इलाहाबाद : एससी-एसटी एक्ट में आदेश या फैसले के खिलाफ यदि निर्धारित समय के भीतर पीड़ित या आरोपी अपील नहीं दाखिल कर पाता तो क्या हाईकोर्ट को देरी से दाखिल अपील को सुनने का अधिकार है या नहीं ? इस मुद्दे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ सुनवाई कर रही है। अगली सुनवाई 19 सितंबर को होगी।
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याचीगण की तरफ से मुख्य न्यायाधीश डी.बी. भोसले, न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा तथा न्यायमूर्ति यशवन्त वर्मा के समक्ष तर्क दिया गया कि विशेष कानून से वादकारी के संवैधानिक अधिकार खत्म नहीं होंगे। विशेष कानून में किसी आदेश निर्णय के खिलाफ 90 दिन में अपील करने और इसके बाद कोर्ट को अगले 90 दिन के भीतर दाखिले में देरी से माफी देकर अपील सुनने का अधिकार दिया गया है। यदि कोई पक्ष 180 दिन में अपील नहीं कर पाता तो क्या उसके लिए न्याय का कोई फोरम उपलब्ध है या नहीं।
याची का कहना है कि विशेष कानून के प्रतिबंध के बावजूद वादकारी को अनुच्छेद 226, 227 व धारा 482 के तहत याचिका दाखिल करने का अधिकार है। कोर्ट में यह भी तर्क दिया गया कि 180 दिन बाद कोई फोरम न देना अनुच्छेद 21 के तहत उचित न्यायिक कार्यवाही के अधिकार से वंचित करना है।
यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 13(1) के तहत यदि कोई कानून किसी कानून के उपबंधों का विरोधाभाषी है तो वह असंवैधानिक होगा। दंड प्रक्रिया संहिता के तहत अन्तर्वर्ती आदेश के खिलाफ पुनरीक्षण वर्जित किया गया है। ऐसे में विशेष कानून में जमानत के अन्तर्वर्ती आदेश के खिलाफ अपील का अधिकार देना विधि विरूद्ध है। राज्य सरकार की तरफ से कहा गया कि अपील में कोर्ट अन्तरिम जमानत दे सकती है। विशेष कानून अनुच्छेद 17 के अंतर्गत अनुच्छेद 21 के स्पीडी ट्रामर के मूल अधिकार को लागू करने के लिए विचारण अवधि तय कर बनाया गया है। यह व्यवस्था संविधान के अधिकारों को लागू करने के लिए की गयी है।
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कोर्ट ने सवाल उठाया कि यदि कोई आरोपी अपील नहीं करता और शेष सह आरोपी की अपील मंजूर होती है तो जिसने अपील नहीं की है, सजा का आदेश रद्द होने का लाभ उसे नहीं मिलेगा। यदि फर्जी केस है और अपील 180 दिन में नहीं होती तो आरोपी अनिश्चित काल तक जेल में रहेगा या बाद में कोर्ट को उसके जीवन के अधिकार के तहत अपील या याचिका की सुनवाई का अधिकार नहीं है। सुनवाई जारी है।