श्रीराम जानकी से स्वयं बोले, तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत कोटि जन्म अघ भागा

Update:2018-01-12 17:49 IST

रतिभान त्रिपाठी

तीर्थराज प्रयाग धार्मिक क्षेत्र के रूप में सर्वख्यात है। प्रयाग तो बहुत हैं लेकिन संगम तट के प्रयाग तो प्रयागराज कहा जाता है। और इसे ही तीर्थराज यानी सभी तीर्थों के राजा होने का गौरव प्राप्त है। पुराणों में कहा गया है कि अयोध्या, मथुरा, मायापुरी, काशी, कांची, अवंतिका और द्वारका- ये सप्त पुरियां हैं और इन्हें तीर्थराज प्रयाग की पत्नियों की संज्ञा दी गई है। सातों पुरियों में काशी श्रेष्ठ है। ये तीर्थराज की पटरानी है, इसीलिए तीर्थराज ने इन्हें सबसे निकट स्थान दिया है। जिस तरह ब्रह्माण्ड से जगत की उत्पत्ति होती है, जगत से ब्रह्माण्ड का जन्म नहीं हो सकता, उसी तरह प्रयाग से सारे तीर्थ उत्पन्न हुए माने गए हैं। प्रयाग किसी तीर्थ से उत्पन्न नहीं हो सकता।

प्रयाग नाम क्यों : ब्रह्मा द्वारा यहां अनेक प्रकृष्ट यज्ञ किए जाने के कारण इसका नाम प्रयाग हुआ है। यहां ऋषियों और देवताओं ने भी अनेक यज्ञ किए थे, इसलिए यह तीर्थ बहुत पवित्र माना जाता है। प्रयाग को अगर शाब्दिक रूप से परिभाषित करें तो अर्थ है- प्रकृष्टो याग: इति प्रयाग:। यानी जिस स्थान पर अनेक यज्ञ किए गए हों, वही प्रयाग है। परन्तु स्वयं ब्रह्मा द्वारा पूजित इस भूमि को प्रयागराज कहा जाता है। विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ राम चरित मानस में तीर्थराज प्रयाग का वर्णन बड़े ही श्रेष्ठ भाव से किया गया है-

माघ मकरगत रवि जब होई। तीरथ पतिहिं आव सब कोई।।

देव दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनी।।

पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अछयबट हरषहिं गाता।।

तहां होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा।।

मज्जन फल पेखिय ततकाला। काक होहिं पिक बकहु मराला।।

सुनि आचरज करइ जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई।।

अकथ अलौकिक तीरथ राऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।।

गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि जब श्रीराम लंका पर विजय प्राप्त करके पुष्पक विमान से लौट रहे थे तो वह विमान से ही सीताजी को तीर्थों के दर्शन कराते और उनका वर्णन करते हुए प्रयाग पहुंचने पर कहते हैं-

बहुरि राम जानकिहिं देखाई। जमुना कलिमल हरनि सुहाई।।

तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत कोटि जन्म अघ भागा।

देखु परम पावन पुनि बेनी। हरनि शोक परलोक निसेनी।।

यानी तीर्थराज के प्रयाग के दर्शन मात्र से किसी भी मनुष्य का करोड़ों जन्मों का पाप नष्ट हो जाता है। ऐसे महातीर्थ के तट पर हर साल लगने वाला एक माह का मेला और धार्मिक अनुष्ठान देखने और करने योग्य है।

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संतों के पंथ-मत : हमारे देश में संतों-महंतों के विविध पंथ और संप्रदाय हैं। पहला विभाजन शैव, वैष्णव और शाक्त के रूप में है। इसके बाद संन्यासी और वैरागी का विभाजन है। शैवों में भी अनेक मत हैं और वैष्णवों में भी। रामानंद, रामानुज, निम्बाकाचार्य, वल्लभाचार्य, चैतन्य, कैवल्य जैसे अनेक पंथ तो वैषणवों के हैं। इन सारे मतों-पंथों, संप्रदायों के संत माघ के महीने में संगम तीरे बसते हैं। यही संन्यासी परंपरा में शंकराचार्य और दंडी करते हैं। वैसे विविध संप्रदायों और मत पंथों के अपने शास्त्र वचन और ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों का मूल स्वर तीर्थराज प्रयाग की महिमा का बखान करना है।

सबका लक्ष्य एक : गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी संगम पर इन मत पंथों के कर्मकाण्ड, इनकी पूजा पद्धति, इनके भजन-कीर्तन, प्रवचन और सत्संग को देखकर विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि हमारे देश के सभी तीर्थों में अंतरसम्बन्ध है। सभी तीर्थों की पुण्यधारा तीर्थराज प्रयाग के संगम की ओर बढऩे लगती है। संगम और समन्वय ही हमारी संस्कृति का मूल स्वर है। यही समन्वय प्रयाग को तीर्थराज का गौरव देता है।

कल्पवास क्यों : देश में प्रयाग नाम के अनेक तीर्थ हैं, खासतौर से हिमालय क्षेत्र के कई तीर्थों को प्रयाग नाम से जोड़ा गया है। कर्ण प्रयाग, रुद्र प्रयाग, विष्णु प्रयाग जैसे तीर्थों में लाखों श्रद्धालु हर साल जाते हैं। इन तीर्थों के नाम से पता चलता है कि यहां देवताओं और संतों ने अनेक यज्ञ किए थे लेकिन इनमें सर्वश्रेष्ठ है संगम तट का प्रयागराज। वेदों और पुराणों में इसके सेवन से जन्म मरण से मुक्ति का उल्लेख मिलता है। इसीलिए यहां कल्पवास किया जाता है। कहा गया है कि यहां एक महीने रहकर स्नान, पूजन और दर्शन से श्रद्धालु को तत्वज्ञान के बिना भी मुक्ति मिल जाती है।

क्या है कल्पवास: प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट इन दिनों आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत है। संगम तट पर माघ मेला सज गया है। चौबीसों घंटे स्नान, भगवत भजन, पूजन-अर्चन और कथा-प्रवचन चल रहा है। संगम किनारे एक विशाल भूभाग पर माघ मेला लगा हुआ है, जहां लाखों कल्पवासी चौबीसों घंटे भगवत् उपासना कर रहे हैं। दो से तीन बार गंगा स्नान, एक समय भोजन, तुलसी- शालिग्राम पूजन, भगवत् कथा श्रवण, यही हर श्रद्धालु की दिनचर्या है। पौष पूर्णिमा से शुरू हुई यह साधना माघी पूर्णिमा तक अनवरत चलने वाली है। इसमें किसी तरह का व्यवधान किसी भी कल्पवास कर रहे किसी भी साधक को स्वीकार नहीं है। यही कल्पवास है।

कल्पवास का विधान : गृहस्थ हों या सरकारी नौकरी करने वाले, संत हों या विरक्त, अगर एक महीने के कल्पवास का संकल्प लेकर संगम तट पर आकर टेंट में डेरा डाल दिया तो फिर सारे काम छोड़ पहले इसी संकल्प को पूरा करना है। कोई नौकरी करने वाला अगर कल्पवास करने लगता है तो वह सुबह स्नान पूजन के बाद दिन भर कहीं रहे, रात्रि विश्राम उसे अपने शिविर में ही करना है। अगर किसी को दिन में कहीं आवश्यक कार्य है और यह कार्य उसके गए बिना पूरा नहीं होगा, बहुत महत्वपूर्ण है, तो कल्पवास का साधक दिन में वह काम निस्तारित करके शाम को अपने शिविर में ही पहुंचना है।

संकल्प ऐसा होता है कि इस अवधि में कल्पवासी मेला क्षेत्र के बाहर का दाना-पानी नहीं ग्रहण कर सकता। उसे गंगा जल का ही सेवन करना है और अपने शिविर में ही भोजन करना है। इस अवधि में वह अपनी रसोई के अतिरिक्त किसी पड़ोसी कल्पवासी की रसोई में भी भोजन नहीं कर सकता है। उसे जमीन पर ही सोना होता है। हां, ठंडक का समय होता है, इसलिए कल्पवासी बालू पर पुआल बिछाकर उस पर अपना बिस्तर डाल देते हैं। यह क्रम पौष पूर्णिमा से आरंभ होता है और माघी पूर्णिमा के साथ सम्पन्न होता है। जिस भी श्रद्धालु ने एक बार कल्पवास करना शुरू किया तो फिर उसे 12 साल तक अनवरत माघ के महीने में संगम तट पर ही रहना होता है। वैसे इसे अधिक समय तक भी जारी रखा जा सकता है।

तुलसी शालिग्राम की स्थापना : कल्पवास की शुरुआत के पहले दिन तुलसी और शालिग्राम की स्थापना से होती है। कल्पवासी अपने तंबू के बाहर जौ का बीज रोपित करता है। कल्पवास की समाप्ति पर इस पौधे को कल्पवासी अपने साथ ले जाता है। जबकि तुलसी को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। महीने भर इसकी पूजा भी की जाती है।

नियमों में बदलाव भी हुए: समय के साथ कल्पवास के तौर-तरीकों में कुछ बदलाव भी आया है। पहले दुनियादारी से खुद को मुक्त समझकर बुजुर्ग की श्रेणी में आने वाले लोग ही कल्पवास किया करते थे। लेकिन जैसे कि समाज में धनाढ्यता बढऩे के साथ ही लोगों में डर का भी समावेश हुआ है। यह शाश्वत सत्य नहीं है लेकिन जब लोग गलत तरीके से धनार्जन करते हैं तो उसे बचाने का डर भी आता है। कुछ लोग इसी वजह से धार्मिक कार्यक्रम करते हैं। ऐसे में स्वाभाविक है, जब अलग तरह के लोग धार्मिक कार्यों में आगे बढ़ेंगे तो आचरण और व्यवहार में बदलाव होगा ही। उसका असर संगम तट के कल्पवास में दिखता है।

आधुनिकता का पूरा असर : आधुनिकता का असर यहां भी देखने को मिलता है। जैसे कि पहले मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी और उपली से बना भोजन ही ग्रहण किया जाता था। शिविर कास-कुशा के होते थे। अब कास-कुशा वाले शिविर बहुत कम दिखते हैं। मोटे कपड़े के तंबू-कनातों ने उनकी जगह ले ली है। कुछ लोग तो टिन बाड़े, शानदार कुर्सियां, सोफे, पलंग तक इस्तेमाल करने लगे हैं। देसी चूल्हों की जगह ले ली है गैस सिलेंडरों ने।

सादे भोजन की जगह तरह तरह के पकवानों का स्वाद लेने में भी कल्पवासी पीछे नहीं रहते। कुछ लोग तो बिजली कनेक्शन लेकर टीवी तक लगा लेते हैं। तंबू कनात भी शानदार होते हैं। दो पल्ले वाले छोटे तंबुओं की जगह दरबारी टेंट, तीन कक्षों वाले स्विस कॉटेज, शानदार टिनघेरे वाले शौचालय और स्नानागार बनाए जाते हैं। मोबाइल तो हर हाथ में हो गया है इसलिए दिन भर घर का हाल चाल लिया जाता है। यानी सारी गृहस्थी संगम तट से ही चलने लगती है। और तो और फेसबुक पर फोटो और संदेश लोडकर भेजने का सिलसिला भी बन जाता है। मेला क्षेत्र में बिजली तो चौबीसों घंटे होती है, इसलिए कुछ युवा या कंप्यूटर जानने वाले कल्पवासी अपने लैपटॉप का इस्तेमाल करते हुए मगन देखे जा सकते हैं। इन सबके बावजूद तीर्थराज प्रयाग की महिमा पर कहा गया है कि -

श्रुति प्रमाणं स्मृतयोप्र्रमाणं, पुराणमप्यत्र परम प्रमाणं। यत्रास्तु गंगा-यमुना प्रमाणं, स तीर्थराजो जयति प्रयाग:।।

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