Vote For Note Case: SC ने वोट के बदले नोट केस में 1998 का फैसला पलटा, कहा-सांसदों और विधायकों को छूट नहीं,
Vote For Note Case: 1998 में पांच जजों की संविधान पीठ ने 3:2 के बहुमत से फैसला सुनाया था। इस मुद्दे को लेकर जनप्रतिनिधियों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता मगर अब सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को पलट दिया है।
Vote For Note Case: वोट के बदले नोट मामले में देश की शीर्ष अदालत ने बड़ा फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 1998 का फैसला पलटते हुए कहा कि सांसदों और विधायकों को इस मामले में कोई छूट नहीं दी जा सकती और यह विशेषाधिकार के तहत नहीं आता है।
अब अगर सांसद पैसे लेकर भाषण या वोट देते हैं तो उनके खिलाफ केस चलाया जा सकता है। 1998 में पांच जजों की संविधान पीठ ने 3:2 के बहुमत से फैसला सुनाया था कि इस मुद्दे को लेकर जनप्रतिनिधियों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता मगर अब सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया है।
संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से सुनाया फैसला
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात जजों की संवैधानिक बेंच इस मामले में सुनवाई की। पीठ ने कहा कि वोट के लिए नोट लेने वालों पर केस चलना चाहिए। उल्लेखनीय बात यह है कि सात जजों की संविधान पीठ ने इस मामले में सर्वसम्मति से फैसला सुनाया।
शीर्ष अदालत ने कहा कि वह इस मामले में सांसदों और विधायकों को राहत देने पर सहमत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कानून के संरक्षण में जनप्रतिनिधियों को छूट देने से इनकार कर दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी को भी घूस की छूट नहीं दी जा सकती।
घूसखोरी के मामले में सांसदों को छूट नहीं
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एम एम सुंदरेश, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस पीवी संजय कुमार की पीठ ने यह महत्वपूर्ण फैसला सुनाया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि घूस लेने वाले ने घूस देने वाले के मुताबिक वोट दिया या नहीं। विषेधाधिकार सदन के साझा कामकाज से जुड़े विषय के लिए है। अदालत ने कहा कि वोट के लिए रिश्वत लेना विधायी काम का हिस्सा नहीं है।
अदालत ने अनुच्छेद 105 का हवाला देते हुए कहा कि घूसखोरी के मामले में सांसदों को किसी भी प्रकार की राहत नहीं दी जा सकती। 1993 में नरसिंम्हा राव सरकार के समर्थन में वोट देने के लिए सांसदों को घूस दिए जाने का आरोप लगा था।
आम नागरिकों की तरह चलेगा मुकदमा
इस मामले को लेकर पांच जजों की बेंच ने 1998 में 3:2 के बहुमत से फैसला सुनाया था कि संसद में सांसद जो भी कार्य करते हैं,वह उनके विशेषाधिकार में आता है। 1998 के फैसले में संवैधानिक बेंच ने कहा था कि संसद में यदि कोई कार्य होता है तो यह सांसदों का विशेषाधिकार है और इस मामले में उन पर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। लेकिन अब उस राहत को कोर्ट ने नए फैसले से वापस ले लिया है।
अब शीर्ष अदालत ने विशेषाधिकार की उस परिभाषा को ही बदल दिया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 105 आम नागरिकों की तरह सांसदों और विधायकों को भी रिश्वतखोरी की छूट नहीं देता है। इस फैसले के अनुसार यदि सांसद वोट के बदले घूस लेते हैं तो उनके खिलाफ आम नागरिकों की तरह मुकदमा चलेगा। संसद में सवाल पूछने के लिए घूस लेने पर भी उन्हें मुकदमे का सामना करना पड़ेगा।
ईमानदारी खत्म कर देती है रिश्वतखोरी
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सीधा असर झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) की सीता सोरेन पर पड़ेगा। उन्होंने विधायक रहते रिश्वत लेकर 2012 के राज्यसभा चुनाव में वोट डालने के मामले में राहत मांगी थी। सांसदों को अनुच्छेद 105(2) और विधायकों को 194(2) के तहत सदन के अंदर की गतिविधि के लिए मुकदमे से छूट हासिल है। हालांकि अब कोर्ट ने साफ किया कि रिश्वत लेने के मामले में यह छूट नहीं मिल सकती है।
बेंच ने कहा कि विधायिका के किसी सदस्य की ओर से किया गया भ्रष्टाचार या रिश्वतखोरी सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को खत्म कर देती है। चीफ जस्टिस ने कहा कि हमने विवाद के सभी पहलुओं पर स्वतंत्र रूप से फैसला किया है।
पैसे लेकर सवाल पूछना जहर की तरह
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में जानकारी देते हुए वरिष्ठ एडवोकेट अश्वनी उपाध्याय ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की बेंच ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने इस दौरान पुराने फैसले को भी पलट दिया है। कोर्ट ने साफ किया कि कोई भी विधायक अगर रुपए लेकर सवाल पूछता है या रुपए लेकर किसी को वोट करता है तो ऐसी स्थिति में उसे कोई संरक्षण नहीं मिलेगा। उसके खिलाफ भ्रष्टाचार का मुकदमा चलेगा।
उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पैसे लेकर सवाल पूछना संसदीय लोकतंत्र के लिए जहर और कैंसर की तरह है और इसे रोका जाना बहुत जरूरी है। अब पैसे लेकर संसद में कुछ भी करने की छूट नहीं होगी बल्कि मुकदमे का सामना करना पड़ेगा।