जजों की बगावत : डैमेज कंट्रोल -कोई उपाय नहीं मोदी सरकार के पास
सुप्रीम कोर्ट के चार जजों द्वारा प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ खुली बगावत करने के बाद अब मोदी सरकार के पास आसन्न हालात में डैमेज कंट्रोल के अलावा कोई उपाय नहीं है। मोदी सरकार के प्रवक्ता भले ही शुक्रवार को चार जजों के धमाकेदार बयानबाजी के बाद उत्पन्न हालात पर अपने हाथ पीछे खींच रही है लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि पूरी सरकार मौजूदा हालात
उमाकांत लखेड़ा
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के चार जजों द्वारा प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ खुली बगावत करने के बाद अब मोदी सरकार के पास आसन्न हालात में डैमेज कंट्रोल के अलावा कोई उपाय नहीं है। मोदी सरकार के प्रवक्ता भले ही शुक्रवार को चार जजों के धमाकेदार बयानबाजी के बाद उत्पन्न हालात पर अपने हाथ पीछे खींच रही है लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि पूरी सरकार मौजूदा हालात में सुन्न पड़ी हुई है। सरकार को पता नहीं कि इस बबाल को कैसे शांत किया जाए।
मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि अगर शीर्ष कोर्ट के वरिष्ठतम जजों में आपसी अविश्वास का जल्द समाधान नहीं निकला तो आने वालेे दिनों में बगावत पर उतरे जज सरकार के लिए और भी मामले उठाकर और भी परेशानियां पैदा कर सकते हैं। सरकारी पक्ष को अब गुस्साए जजों से यह भी खतरा बना हुआ है कि उनको और छेड़ा गया तो वे कुछ और संवेदनशील मामलों की आंतरिक बातें सार्वजनिक कर सकते हैं। ज्ञात रहे कि चारों जजों ने जो बातें कल सार्वजनिक की हैं, उनका बारीकी से विश्लेषण करने के बाद यह साफ हो रहा है कि मौजूदा प्रधान न्यायाधीश और उनके करीबी जजों की बैंच पर उन्होंने सत्ता पक्ष और केंद्र सरकार के पक्ष में फैसले करने का आरोेप लगाया है।
मोदी सरकार ने कल से ही बचाव की मुद्रा वाले बयान देने आरंभ कर दिए थे और जजों की भड़ास को सुप्रीम कोर्ट का आंतरिक मामला बताते हुए हाथ झाड़ने की कोशिश की है लेकिन माना जा रहा है कि आने वालेे दिनों में सुप्रीम कोर्ट वे तमाम खामियां बाहर आएंगी जिन पिछले कुछ सालों से छन-छन कर खबरें बाहर आती थीं।
गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ही नहीं हाइकोर्टाें में भी जजों की भारी कमी का मामला उठाते हुए पिछले साल 9 जनवरी 2017 को तत्काल प्रधान न्यायाधीश ने रिटायर होने के पहले सार्वजनिक मंच पर अपनी व्यथा प्रकट करते हुए रो दिए थे। माना जा रहा है कि भारी मानसिक दबाव व गुबार जस्टिस ठाकुर भी झेल रहे थे लेकिन ठाकुर ने इस बात पर दुख प्रकट किया था कि प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त 2016 को लाल किले के संबोधन में कई सारी बातें की लेकिन न्यायपालिका की दुर्दशा के बाबत एक शब्द तक उनके मुहं से नहीं निकाला।
उनका यह भी दर्द था कि पीएमओ ने सुप्रीम कोर्ट की 77 में से 43 सिफारिशें वापस लौटा दी थी। तब ठाकुर की अध्यक्षता में पीठ ने पीएमओ के सेक्रेटरी को कोर्ट के कठघरे में खड़ा करने की धमकी तक दे डाली थी तो भारी बबाल मचा था। तब भी मोदी सरकार एकाएक सकते में आ गई थी। हालांकि सरकार के कारिंदे दबी जुबान से मीडिया में ये बातें फैलाते रहे कि जस्टिस ठाकुर को इतने सर्वोच्च पद पर बैठकर इतनी भावुकता से बात कहने से बचना चाहिए था।
यहां न्यायिक सर्कल में इस बात को शिद्दत से माना जा रहा है आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट में भले ही कुछ दिन के लिए शांति कायम भी हो जाए तो भी जो सवाल उठाए गए हैं उन पर मीडिया के साथ ही संसद के भीतर बाहर चर्चा का दौर जारी रहने वाला है।
वस्तुत कांग्रेस और विपक्ष के बाकी दल 2014 में रहस्यमय हालात में मृत पाए गए सीबीआई जज हरिकृष्ण लोया की रहस्यमयी मौत पर जांच की मांग पर सारा फोकस रखना चाहते हैं। जस्टिस लोया मौत के पहले 2005 में सोराबुद्दीन शेख फजी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थेे। इस मामले में भाजपाध्यक्ष अमित शाह भी आरोपी थे। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र की पीठ ने हाल में इस मामले को पिछले दिनों सुना था तथा शुक्रवार को आगे सुनवाई के लिए सुचीबद्ध किया था। हालांकि इसी प्रकरण पर मुंबई हाईकोर्ट में एक पत्रकार की यात्रिका पर अलग से सुनवाई चल रही है। बगावत करने वाले जजों का मानना है कि इस मामले में जब निचली अदालत सुनवाई कर रही है तो इतने संवेदनशील व अहम मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा समानांतर सुनवाई करना न्यायसंगत नहीं है।