गलवां घाटी का रहस्यः आखिर कैसे पड़ा नाम गलवां, कौन था वो शख्स

गुलाम रसूल गलवां का जन्म सन 1878 में हुआ था। रसूल को बचपन से ही नई जगहों को खोजने का जुनून था।

Update: 2020-06-20 06:52 GMT
gulaam rasool galwaan

नई दिल्ली: लद्दाख की वो ऐतिसाहिक पहाड़ी जों करीब 14 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। जहाँ पर भारत और चीन की सेनाएं काफी समय से आमने-सामने तैनात खड़ी है। यह घाटी अक्साई चीन इलाके में आती है, जिस पर चीन अपनी नजरें पिछले 60 सालों से गड़ाए बैठा है। 1962 से लेकर 1975 तक भारत-चीन के बीच हुए युद्ध में गलवां घाटी ही केंद्र में रही है और अब 45 सालों बाद फिर से घाटी के हालात बिगड़ गए हैं। आइयें जानते है कि आखिर कैसे इस घाटी का नाम गलवां घाटी पड़ा।

दरअसल इस घाटी का नाम लद्दाख में ही रहने वाले एक चरवाहे के नाम पर पड़ा जिसका नाम गुलाम रसूल गलवां था। गुलाम रसूल गलवां का जन्म सन 1878 में हुआ था। रसूल को बचपन से ही नई जगहों को खोजने का जुनून था। उसके इसी जूनून ने उसको अंग्रेजों का पसंदीदा गाइड बना दिया।

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1899 में लेह से ट्रैकिंग शुरू की

अंग्रेजो को भी लद्दाख खूब भाता था और उस्नको यहाँ अच्छा लगता था। ऐसे में गुलाम रसूल ने 1899 में लेह से ट्रैकिंग शुरू की और लद्दाख के आसपास कई नए इलाकों तक अपनी पहुंच बनाई। इसी वजह में गुलाम रसूल गलवां ने अपनी पहुंच गलवां घाटी और गलवां नदी तक बढ़ाई। ऐसे में इस नदी और घाटी का नाम गुलाम रसूल गलवां के नाम पर पड़ा।

गलवां ने लिखी थी 'सर्वेंट ऑफ साहिब्स'

गलवां बहुत कम उम्र में ही एडवेंचर ट्रेवलर कहे जाने वाले सर फ्रांसिस यंगहसबैंड की कम्पनी में शामिल हो गया। सर फ्रांसिस ने तिब्बत के पठार, सेंट्रल एशिया के पामेर पर्वत और रेगिस्तान की खोज की थी। अंग्रेजों के साथ रहकर गुलाम रसूल भी अंग्रेजी बोलना, पढ़ना और कुछ हद तक लिखना भी सीख लिया था। 'सर्वेंट ऑफ साहिब्स' नाम की गुलाम रसूल ने ही टूटी-फूटी अंग्रेजी भाषा में लिखी। हालांकि इस किताब का शुरुआती हिस्सा सर फ्रांसिस यंगहसबैंड ने लिखा था।

 

इसी पुस्तक में गुलाम रसूल ने बीसवीं सदी के ब्रिटिश भारत और चीनी साम्राज्य के बीच सीमा के बारे में बताया है।

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