लखनऊ: 26 जुलाई को देश भर में कारगिल विजय दिवस मनाया जाएगा। साल 1999 में हुआ कारगिल युद्ध न सिर्फ पाकिस्तान पर भारत की विजय गाथा का उदाहरण है, बल्कि इसके साथ ही उन तमाम देश के वीर सपूतों का बलिदान स्तंभ भी है, जिन्होंने देश की रक्षा के लिए अपना सबकुछ कुर्बान करके शहादत को गले लगाया। वैसे तो ज्यादातर जवान युद्ध के दौरान शहीद हुए थे, लेकिन भारत का एक लाल ऐसा भी था, जिसकी कुर्बानी को कारगिल युद्ध की पहली शहादत माना गया।
ऐसे बीता था बचपन
सौरभ कालिया का जन्म 29 जून 1976 को अमृतसर में डा. एनके कालिया और विजया कालिया के घर हुआ था। सौरभ को बचपन से ही सेना में जानें का शौक था। वो अक्सर माता-पिता से इंडियन आर्मी की बातें किया करते थे।
उनके घरवाले उस टाइम उनकी बातों को हंस कर टाल दिया करते थे। सौरभ ने 1997 में एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की पढ़ाई की। उसके बाद भारतीय सैन्य अकादमी में उनका सिलेक्शन हो गया।
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जाट रेजीमेंट में मिली थी पोस्टिंग
सौरभ कालिया ने 12 दिसंबर 1998 को भारतीय थल सेना में कमीशंड ऑफिसर के पद पर ज्वाइन किया। उनकी पहली पोस्टिंग 4 जाट रेजीमेंट की तरफ से कारगिल सेक्टर में हुई थी।
जानकारी के मुताबिक, कैप्टन सौरभ कालिया सेना में नियुक्ति के बाद अपनी पहले महीने की सैलरी नहीं उठा पाए थे। उन्हें सेना ज्वाइन किए हुए मात्र एक महीने ही हुए थे। उन्हें पहली पोस्टिंग कारगिल में मिली थी।
घुसपैठ की मिली थी जानकारी
कैप्टन सौरभ कालिया 5 मई 1999 की रात अपने पांच साथियों के साथ लद्दाख के बजरंग पोस्ट पर पेट्रोलिंग कर रहे थे। तभी उन्हें पाकिस्तानी घुसपैठियों की सूचना मिली।
कैप्टन सौरभ उनसे लोहा लेने के लिए निकल पड़े। घुसपैठिए पहले से ही घात लगाये बैठे थे। उन्होंने कैप्टन सौरभ और उनके पांच साथियों को पकड़ लिया गया।
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22 दिनों तक बंदी बनाकर किया टॉर्चर
कैप्टन सौरभ और उनके पांच साथियों को पाकिस्तानी घुसपैठियों ने 22 दिनों तक बंदी की तरह रखा था। उन्हें खाने पीने को नहीं दिया जाता था। उनका मुंह खुलवाने के लिए उन्हें बुरी तरह से टॉर्चर किया जाता था।
टार्चर करने के बाद भी कैप्टन सौरभ और उनके साथियों ने अपना मुंह नहीं खोला था तो घुसपैठियों ने सभी को तड़पा-तड़पाकर मौत के घाट उतार दिया।
घुसपैठियों ने उनकी डेड बॉडी को बुरी तरह से क्षत-विक्षत कर दिया था। उनकी पहचान मिटाने के लिए चेहरे और बॉडी पर धारदार हथियार से कई बार प्रहार किया गया था। उसके बाद घुसपैठिए शहीदों की डेडबॉडी को छोड़कर भाग गये थे।
शहीदों की डेडबॉडी पहचानना हुआ मुश्किल
सेना को जब कैप्टन सौरभ कालिया और उनके पांच अन्य साथियों की डेडबॉडी मिली। तब उनकी पूरी बॉडी पर इतने ज्यादा चोट के निशाने थे कि डेडबॉडी की पहचान करना मुश्किल हो रहा था।
देश की सेना को कई घंटे लग गए तब जाकर सभी शहीदों की बॉडी की पहचान हो पाई। उसके बाद जाकर पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार हो पाया था।