Mahakumbh 2025: महानिर्वाणी अखाड़े में शामिल नागा साधुओं की क्या होती है जीवन शैली, कैसे बनते हैं ये श्रीपंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के सदस्य

Mahakumbh 2025: हर अखाड़े में सदस्य बनने के लिए योग्यता के नियम कायदे अलग-अलग हैं। श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े में शामिल करने से पहले सभी की पूरी तरह से जांच पड़ताल की जाती है।

Written By :  Jyotsna Singh
Update:2024-11-14 16:29 IST

 Naga Sadhus (social media)

Mahakumbh 2025: मोक्ष प्राप्ति और पापों से मुक्ति की इच्छा के साथ गंगा में डुबकी लगाने को आतुर साधु संत और चिता की भस्म लपेटे नागा साधुओं के विशाल हुजूम के बीच लाखों हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ कुंभ मेले को एक अदभुत दिव्यता प्रदान करती है। आदि काल से चली आ रहीं कई मान्यताओं के चलते हिंदू धर्म में कुंभ स्नान का बहुत अधिक महत्व है।

कुंभ मेले के दौरान गंगा में स्नान करने का विशेष महत्व खासतौर से साधु संतों के बीच देखने को मिलता है। जो अलग अलग पद्वति से चलने वाले अखाड़ों से संबंध रखते हैं।अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद की ओर से देश के 13 अखाड़ों को मान्यता प्राप्त है। अखाड़ा परिषद द्वारा मान्यता प्राप्त 13 अखाड़ों को शैव, वैष्णव और उदासीन पंथ के संन्यासियों के बीच विभाजित किया गया है। कुंभ और अर्धकुंभ में स्नान के लिए अखाड़ों को विशेष सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। इस दौरान इनके नहाने के लिए विशेष प्रबंध होते हैं। सरकार की ओर से किए जाने वाले विशेष प्रबंध के चलते इन अखाड़ों को तमाम सहूलियतें भी दी जाती हैं। वर्ष 1954 में स्थापित हुए अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद द्वारा सभी अखाड़ों के कुंभ व अर्धकुंभ में स्नान का वक्त और उनकी जिम्मेदारी तय करता है, जिसका पालन ये सारे अखाड़े करते हैं।

मान्यता है कि आदि गुरू शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों (बद्रीनाथ, रामेश्वरम, जगन्नाथ पुरी, द्वारिका पीठ) में धर्म की स्थापना के लिए मठ स्थापित किये थे। इन्हीं मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। शंकराचार्य का सुझाव था कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की सुरक्षा के लिए जरूरत पड़ने पर शक्ति का इस्तेमाल किया जा सकता है। तभी से मठों में साधु कसरत कर शरीर को सुदृढ़ बनाते हैं और हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी लेते हैं। ये सभी अखाड़े तीन मतों में बंटे हैं। यही अखाड़े हिंदू धर्म से जुड़े रीति-रिवाजों और त्योहारों का आयोजन करते रहते हैं। कुंभ और अर्धकुंभ के आयोजन में इन अखाड़ों की खास भूमिका होती है।

हम सबसे पहले शैवपंथ से जुड़े अखाड़े श्रीपंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करेंगे.....

शैव धर्म का इतिहास

शैव धर्म का प्रचलन प्राचीन काल से है, जिसका सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद और बाद में उपनिषदों में मिलता है। शिव की पूजा मूल रूप से प्रकृति और प्राकृतिक घटनाओं जैसे तूफान, बाढ़ और आग से जुड़े देवता के रूप में की जाती थी। समय के साथ, उनकी भूमिका का विस्तार सृजन, संरक्षण और विनाश के कार्यों को शामिल करने के लिए हुआ। गुप्त साम्राज्य (320 से 550 ई.) के दौरान, शैव धर्म फला-फूला और अधिक व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त हुआ। हालाँकि, गुप्त राजाओं में से कई वैष्णव भक्त थे, जिसने संभवतः शैव धर्म को बहुसंख्यक अपनाने से रोक दिया था। गुप्तोत्तर काल में यह बदलना शुरू हुआ, क्योंकि शैव धर्म को अधिक प्रमुखता मिली और अंततः यह भारत में प्राथमिक हिंदू परंपराओं में से एक बन गया।

शैव धर्म हिंदू धर्म का एक प्राचीन रूप है जो भगवान शिव की पूजा और वंदना पर केंद्रित है। यह शब्द संस्कृत शब्द शिव से लिया गया है, जिसका अर्थ विनाश और परिवर्तन के देवता से है। शैव वे भक्त हैं, जो शिव को सर्वोच्च देवता मानते हैं, उनका मानना ​​है कि वे अंततः सृजन, संरक्षण और विनाश के लिए जिम्मेदार हैं।

इस प्रकार शिव और उनके अवतारों को मानने वाले शैव कहे जाते हैं। इनमें शाक्त, नाथ, दशनामी, नाग जैसे उप संप्रदाय हैं। ये शैववाद और शक्तिवाद हिंदू धर्म के दो रूपों के रूप में गहराई से जुड़े हुए हैं। शक्तिवाद देवी, शक्ति या देवी की पूजा पर केंद्रित है। कई लोग शिव और शक्ति को एक पूरे के दो पहलू, पूरक ऊर्जा के रूप में देखते हैं।

शैव पंथी शिव पर केंद्रित जीवन जीकर जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने का प्रयास करते हैं। शिव की नियमित पूजा और उन्हें समर्पित मंत्रों और भजनों का जाप इस विश्वास प्रणाली में सिखाई जाने वाली मुख्य प्रथाओं का हिस्सा है, जो आज भी पूरे भारत, नेपाल और श्रीलंका में प्रचलित है - कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में कई बड़े और प्राचीन शिव-समर्पित मंदिर हैं।

लगभग 5 लाख साधु-संन्यासियों की फौज से सुसज्जित शैव संन्यासी संप्रदाय का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। शैव संन्यासी संप्रदाय के बहुत सारे अखाड़े या कहें की मठ और मड़ियां हैं। उनमें से प्रमुख सात की संक्षिप्त जानकारी। यह सभी दसनामी संप्रदाय के अंतर्गत ही आते हैं। वैष्णव और उदासीन संप्रदाय के अलग अखाड़े हैं।

इन अखाड़ों का बहुत प्राचीन इतिहास रहा है। समय-समय पर इनका स्वरूप और उद्देश्य बदलता रहा है। अखाड़ों का आज जो स्वरूप है उस रूप में पहला अखाड़ा ‘अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई. में सामने आया। इसका मुख्य कार्यालय काशी में है और शाखाएं सभी कुम्भ तीर्थों पर हैं।

शैव संन्यासी संप्रदाय के पास सात अखाड़े हैं

1- श्रीपंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी- इसका मठ दारागंज , प्रयाग इलाहाबाद में स्थित है। इस अखाड़ा के संत है - श्रीमहंत योगेन्द्र गिरी और श्रीमहंत जगदीश पुरीजी।

2- श्रीपंच अटल अखाड़ा - इसका मठ चक्र हनुमान, खाटूपुरा, काशी, वाराणसी में स्थित है। इस अखाड़ा के संत है- श्रीमहंत उदय गिरी और श्रीमहंत सनातन भारती

3- श्रीपंचायती अखाड़ा

निरंजनी- इसका मठ 47/44 मोरी, दारागंज , प्रयाग इलाहाबाद में स्थित है। इस अखाड़े के संत है- श्रीमहंत रामानन्द पुरी और श्रीमहंत नरेन्द्र गिरी।

4- तपोनिधि आनन्द अखाड़ा पंचायती- इसके दो मठ हैं । पहला स्वामी सागरनन्द आश्रम, त्रयंबकेश्वर, दूसरा श्रीसूर्य नारायण मन्दिर त्र्यंम्बकेश्वर जिला- नासिक, महाराष्ट्र में स्थित है। इस मठ के संत है- श्रीमहंत शंकरानन्द सरस्वती और श्रीमहंत धनराज गिरी।

5- श्रीपंचदसनाम जूना अखाड़ा - इसका मठ भारा हनुमान घाट, काशी वाराणसी में स्थित है। इस मठ के संत है- श्रीमहंत विद्यानन्द सरस्वती और श्रीमहंत प्रेम गिरी।

6- श्रीपंचदसनाम आह्वान अखाड़ा - इसका मठ डी-17/122 दशाश्वमेघ घाट, काशी वाराणसी में स्थित है। इस मठ के संत है- श्रीमहंत कैलाश पुरी और श्रीमंहत सत्या गिरी।

7- श्रीपंचदसनाम पंचागनी अखाड़ा- इसका मठ तलहटी गिरनार, पोस्ट- भावनाथ, जिला- जूनागढ़ गुजरात में स्थित है। इस मठ के संत हैं- श्रीमहंत अच्युतानन्दजी ब्रह्माचारी। दूसरा मठ सिद्ध काली पीठ गंगा पार काली मन्दिर हरिद्वार, उत्तराखंड में स्थित है जिसके संत है- श्रीमहंत कैलाश नन्दजी ब्रह्मचारी।

शैव संन्यासियों से जुड़ी कुछ खास बातें

  • शैव संन्यासी, भगवान शिव को ईश्वर मानकर उनकी आराधना करते हैं।
  • शैव संन्यासियों को नाथ, नागा, अघोरी, अवधूत, बाबा, औघड़, योगी, सिद्ध जैसे नामों से जाना जाता है।
  • शैव संन्यासी भगवा या सफ़ेद वस्त्र पहनते हैं।
  • शैव संन्यासी सिर मुंडाते हैं। लेकिन चोटी नहीं रखते।
  • शैव संन्यासी भभूति और चंदन का तिलक लगाते हैं और रुद्राक्ष की माला पहनते हैं।
  • शैव संन्यासी चंद्रमा पर आधारित व्रत-उपवास करते हैं।
  • शैव संन्यासियों की समाधि देने की परंपरा है।
  • शैव संन्यासी शिवालयों में पूजा करते हैं।
  • शैव संन्यासी तपस्वी जीवन जीते हैं और योग पर ज़ोर देते हैं।
  • शैव संन्यासी अपने भीतर शिव की खोज करते हैं और उनके साथ एक होने की कोशिश करते हैं।

शैव धर्म कहां प्रचलित है?

हिंदू धर्म की एक प्रमुख परंपरा के रूप में, शैव धर्म दुनिया भर के उन क्षेत्रों में प्रचलित है जहाँ हिंदू धर्म की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। शैव लोग शिव पर केंद्रित जीवन जीकर जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने का प्रयास करते हैं। शिव की नियमित पूजा और उन्हें समर्पित मंत्रों और भजनों का जाप इस विश्वास प्रणाली में सिखाई जाने वाली मुख्य प्रथाओं का हिस्सा है, जो आज भी पूरे भारत, नेपाल और श्रीलंका में प्रचलित है - कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में कई बड़े और प्राचीन शिव-समर्पित मंदिर हैं। हालाँकि, शैवों की बहुलता भारत, नेपाल और श्रीलंका के द्वीप में पाई जाती है।

शैव धर्म की मान्यताएं क्या हैं?

अपने कई संप्रदायों और परंपराओं के कारण, शैव धर्म के भीतर कई तरह की मान्यताएँ हैं। आम तौर पर, शैव लोग सर्वोच्च हिंदू भगवान शिव की शक्ति और उनकी दिव्य कृपा को दुखों से मुक्ति का मार्ग मानते हैं।

शैव धर्म के पहले अखाड़े महानिर्वाणी अखाड़ा प्रयागराज का इतिहास

महानिर्वाणी अखाड़ा की स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने प्रयागराज में की थी। यह सबसे बड़े अखाड़ों में से एक है और इसका मुख्यालय प्रयागराज में है । इसे औपचारिक रूप से 1860 ई. में श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणि के रूप में पंजीकृत किया गया था। यद्यपि परम्परा के अनुसार महानिर्वाणी अखाड़े की विरासत दस हजार वर्ष पुरानी है, किन्तु औपचारिक रूप से इसका संगठन 748 ई. में हुआ था।

उस वर्ष अटल अखाड़े के सात साधुओं के एक समूह ने गंगासागर नामक स्थान पर तपस्या की । उन्हें संत कपिल महामुनि के दर्शन (दिव्य दर्शन) की प्राप्ति हुई। उनके आशीर्वाद से, उन्होंने हरिद्वार में नील धारा के पास एक आधिकारिक नाम - महानिर्वाणी अखाड़ा - के साथ नागा परंपरा को पुनर्जीवित किया । आज भी , महानिर्वाणी अखाड़े के मुख्य देवता (उपास्यदेव) महान संत कपिल महामुनि हैं।

यह नागा साधुओं और संन्यासियों का अखाड़ा है। कपिल मुनि महानिर्वाणि अखाड़े के संरक्षक देवता हैं। नागा संन्यासी का इतिहास बहुत पुराना है। नागा संन्यासी की परंपरा बहुत पुरानी है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में पशुपति की नग्न अवस्था में बैठी मूर्ति मिली है। वैदिक साहित्य में भी जटाधारी और शरीर पर भस्म लगाए अर्धनग्न भगवान शिव का उल्लेख मिलता है। इससे प्रागैतिहासिक काल में नागाओं की उत्पत्ति की व्याख्या होती है। जब भी सनातन धर्म और हिंदू परंपराओं पर संकट आया, अखाड़ों के नागा साधुओं ने इसका डटकर मुकाबला किया। अपने तप और रणनीति से इन योद्धा साधुओं ने खुद को बलिदान देकर धार्मिक विरासत और मान्यताओं की रक्षा की।

महानिर्वाणी अखाड़े का मुख्यालय प्रयागराज के दारागंज मोहल्ले में है वहीं इसकी मुख्य शाखाएं ओंकारेश्वर ( मध्य प्रदेश ), हरिद्वार ( उत्तराखंड ) में कनखल , कुरुक्षेत्र (हरियाणा), नासिक ( महाराष्ट्र ), उदयपुर ( राजस्थान ), ज्वालामुखी ( हिमाचल प्रदेश ), वाराणसी ( उत्तर प्रदेश ) आदि में हैं।

सनातन धर्म की रक्षा हेतु इस अखाड़े की रही युद्धों में खास भूमिका

मुगल काल में अखाड़ों से समय-समय पर देश पर हो रहे हमलों से रक्षा के लिए राजाओं ने भी मदद ली और कई युद्ध जीते हैं। जब बर्बर मुगल शासक औरंगजेब ने कुंभ मेले के आयोजन और उससे संबंधित पवित्र स्नान तथा आध्यात्मिक शांति के लिए हिंदू श्रद्धालुओं के एकत्र होने के अनुष्ठानों को रोकने की कोशिश की, तो महानिर्वाणी अखाड़े के नागा साधुओं ने अन्य अखाड़ों के साधुओं को पर्व ध्वज के अधीन लाकर भयंकर युद्ध जीता।कहा जाता है कि जिस वक्त अखाड़े की स्थापना की गयी थी, उस समय में सनातन धर्म पर लगातार हमले हो रहे थे। तब अखाड़ों ने ही सनातन धर्म के साथ हिंदुओं की रक्षा के लिए कई युद्ध लड़े और जीते थे। अखाड़ों की ही देन है कि आज देश में सनातन धर्म के साथ ही हिंदू सुरक्षित बचे हुए हैं।

शास्त्र के साथ शस्त्र चलाने की भी मिलती है शिक्षा

महानिर्वाणी अखाड़े में साधुओं को आवश्यकता पड़ने पर शास्त्र के साथ ही शस्त्र चलाने का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। जिनका इस्तेमाल सनातन धर्म की रक्षा के लिए जरूरत पड़ने पर किया जाता है। सदियों पहले अखाड़ों का गठन सनातन धर्म की रक्षा करने के लिए ही किया गया था। आधुनिकता की ओर बढ़ते समय में सनातन धर्म को सुदृढ़ रखने के लिए आज भी अखाड़े सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार कर इसे विस्तार डेढ़ का कार्य कर रहे हैं। आज अखाड़ों की तरफ से देश भर में वेद और शास्त्रों की शिक्षा देकर लोगों को सनातन धर्म से जोड़ने के लिए निरंतर से प्रयास किए जा रहें हैं।

भालों को स्नान कराने की है परम्परा

महानिर्वाणी अखाड़े की सबसे महत्वपूर्ण परम्पर भालों को स्नान कराया जाना है।

इन स्नानशक्ति स्वरूप भाले का नाम भैरव प्रकाश और सूर्य प्रकाश है। दोनों ही भाले शक्ति के स्वरूप माने जाते हैं और अखाड़े में इनको मंदिर के अंदर इष्ट देव के पास रखा जाता है। इष्ट देव के साथ ही शक्ति स्वरूप दोनों भालों की भी पूजा की जाती है। कुम्भ मेले के दौरान शाही स्नान की यात्रा में सबसे आगे अखाड़े के दो संत इन शक्ति स्वरूप भालों को लेकर चलते हैं।

इनके भोजन में सात्विकता का है खास महत्व

श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े में भोजन में सात्विकता का है खास महत्व है। यहां आज भी भंडारे के अंदर खाना बनाने के लिए गैस चूल्हे की जगह मिट्टी के बने चूल्हों का इस्तेमाल किया जाता है। प्राकृतिक साधनों का इस्तेमाल इनके पंथ की खास पहचान है। इस अखाड़े की गोशाला की गायों के गोबर से बने कंडे और सूखी लकड़ी के इस्तेमाल से चूल्हे में साधु-संतों के लिए पूरी शुद्धता का ध्यान रखते हुए भोजन बनाया जाता है। अखाड़े में भंडारे के अंदर साधु-संतों की निगरानी में शुद्ध, सात्विक और पौष्टिक भोजन तैयार किया जाता है। अखाड़े के अंदर गोशाला का ताजा दूध, दही और घी इनके भोजन का मुख्य हिस्सा होता है। अखाड़े के साधु संत समय-समय पर जाकर गायों की साफ सफाई और उनको हरा चारा और अनाज खिलाकर गोसेवा भी करते हैं। साधु संतों के लिए अखाड़े में औषधीय पौधों के साथ ही फल और फूल देने वाले वृक्ष भी लगाए जाते हैं। जिनकी देखभाल भी खुद अखाड़े के सदस्यों द्वारा ही किया जाता है। वैदिक साहित्य में भी जटाधारी और शरीर पर भस्म लगाए अर्धनग्न भगवान शिव का उल्लेख मिलता है। इससे प्रागैतिहासिक काल में नागाओं की उत्पत्ति की व्याख्या होती है।श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े का सदस्य बनने के कई सख्त नियम हैं। श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी में नागा संन्यासी बनाए जाते हैं। सबसे पहले नागा संन्यासियों को ब्रह्मचारी की दीक्षा दी जाती है। लंबे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है, फिर उसे महापुरुष तथा फिर अवधूत बनाया जाता है।नागा संन्यासी कुंभ के शाही स्नानों में शामिल होते हैं।गंगा तट पर पहले ब्रह्मचारियों का यज्ञोपवीत संस्कार कराया गया। गंगा स्नान के बाद भस्म लगाई गई और सात पीढ़ी का श्राद्ध कराए जाने के बाद फिर खुद का पिंडदान कराया गया। गंगा तट पर प्रक्रिया पूरी होने के बाद दंड धारण कराया गया।

इसे बिजवान कहा जाता है। अंतिम परीक्षा दिगंबर और फिर श्रीदिगंबर की होती है। दिगंबर नागा एक लंगोटी धारण कर सकता है, लेकिन श्रीदिगंबर को बगैर कपड़े के रहना होता है।

हर अखाड़े में सदस्य बनने के लिए योग्यता के नियम कायदे अलग-अलग हैं। श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े में शामिल करने से पहले सभी की पूरी तरह से जांच पड़ताल की जाती है। उसके बाद ही किसी को अखाड़े का सदस्य बनाया जाता है। वहीं अखाड़े में किसी भी पद की जिम्मेदारी संभालने के लिए लोकतांत्रिक तरीके से चयन प्रक्रिया की जाती है। हर पद की जिम्मेदारी संभालने के लिए योग्य पदाधिकारी का चयन किया जाता है।

कुंभ में ही बनाए जाते हैं नागा साधु

चार जगह लगने वाले कुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े का सदस्य बनने के लिए नागा साधु बनाए जाते हैं और हर जगह के अनुसार इन नागा साधुओं को अलग-अलग नाम दिए जाते हैं । प्रयागराज के कुंभ में नागा साधु बनने वाले को नागा, उज्जैन में बनने वाले को खूनी नागा, हरिद्वार में बनने वाले को बर्फानी नागा तथा नासिक में बनने वाले को खिचड़िया नागा कहा जाता है। नागा में दीक्षा लेने के बाद साधुओं को उनकी वरीयता के आधार पर पद भी दिए जाते हैं। इनमें कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोतवाल,भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव के पद होते हैं। इनमें सबसे बड़ा और अहम पद सचिव का होता है।

नागा अखाड़े के आश्रम और मंदिरों में रहते हैं। कुछ तप के लिए हिमालय या ऊंचे पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं । महानिर्वाणी अखाड़े के आदेशानुसार यह पैदल भ्रमण भी करते हैं। इसी दौरान किसी गांव की मेड़ पर झोपड़ी बनाकर धुनी भी रमाते हैं।

स्वभाव से बेहद क्रोधी होते हैं नागा साधु

नागा साधु आम जीवन से दूर और कठोर अनुशासन में रहते हैं। इन्हें गुस्से वाला माना जाता है । लेकिन वास्तविकता यह है कि ये किसी को नुकसान नही पहुंचाते। नागा संतों को कोई उकसाता है या परेशान करता है तो ये क्रोधित हो जाते हैं। नागा साधु शिव और अग्नि के भक्त माने जाते हैं। सामान्य तौर पर इनका सामान्य जनजीवन से कोई लेना-देना नहीं होता है। महानिर्वाणी अखाड़े में शामिल नागा साधु अधिकांश पुरुष ही होते हैं । लेकिन अब कुछ महिलाएं भी नागा साधु बनने लगी हैं। लेकिन वे नग्न नहीं रहतीं बल्कि भगवा वस्त्र धारण करती हैं।

क्यों कहते हैं नागा साधुओं को दिगंबर

महानिर्वाणी अखाड़े में शामिल शिव उपासक नागाओं को कोई कपड़ा न पहनने के कारण दिगंबर भी कहा जाता है। दिगंबर का मतलब जो आकाश को ही अपना वस्त्र मानते हों। कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर धूनी की राख लपेटे नागा साधु कुंभ मेले में शाही स्नान के समय ही खुलकर सामने आते हैं और शाही स्नान के समय अपनी-अपनी मंडली के साथ आचार्य, महामंडलेश्वर , श्रीमहंत के रथों की अगुवाई करते हुए शाही स्नान कर पुण्य प्राप्त करते हैं।

नागाओं में हैं योग का बहुत बड़ा महत्व

नागाओं की अनोखी जीवन शैली ना सिर्फ भारतीय बल्कि विदेशियों को भी प्रभावित करती है। अलौकिक शक्ति के ओज से दिव्यता धारण किए इन नागा साधुओं को जानने और करीब से देखने की चाह खासतौर से लोगों के भीतर नजर आती है। नागा साधुओं में योग का बहुत बड़ा महत्व है। ठंड से बचने के लिए नागा साधु योग करते हैं। अपने विचार और खानपान, दोनों में ही नागा साधु संयम रखते हैं। महानिर्वाणी अखाड़े में शामिल ये नागा साधु एक तरह से सैन्य पंथ है यानी युद्ध करने वाला और वे एक सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटकर रहते हैं और अपने त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम से इस दर्जे को दर्शाते भी हैं। नागा साधु गुरु की सेवा, आश्रम का कार्य, प्रार्थना, तपस्या और योग क्रियाएं करते है। नागा साधु सुबह चार बजे उठकर नित्य क्रिया व स्नान के बाद पहला काम शृंगार का करते हैं। इसके बाद हवन, ध्यान, बज्रोली, प्राणायाम, कपाल क्रिया व नौली क्रिया करते हैं। पूरे दिन में एक बार शाम को भोजन करते हैं। ऐसा माना जाता है कि नाग, नाथ और नागा परंपरा गुरु दत्तात्रेय की परंपरा की शाखाएं हैं। नवनाथ की परंपरा को सिद्धों की बहुत ही महत्वपूर्ण परंपरा माना जाता है। गुरु मत्स्येंद्र नाथ, गुरु गोरखनाथ, साईनाथ बाबा, गजानन महाराज, कनीफनाथ, बाबा रामदेव, तेजाजी महाराज, चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि घुमक्कड़ी नाथों में ज्यादा रही। नागा साधु कुंभ के अवसर पर ही दिखाई देते हैं। कुंभ मेले में नागा साधुओं को लेकर खास आकर्षण रहता है।


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