केरल में राजनीतिक हत्याएं: खून-खराबे से सना यहां का चुनावी इतिहास, आइये जाने सबसे शिक्षित राज्य का हाल ऐसा क्यों है

Kerala News: केरल का चुनावी इतिहास राजनीतिक हत्याओं और खून-खराबे से सना हुआ है। कांग्रेस, लेफ्ट पार्टियां और बीजेपी कोई भी दल हिंसा में पीछे नहीं है।

Written By :  Neel Mani Lal
Published By :  Vidushi Mishra
Update: 2021-12-20 13:16 GMT

 केरल में राजनीतिक हत्याएं (फोटो- सोशल मीडिया)

Kerala News: भारत के सबसे साक्षर राज्य केरल का चुनावी इतिहास राजनीतिक हत्याओं और खून-खराबे से सना हुआ है। कांग्रेस, लेफ्ट पार्टियां और बीजेपी कोई भी दल हिंसा में पीछे नहीं है। अब तो मारे गए कार्यकर्ताओं को पार्टियां शहीद तक बताने लगी हैं।राजनीतिक दुश्मनी के चलते मारे गए लोगों के लिए गांवों में स्मारक भी बने हुए हैं।

वर्चस्व की इस लड़ाई के चलते अब गांव के गांव किसी एक दल के वफादार बन गए हैं। आपसी प्रतिद्वंदियों के बीच हिंसा आम हो बात हो गई है। यहां होने वाली आपसी लड़ाई का भी हर पक्ष हिसाब किताब रखता है, जो बताता है कि कब कौन जीता और कौन हारा।

केरल में राजनीतिक हत्याएं

राज्य में जो राजनीतिक हत्याएं (Kerala Mein Rajnitik Hatyaen) हुई हैं, उनमें आरएसएस और सीपीएम के कार्यकर्ता करीब बराबर की संख्या में मारे गए हैं। आज तक इन हत्याओं की संस्थागत रूप से ना जांच हो पाई है और ना किसी को सजा दी गई है। 2009 में एसडीपीआई की स्थापना के बाद इस पार्टी के कार्यकर्ता भी इस हिंसा की जद में आने लगे। बाद में उन पर भी इस हिंसा में शामिल होने के आरोप लगने लगे।

2014 में केरल सरकार ने केरल हाई कोर्ट को एक हलफनामे में बताया था कि पीएफआई और उससे जुड़े एक और संगठन एनडीएफ के कार्यकर्ताओं को 27 हत्याओं, 86 हत्या की कोशिश के मामलों और सांप्रदायिक हिंसा के 106 दूसरे मामलों में शामिल पाया गया।

1948 में पहली घटना

केरल में राजनीतिक हिंसा की पहली घटना 1948 में हुई जब आरएसएस के सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर तिरूवनतंपुरम में एक सभा को संबोधित कर रहे थे और उन पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (तब तक कम्युनिट पार्टी अविभाजित थी) के कार्यकर्ताओं ने हमला कर संभा को भंग करने का प्रयास किया।

इसके बाद 1952 में अलापुझा में गोलवलकर की ही एक और सभा पर कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने हमला किया। जल्द ही राज्य के थ्रिसूर, कोट्टायम, एरनाकुलम व पलक्कड़ जिलों में आरएसएस कार्यकर्ताओं पर हमले होने लगे।

फोटो- सोशल मीडिया

वैसे कुछ जानकारों के मुताबिक केरल में हिंसा सबसे पहले कांग्रेस पार्टी ने शुरू की थी। कांग्रेस ने विरोधी खेमों के आंदोलनों को दबाने के लिए वही रणनीति अपनाई, जो स्वतंत्रता के पहले ब्रिटिश शासन अपनाता था। इस के जवाब में कम्युनिस्ट भी उग्र हो गए। अब यह विरोधी विचारधाराओं के लिए वर्चस्व स्थापित करने का मुद्दा बन गया है।

हिंदुओं के समर्थन का मसला

वामपंथियों और बीजेपी या आरएसएस के बीच मुख्य झगड़ा हिंदुओं के समर्थन को लेकर है। यहां हिंदुओं की आबादी 52 फीसदी के आसपास है , जबकि 27 फीसदी मुस्लिम और 18 फीसदी ईसाई आबादी है। अभी तक जहां कम्युनिस्टों को हिंदुओं का वोट मिलता रहा है, वहीं कांग्रेस की पैठ मुस्लिम और ईसाइयों को बीच रही है। सीपीएम को हिंदू पार्टी माना जाता रहा है । लेकिन जब उनको बीजेपी और संघ से गंभीर चुनौती मिलना शुरू हुई तो कम्युनिस्टों में दिक्कत बढ़ गई।

केरल के मौजूदा मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन कन्नूर जिले से चुनकर आते हैं जहां 40 सालों से कम्युनिस्टों और संघ कार्यकर्ताओं के बीच खूनी संघर्ष चल रहा है। संघ का आरोप है कि विजयन ने कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को हिंसा फैलाने की खुली छूट दे रखी है।

कन्नूर में राजनीतिक हिंसा से अब तक करीब 300 लोगों की जान जा चुकी है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर लोग घायल हुए हैं कई लोग हमेशा के लिए विकलांग हो गए हैं।

संघ की ताकत

केरल में संघ की काफी मज़बूत मौजूदगी है। कहा जाता है कि केरल में ही संघ की सबसे ज्यादा शाखाएं हैं। पूरे राज्य में संघ की 5500 शाखाएं है, गांव-गांव में संघ के कार्यकर्ता हैं। इसके बावजूद बीजेपी को चुनावी फायदा नहीं मिलता था। लेकिन 2014 के लोकसभा और 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 16 फीसदी तक बढ़ गया।

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