तीन तलाकः जीत मुस्लिम महिलाओं की

Update: 2018-09-25 03:00 GMT

आनन्द उपाध्याय सरस

भारत की सर्वोच्च न्यायायिक संस्था सुप्रीम कोर्ट की वृहद संवैधानिक पीठ के द्वारा उभयपक्षीय गहन सुनवाई के उपरान्त विगत वर्ष गैरकानूनी घोषित किये जा चुके एक साथ तीन तलाक को दण्डनीय अपराध बनाने के लिए अन्ततः केन्द्र सरकार ने अध्यादेश को मंजूरी देकर मुस्लिम महिलाओं के सामाजिक सरोकार को संरक्षण प्रदान करने का दो-टूक फैसला किया है। राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित होने के साथ ही जम्मू-कश्मीर को छोड़कर यह कानून पूरे देश में फौरी तौर पर लागू भी हो गया है।

सरकार ने पूरी संजीदगी के साथ तीन तलाक को दण्डनीय अपराध की श्रेणी में शामिल करने के साथ जहां जबरन और स्वेच्छाचारी तरीके से जब-तब तलाक-तलाक-तलाक कहकर विवाहित पत्नी को उसके हाल पर छोड़ देने वाले मुस्लिम पुरूषों को सचेत करने का प्रयास किया है। वहीं इस कानून में लचीले और व्यवहारिक प्रावधान शामिल कर इसके दुरूपयोग को रोकने का भी पूरी शिद्दत के साथ प्रयास किया है। और तो और मजिस्ट्रेट की सहभागिता में समझौते की गुंजाइश का भी मानवीय पहलू कानून में मौजूद रखा है। यहां कांग्रेस का दोहरा चरित्र एक बार फिर उजागर हुआ।

लोकसभा में देश के सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस ने इसका समर्थन करके मुस्लिम महिलाओं के मानवीय पक्ष को संजीदगी के साथ साझा करने का जतन किया जबकि लोकसभा में पास होने के बाद राज्यसभा के समक्ष इस कानून के मसौदे के पेश होने पर इसी कांग्रेस ने तथाकथित छद्म धर्मनिरपेक्षता और मुस्लिम तुष्टीकरण की अपनी पारम्परिक पृष्ठभूमि के चलते इस कानून को पास कराने से पीछे हट गई।

केन्द्र सरकार के मान-मनौव्वल और कई संशोधनों को शामिल करने पर भी कांग्रेस अपनी वोट बैंक की राजनीति के चलते टस से मस नहीं हुई। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के निषेध के बावजूद पूरे देश में तीन तलाक के प्रकरण में जैसे बाढ़ सी आ गई। उप्र जैसे राज्य में ही यह आंकड़ा 200 से भी ज्यादा पहुंच गया।

मुस्लिम महिलाओं के नागरिक अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने के लिए अन्ततः विपक्षी पार्टियों की हठधर्मिता के कारण भारत सरकार को अध्यादेश का सहारा लेना पड़ा। यह अध्यादेश कानूनी रूप से लागू होने से आगामी छह माह की अवधि तक प्रभावी रहेगा। उल्लेखनीय है कि विश्व के अनेक मुस्लिम राष्ट्रों ने जहॉं तीन तलाक के प्रचलन को उसकी अव्यवहारिकता एवं अमानवीयता के चलते वर्षों पहले त्याग दिया था।

पाकिस्तान जैसे इस्लाम के तथाकथित पैरोकार सहित विश्व के प्रमुख 22 से ज्यादा इस्लामिक पृष्ठभूमि के देशों में वर्षों पहले से ही तीन तलाक जैसे गैर इस्लामिक प्रचलन पर रोक लगाई जा चुकी है। वहीं दूसरी ओर भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली वाले भारत में राजनीतिक दलों के निहित स्वार्थों और मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के दृष्टिगत इस मसले को हल करने की बात तो दूर कभी विचार करने तक की राजनीतिक पहल करने से सर्वथा परहेज रखा गया।

अशिक्षित अथवा कम पढ़ी-लिखी मुस्लिम महिलाएं ही नहीं अपितु सम्भ्रान्त और सुशिक्षित पृष्ठभूमि की महिलाओं को भी भारतीय मुस्लिम समाज में व्याप्त तीन तलाक के इस अमानवीय कृत्य का शिकार होना पड़ा है। तीन तलाक के चलते जहॉं इन प्रभावित मुस्लिम महिलाओं की जिन्दगी नारकीय हो गई वहीं उनके बच्चों को भी इसका खामियाजा उठाना पड़ा।

तीन तलाक जैसा अमानवीय, अव्यवहारिक एवं महिला स्वाभिमान को तिलांजलि देने वाला प्रचलन निश्चय ही एक महिला की जिन्दगी को पूरी तौर पर तबाह करने वाला सामाजिक कृत्य रहा है। तीन तलाक पुरूषवादी एवं नकारात्मक सोच का पर्याय है। तीन तलाक के स्वच्छंदतायुक्त इस कृत्य ने भारतीय समाज में लाखों निरक्षर ही नहीं अपितु शिक्षित और सुप्रतिष्ठित सामाजिक पृष्ठभूमि की मुस्लिम महिलाओं के जिन्दगी में अव्यक्त पीड़ा ही नहीं दी है अपितु इन महिलाओं की जिन्दगी को नारकीय तक बना डाला।

और तो और मासूम बच्चों की जिन्दगी भी तबाह करके रख दी। छोटी-छोटी बातों पर कभी सोशल मीडिया के जरिये तो कभी मोबाइल पर तो कभी राह चलते तलाक-तलाक-तलाक जैसे तीन शब्दों के जरिये एक शादीशुदा महिला को चंद सेकेन्ड के अन्दर उसका सामाजिक पत्नी/बीवी होने का रूतबा बलात छीनकर समाज में एकला, लाचार और मजबूर का तमगा देकर जैसे बरबादी एवं बदहाली के कगार पर छोड़ दिया जाता है।

जबकि दूसरी ओर मर्द सीना फुलाकर फिर किसी नई युवती या महिला से निकाह पढ़ने को तैयार हो जाता है। यदि कदाचित समझाने बुझाने पर तलाक पर पुर्नविचार कर समझौते की सामाजिक पहल भी की जाती है तो फिर कथित हलाला के खौफनाक मंजर से औरत की रूह भीतर ही भीतर कांप उठती है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आने के बाद ही नहीं अपितु बीते दिवस भारत सरकार द्वारा लाये गये अध्यादेश पर राष्ट्रपति जी द्वारा हस्ताक्षर कर दिये जाने के बाद कानूनी शक्ल अख्तियार करने वाले निर्णय के बाद भी इसका स्वागत करने के बजाय भारत के अनेक मुस्लिम धार्मिक हस्तियों, मौलवियों, ओहदेदारों ही नहीं वरन् विविध क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा तीन तलाक को इस्लाम एवं शरीयत का जबरन हिस्सा बताकर बेशर्मी के साथ इसकी पैरवी की जा रही है।

परन्तु यह भी सुखद पहलू है कि आज के परिदृश्य में देश के अनेक मुस्लिम स्कालरों, धर्मगुरूओं, मुस्लिम शैक्षणिक संस्थाओं से जुड़े बुद्धिजीवियों, सामाजिक संगठनों, पत्रकारों के द्वारा पूरी शिद्दत के साथ कठमुल्लाओं की भोथरी सोच के विपरीत जाकर तीन तलाक को समाप्त किए जाने के फैसले का दिल से खैरमकदम किया जा रहा है।

तीन तलाक प्रभावित उन अनगिनत महिलाओं को भी पूरा राष्ट्र सम्मान की दृष्टि से देख रहा है जिन्होंने अनेक सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक अवरोधों की परवाह न करके प्रताड़ना, उलाहना एवं उपेक्षा के बावजूद तीन तलाक के प्रति अपनी लड़ाई को इस मुकाम तक पहुंचाने में कामयाबी हासिल की।

देश के मुस्लिम समुदाय की ऐसी लाखों तलाकशुदा युवतियों/ महिलाओं को भी भारत सरकार के मौजूदा अध्यादेश के लागू होने से निश्चय ही यह सुकून तो मिला ही है कि अब आगे मुस्लिम समाज की निर्दोष शादीशुदा औरतों को उपेक्षित तथा आर्थिक और सामाजिक तबाही भरी जिन्दगी जीने से फौरी निजात हासिल हो सकेगी। मुस्लिम युवतियों में और आत्मविश्वास ही जागृत नहीं होगा वरन् उनमें नया जीवट, स्वाभिमान एवं सामाजिक सरोकार तथा सहभागिता की भावना भी और बलवती हो सकेगी जो कि भारत जैसे देश की आधी आबादी को और सशक्त करने में सहायक सिद्ध होगा।

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