Worship Act : मंदिर-मस्जिद को लेकर नहीं दर्ज होगा कोई नया मुकदमा, पूजा स्थल अधिनियम मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला

Worship Act : सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार यानि 12 दिसंबर को पूजा स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 पर सुनवाई की।

Newstrack :  Network
Update:2024-12-12 15:57 IST

सुप्रीम कोर्ट में कुछ ही देर में शुरू होगी सुनवाई  (photo: social media )

Worship Act : सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार यानि 12 दिसंबर को पूजा स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 पर सुनवाई की। मुख्य न्यायाधीश कहा कि इस मामले की अगली सुनवाई होने तक मंदिर-मस्जिद से संबंधित कोई भी नया मुकदमा दायर नहीं किया जाएगा। पीठ ने कहा कि जो भी मामले दर्ज किए गए हैं, वे चलते रहेंगे।

इस मामले में मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की पीठ ने सुनवाई की। यह सुनवाई 1991 के कानून के कुछ प्रावधानों की वैधता को चुनौती देने वाली जनहित याचिकाओं को लेकर हुई। इसमें कहा गया कि पूजा स्थल को पुनः प्राप्त करने या 15 अगस्त, 1947 के आधार पर संरक्षित करता और उसके स्वरूप में बदलाव की मांग करने के लिए मुकदमा दायर करने से रोकता है।

केंद्र सरकार से मांगा जवाब

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कानून के खिलाफ या इसके कार्यान्वयन की मांग करने वाली क्रॉस-याचिकाओं पर जवाब मांगा है। वहीं, केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए। उन्होंने कोर्ट के समक्ष कहा कि केंद्र सरकार इस मामले में हलफनाम दाखिल करेगी।

बता दें कि इस मामले की सुनवाई विभिन्न अदालतों में दायर कई मुकदमों को देखते हुए हुई है, जिनमें वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद और संभल में शाही जामा मस्जिद से संबंधित मुकदमे शामिल हैं। इनमें दावा किया गया है कि ये प्राचीन मंदिरों को नष्ट करने के बाद बनाए गए थे और हिंदुओं को वहां प्रार्थना करने की अनुमति मांगी गई थी।

यह कानून बना विवाद का विषय

हाल के वर्षों में यह कानून काफी विवाद का विषय रहा है। कुछ वर्गों का मानना है कि कानून में बदलाव से न केवल सामाजिक सद्भाव बिगड़ेगा, बल्कि देश की एकता पर भी बड़े स्तर पर प्रभाव पड़ सकता है। कांग्रेस पार्टी सहित विपक्षी दलों का कहना है कि वह इस अधिनियम को भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण मानता है और इसमें बदलाव नहीं किया जाना चाहिए। अधिकांश मामलों में मुस्लिम पक्ष ने 1991 के कानून का हवाला देते हुए तर्क दिया कि ऐसे मुकदमे विचारणीय नहीं हैं।

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