबंधित करके एक अतिवादी इस्लामिक संगठन का अब समूल नष्ट किया जा सकेगा, जो देश की एकता,अखंडता के लिए ख़तरा बन चुका था।

01.08.2022 को एनआईए ने गुजरात के नवसारी, भरूच और सूरत सहित छह राज्यों में 13 स्थानों पर तलाशी ली। ये छापे जून में 'वॉयस ऑफ हिंद' नामक एक ऑनलाइन पत्रिका पर दर्ज एक मामले से संबंधित थे, जिसने कथित तौर पर मुसलमानों को गैर-मुसलमानों के खिलाफ उकसाया। उन्हें भारत सरकार के खिलाफ उठने और आईएसआईएस में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। मुख्य आरोपी, हैदराबाद का एक 26 वर्षीय आईएसआईएस हमदर्द है जो वर्तमान में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद है।

31.07.2022 को एनआईए ने गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में कई स्थानों पर छापेमारी की और आतंकवादी संगठनों से कथित संबंधों को लेकर कम से कम 14 लोगों को हिरासत में लिया। असम में मदरसों की आड़ में आईएस के तत्वों की पनाहगाह और फैलाव का पर्दाफाश किया जा चुका है।

26 जुलाई, 2008 को अहमदाबाद में सीरियल बम- ब्लास्ट किए गये । जिसमें कुल 56 लोग मारे गये और 200 से अधिक घायल हुये।इसी ब्लास्ट में निशाने पर थे नरेंद्र मोदी एवं अमित शाह। अहमदाबाद सिविल अस्पताल के इमर्जेंसी गेट बम लगाकर ब्लास्ट किये थे, जिसमें 28 लोग एक ही जगह मारे गये थे। आतंकियों को उम्मीद थी क़ि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह घायलों को देखने अस्पताल अवश्य आएँगे, जहाँ आसानी से उनकी हत्या की जा सकती है। उसी दिन सूरत में 29 स्थानों पर सायकिलों और कारों में बिस्फोटक भरकर IED लगाई थी जो तकनीकी कारणों से ब्लास्ट नही हो पायी। अन्यथा अहमदाबाद ब्लास्ट से बड़ा धमाका सूरत में होता। अहमदाबाद ब्लास्ट के कुछ मिनट पहले आतंकियों ने मीडिया को ईमेल भेजा था और 15 दिन बाद पुनः ईमेल भेजकर पुलिस को गुमराह करने का प्रयास भी किया था।

बृजलाल कहते हैं,"अगर ये अतिवादी इस्लामिक संगठन अपने उद्देश्य में सफल हो जाते तो यह देश के लिए एक काले अध्याय की ख़तरनाक शुरुआत होती और देश " मोदी युग" का स्वर्णिम काल नही देख पाता। " पीएफ़आई को काफ़ी मेहनत के बाद सारे साक्ष्य जुटाकर प्रतिबंधित किया गया है । जिससे ये अतिवादी तकनीकी आधार का सहारा लेकर न्यायालय से प्रतिबंध न हटवा सकें।

कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति आज़ादी के पहल ही खिलाफत आंदोलन के साथ सामने आई, जिसके दौरान कांग्रेस ने तुर्की में इस्लामी खलीफा की बहाली के लिए आंदोलन शुरू किया। खलीफा तुर्की सुल्तान था, जिसे प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की की हार के बाद पदच्युत और निरस्त्र कर दिया गया था।26/11 के मुंबई हमलों में पाकिस्तान का हाथ एकदम साफ़ था । लेकिन कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन महासचिव दिग्विजय सिंह ने "26/11 आरएसएस की साज़िश?' नामक एक पुस्तक प्रकाशित की। इस किताब में उन्होंने दिखाया कि 26/11 का हमला एक हिंदू आतंकी हमला था । जिसे आरएसएस ने मंजूरी दी थी। दिग्विजय की पार्टी के किसी नेता ने इस हवाई दावे वाली किताब का विरोध नहीं किया।

मुसलमानों का देश के संसाधनों पर 'पहला दावा' 

2006 के दिसंबर में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय विकास परिषद को संबोधित करते हुए कहा कि मुसलमानों का देश के संसाधनों पर 'पहला दावा' है। उनके इस बयान की काफी आलोचना हुई थी। मनमोहन सिंह ने अपने बयान में कहा था कि प्रशासन को ऐसी नई नीतियां बनानी चाहिए, जिससे सभी अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को विकास में बराबर का हिस्सा मिल सके। 2016 में पश्चिम बंगाल सरकार ने विजयादशमी के अवसर पर मूर्ति विसर्जन अनुष्ठान पर प्रतिबंध जारी किया । क्योंकि यह मुहर्रम से ठीक एक दिन पहले था। इसके खिलाफ कई जनहित याचिकाएं दायर करने के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इस फैसले को रद कर दिया था। अदालत ने कहा था कि ऐसा कोई भी निर्णय जो दो समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है, सरकार द्वारा नहीं लिया जाना चाहिए। यह निर्णय अल्पसंख्यकों को खुश करने का एक स्पष्ट प्रयास था। इसके बावजूद, 2017 में, पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने भी ऐसा ही फैसला किया। अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए 1 अक्टूबर को मुहर्रम के अवसर पर दुर्गा विसर्जन पर रोक लगा दी गई थी।

भारत में तुष्टीकरण की राजनीति के प्रमुख मामलों में से एक पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान हुआ। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1985 के अपने प्रसिद्ध फैसले में ट्रिपल तालक के अधिनियम को अमान्य कर दिया था। लेकिन राजीव गाँधी सरकार ने कई मुस्लिम समूहों के दबाव में संसद में एक विधेयक पारित करके सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को रद कर दिया। हिंदू समुदाय का विश्वास और समर्थन वापस पाने के लिए, पूर्व प्रधान मंत्री ने फिर दूसरी दिशा में तुष्टीकरण का कदम उठाया। उनकी अनुमति से अयोध्या में राम मंदिर के कपाट खोले गए। इसने एक बड़ा व्यवधान पैदा किया क्योंकि अयोध्या की भूमि लंबे समय से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक संघर्षों के अधीन थी। उन आधारों पर मंदिर या मस्जिद बनाने की मान्यता को संबोधित करते हुए कोई विशेष निर्णय नहीं लिया गया था। इस प्रकार, सरकार के उस निर्णय से मुसलमान नाखुश थे जो हिंदुओं के पक्ष में था। इसलिए, दोनों पक्षों को खुश करने की प्रक्रिया में, सरकार द्वारा किए गए कदमों का उलटा असर हुआ और उन्होंने दोनों समुदायों का समर्थन खो दिया।

केरल में 2010 में, प्रो. के.टी. जोसेफ का दाहिना हाथ कट्टर मुस्लिमों ने काट दिया था। जोसेफ ने विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए एक पेपर देकर विवाद खड़ा कर दिया जिसमें कथित तौर पर पैगंबर मुहम्मद के अपमानजनक संदर्भ थे। प्रोफेसर की रक्षा करने के बजाय, राज्य सरकार ने सुनिश्चित किया कि उनकी नौकरी भी चली जाए।तेलंगाना सरकार द्वारा मुस्लिम महिलाओं को विवाह पर 50 हजार रुपये देना भी तुष्टिकरण का एक उदहारण है। नागरिक और शैक्षणिक संस्थानों में धर्म आधारित आरक्षण को छद्म धर्मनिरपेक्षता के सबूत के रूप में भी देखा जाता है । योग्यता को कमजोर करने के लिए आलोचना की जाती है। राईट टू एजुकेशन कानून के सख्त नियम अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू ही नहीं होते।

हिंदू मंदिरों का प्रबंधन राज्य सरकार द्वारा किया जाता है। इस्लाम, ईसाई और सिख धर्म जैसे अल्पसंख्यक धर्मों के धार्मिक स्थानों का प्रबंधन उनके अनुयायियों द्वारा किया जाता है। इसे छद्म धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण माना जाता है। पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया और उसके कुछ सहयोगी संगठनों पर बैन लगाना इस्लामी कट्टरपंथी तत्वों को कंट्रोल में रखने का एक कदम माना जा सकता है। लेकिन एक प्रभावी प्रति-कट्टरपंथी रणनीति सिर्फ इतने से काफी नहीं है।मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए कई राजनीतिक दलों द्वारा 'अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा' के नाम पर भारत में कट्टरपंथ को 'वैध' किया गया है। हिजाब जैसे मुद्दों पर उनका प्रतिगामी रुख और कट्टरपंथी इस्लामवादियों द्वारा हिंदू कार्यकर्ताओं की हत्या पर चुप्पी कट्टरता को और बढ़ावा देती है। तीसरा, एक समाज के रूप में हम अतीत से सबक लेने से इनकार कर रहे हैं। 1947 में कुछ मुसलमानों के कट्टरपंथ के कारण भारत का विभाजन हुआ।

पीएफआई जैसे संगठन एक कट्टरपंथी उद्देश्य के लिए हिंसा और आतंकवाद का सहारा लेते हैं। देश के विभाजन के बावजूद भारत में बरेलवी, वहाबी और देवबंदी - ऐसे कट्टरपंथी विचारधाराओं का पनपना और विस्तार जायज नहीं है।

इस्लाम के वहाबवाद, देवबंदी और बरेलवी तीनों में सामान्य बात 'प्यूरिटन' दृष्टिकोण है। वे चाहते हैं कि इस्लाम अपने शुद्धतम रूप में लौट आए। तीनों बेहद रूढ़िवादी हैं।समाज में महिलाओं और काफिरों की स्थिति के बारे में समान विचार रखते हैं।भारत में 17.22 करोड़ मुसलमानों (2011 की जनगणना) के बावजूद, कट्टरपंथी इस्लामवादियों द्वारा इस देश को "दार अल हर्ब" - एक गैर-मुस्लिम राष्ट्र - के रूप में माना जाता है। यही वजह है भारत कट्टरपंथी इस्लाम के लिए एक स्वाभाविक लक्ष्य बना है।

वहाबी

वहाबवाद की स्थापना 18वीं शताब्दी में नजद (आज के सऊदी अरब में) के क्षेत्र में अब्द-अल-वहाब द्वारा की गई थी। वहाबवाद मानता है कि इस्लाम को अपने स्वर्ण युग यानी पैगंबर और पहले चार खलीफाओं के युग में लौटना चाहिए। 1824 में मक्का से लौटने के बाद सैयद अहमद (1786-1831) द्वारा वहाबवाद को भारत में आयात किया गया था। 'जिहाद' के नाम पर, उसने पंजाब में मुस्लिम शासन को बहाल करने के प्रयास में सिखों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। लेकिन 1831 में बालाकोट (अब पाकिस्तान में) में सिखों के खिलाफ लड़ाई में मारा गया। उसका जन्म अवध क्षेत्र में हुआ था। सैयद अहमद ने शाह इस्माइल और शाह अब्दुल हय के साथ 1818 में 'सिरातुल मुस्तकीम' शीर्षक से एक घोषणापत्र तैयार किया था। घोषणापत्र में इस बात पर जोर दिया गया था कि भारत में इस्लाम हिंदू संस्कृति के साथ-साथ सूफीवाद के प्रभाव मंष दूषित हो गया है। इसे शुद्ध करने की आवश्यकता है। वहाबवाद भारत में शुद्ध इस्लामी शासन लाने के लिए 'जिहाद' का पक्षधर है। समझा जाता है कि सउदी लोग भारत में वहाबवाद को बढ़ावा देने के लिए बेशुमार पैसे खर्च कर रहे हैं।

देवबंदी स्कूल

देवबंदी विचारधारा भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के कट्टरपंथ के प्रमुख स्रोतों में से एक है। कुख्यात हक्कानी नेटवर्क और तालिबान, देवबंदी विचारधारा से उत्पन्न हुआ है। जैश-ए-मुहम्मद भी देवबंदी स्कूल का पालन करता है। उत्तर प्रदेश के देवबंद में 1866 में एक इस्लामी मदरसा स्थापित किया गया था। अब यह दुनिया भर में इस्लाम में सबसे प्रभावशाली सेमिनरी में से एक है। इसे 'दारुल उलूम देवबंद' के रूप में जाना जाता है। देवबंदी आंदोलन की उत्पत्ति शाह वलीलुल्लाह देहलवी (1703-1762) के कारण हुई। उनके पिता शाह अब्दुर रहीम एक सूफी थे जिन्हें कट्टर हिंदू विरोधी मुगल शासक औरंगजेब ने 'फतवा-ए-आलमगिरी' के संकलन के लिए नियुक्त किया था। गौर मुस्लिमों के प्रति देवबंदियों का रुख वैसा ही है जैसा वहाबियों का है।

बरेलवी

भारतीय मुस्लिम आबादी में बहुमत बरेलवी हैं। वे इस्लामी न्यायशास्त्र के हनफ़ी संप्रदाय का पालन करते हैं। भारत के विभाजन के लिए मुस्लिम लीग के अभियान के पीछे बरेलवी ही एक प्रमुख प्रेरक शक्ति थी। बरेलवी विचारधारा ने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया था।बरेलवी आंदोलन 1880 के दशक में बरेली में अहमद रजा खान द्वारा शुरू किया गया था। बरेलवी भी इस्लाम के शुद्ध रूप में वापस लौटने में विश्वास करते हैं जिसे वे सच्चा इस्लाम मानते हैं

बड़े सवाल

जिस तरह भारत में कट्टरपंथी इस्लाम विचारधारा वहाबी, बरेलवी और देवबंदी के रूप में जड़ें जमाये हुये है । वैसा शायद ही किसी अन्य देश में होगा। सिर्फ सिमी, पीएफआई जैसे संगठनों पर बैन लगाने से क्या कुछ बदलाव होने वाला है? यह एक बड़ा सवाल है। बैन तो सिमी पर भी लगा लेकिन वह चेहरा बदल कर पीएफआई के रूप में आ गया। अब पीएफआई पर बैन है । लेकिन इसी संगठन के दूसरे चेहरे एसडीपीआई पर बैन नहीं है। जब तक कट्टरपंथी विचारधारा की जड़ बनी रहेगी तब तक सिर्फ टहनियां काटने से क्या बदलाव हो पायेगा।

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