लखनऊ: "सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ? ज़िंदगी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहा?"

राहुल के बचपन का नाम केदारनाथ पांडे था जो इनके पिता गोवर्धन पांडे ने रखा था, इनके पिता एक किसान थे। इन्होंने बचपन में इनकी माता कुलवंती के गुज़र जाने के बाद से इनका ख्याल रखने की कोशिश की लेकिन सही तरीके से ना कर पाए। जिससे इनके नाना-नानी ने इनका पालन पोषण किया।

Update: 2019-04-09 04:47 GMT

लखनऊ: गौतम बुद्ध, कार्ल मार्क्स और व्लादिमीर लेनिन से प्रभावित एवं यात्रावृतांत और विश्वदर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक ज्ञान देने वाले अथवा यात्रादर्शन के जनक 'महापंडित राहुल सांकृत्यायन' का जन्म आज ही के दिन 1893 में आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में हुआ था।

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राहुल के बचपन का नाम केदारनाथ पांडे था जो इनके पिता गोवर्धन पांडे ने रखा था, इनके पिता एक किसान थे। इन्होंने बचपन में इनकी माता कुलवंती के गुज़र जाने के बाद से इनका ख्याल रखने की कोशिश की लेकिन सही तरीके से ना कर पाए। जिससे इनके नाना-नानी ने इनका पालन पोषण किया।

राहुल सांकृत्यायन ने बचपन में प्राथमिक शिक्षा मदरसे से हासिल की और इसी बीच इनका विवाह भी हो गया जिसे इन्होंने कभी नही स्वीकारा और कुछ सालों तक विश्वभ्रमण करते हुए इन्होंने साल 1937 में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में संस्कृत अध्यापक की नौकरी की,जहां पर रहते हुए इन्होंने ऐलेना नाम की लड़की से दूसरी शादी कर ली।

कैसे बनी घूमने की सोच?

राहुल सांकृत्यायन के जब अपने नाना रामशरण पाठक के घर रहते थे जो कि एक फौजी थे और उन्होंने 12 साल फौज में बिताये थे इस दौरान मेजर साहब के अर्दली के रूप में वो पूरा भारत घूमते रहे और जब घर पर खाली होते तो राहुल को अपनी सारी कहानियां सुनाते। इससे राहुल के अंदर पूरी दुनिया को घूमने का जुनून पैदा हो गया और उनके इसी जुनून की वजह से आज उनका नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा है।

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कैसे नाम पड़ा 'राहुल सांकृत्यायन'?

अपने घूमंतू स्वभाव के लिए पहचाने जाने वाले 'रामोधर साधु' जब 1930 में श्रीलंका बौद्ध धर्म पर शोध करने के लिए गए थे तब से ही ये ‘रामोधर साधु’ से ‘राहुल’ बन गए और सांकृत्य गोत्र के होने की वजह से सांकृत्यायन कहे जाते हैं।

अत्यधिक ज्ञानी होने की वजह से और लगभग सभी भाषाओं का ज्ञान होने के कारण उस वक़्त काशी के पंडितों ने इनको महापंडित की उपाधि दे दी तब से इनका नाम ‘महापंडित राहुल सांकृत्यायन’ हो गया और ये हर जगह इसी नाम से पहचाने जाने लगे।

-सारे देश-सारी भाषाओं से था राब्ता

किशोरावस्था में घर छोड़ने के बाद से ही राहुल ने देश विदेश घूमना शुरू कर दिया जिसमें चीन, नेपाल, तिब्बत, श्रीलंका, रूस, इंग्लैंड, यूरोप, जापान, कोरिया और ईरान जैसे इत्यादि देश शामिल हैं।

इन देशों में जाकर राहुल सांकृत्यायन ने यहां की भाषा को पढ़ा व उसको सही तरह से जाना। जिसकी वजह से ही वो हिंदी, संस्कृत, पाली, भोजपुरी, उर्दू, पर्शियन, अरेबिक, तमिल, कन्नड़, तिब्बतन, सिंहलेसे, फ्रेंच और रशियन भाषाओं में अपनी रचना या साहित्य लिख सके।

मुख्य कृतियाँ

कहानी संग्रह : सतमी के बच्चे, वोल्गा से गंगा, बहुरंगी मधुपुरी, कनैला की कथा।

उपन्यास : बाईसवीं सदी, जीने के लिए, सिंह सेनापति, जय यौधेय, भागोनहीं दुनिया को बदलो, मधुर स्वप्न, राजस्थान निवास, विस्मृत यात्री, दिवोदास।

आत्मकथा : मेरी जीवन यात्रा।

जीवनी : सरदार पृथ्वीसिंह, नए भारत के नए नेता, बचपन की स्मृतियाँ, अतीत से वर्तमान, स्तालिन, लेनिन, कार्ल मार्क्स, माओत्सेतुंग, घुमक्कड़स्वामी, मेरे असहयोग के साथी, जिनका मैं कृतज्ञ, वीर चंद्रसिंह गढ़वाली, सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन, कप्तान लाल, सिंहल के वीर पुरुष, महामानव बुद्ध।

यात्रा साहित्य : लंका, जापान, इरान, किन्नर देश की ओर, चीन में क्यादेखा, मेरी लद्दाख यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा, तिब्बत में सवा वर्ष, रूस मेंपच्चीस मास, घुमक्कड़-शास्त्र।

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राहुल ने यूँ तो बहुत सारी रचनाएँ अलग अलग भाषाओं में की, जिसमें हिन्दी साहित्य ही नहीं बल्कि धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रासाहित्य, राजनीति, इतिहास, जीवनी, कोष और प्राचीन ग्रंथो का संपादन करते हुए अपने जीवन में तमाम उपलब्धियाँ हासिल की, जिसमें पद्म विभूषण और साहित्य अकादमी जैसे अवार्ड्स शामिल हैं।

इनकी मृत्यु दार्जिलिंग में 14 अप्रैल 1963 को हो गयी थी जिसके बावजूद ये आज भी अपनी रचनाओं के जरिए देश विदेश में अपनी मौजूदगी दर्ज कराए हुए हैं।

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