Adi Shankaracharya Biography: आदि शङ्कराचार्य के कई अनजाने पहलू

Adi Shankaracharya Biography in Hindi: एक बार आदि शङ्कराचार्य पूर्णा नदी में स्नान हेतु गए तो घड़ियाल ने उनके पैर को पकड़ लिये। बिना किसी भय के उन्होंने तत्काल अपनी माता से निवेदन किया कि यदि वह उन्हें संन्यास लेने की आज्ञा देती हैं, तो उनकी प्राण-रक्षा हो सकती है।

Written By :  Professor Ram Nath Jha
Update:2024-12-03 18:24 IST

Adi Shankaracharya Ka Jivan Parichay

Adi Shankaracharya Ka Jivan Parichay: आदि शङ्कराचार्य भारतीय ऋषि, विद्वान्, दार्शनिक तया आचार्य परम्परा के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जिन्होंने उपनिषद् में वर्णित सत्य का साक्षात्कार किया, तथा उसकी तर्कपूर्ण व्याख्या की तथा आगामी परम्परा के जिज्ञासु के लिए इस प्रकार की सामग्री उपलब्ध करा गये जिसके आधार पर सत्यान्वेषी सत्य का साक्षात्कार करते हुए मुक्ति की अवस्था को प्राप्त कर सके।बाल्यकाल से अन्तिम समय तक उनका जीवन दिव्य एवं अलौकिक रहा।सामान्यतः उनका जीवनकाल 788 से 820 शताब्दी के मध्य माना जाता है, किन्तु चार प्रमुख मठों में एक गोवर्धनमठ के तथ्यों के आधार पर इनका समय ईसा पूर्व 5वीं 6वीं शताब्दी में स्थापित होता है। उनका जन्म प्रौढ़ता को प्राप्त शिवगुरु एवं आर्याम्बा (सती) से केरल के कालड़ी गांव में हुए।

ऐसा उल्लिखित है कि सन्तान की प्राप्ति हेतु शिवगुरु दम्पत्तीभगवान् शिव के मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिङ्ग जो कि वृषक्षेत्र के अधिष्ठातादेव हैं, के आश्रय में गये।(१ ) दीर्घकाल की कठिन तपस्या के पश्चात् शिवगुरु ने स्वप्न देखा कि भगवान् शिव ने उनके यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न होने का वरदान दिया है।(२)उसके पश्चात् निश्चित समय पर जब उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई तो उसका नाम उन्होंने शंकर रखा। शंकर बाल्यकाल से ही बहुत प्रतिभा से सम्पन्न थे, किन्तु दुर्भाग्यवश शंकर जब तीन वर्ष के हुए तो उनके पिता का निधन हो गया।(३)इस प्रकार के दुःख का सहन करते हुए भी उन्होंने आठ वर्ष के वय तक चार वेदों, छः वेदाङ्गों'(४)न्याय, सांख्य, योग, भाट्टमीमांसा, इतिहास, पुराण, महाभारत, स्मृति-आदि(५) की विधिवत्शिक्षा प्राप्त कर भी तथा इन विषयों में निष्णात हो गये।


उन्होंने महाभारत के शान्ति पर्व में वर्णित मोक्षसम्बन्धी विषय का अनेक बार अध्ययन करते हुए उसे आत्मसात् कर लिया।(६) शंकर दिग्विजय के अनुसार उनकी वेद संबंधी विद्वता ब्रह्मा जैसी, वेदाङ्ग का ज्ञान गार्थ जैसा, वेद और वेदाङ्ग के तात्पर्यार्थ का अधिगम बृहस्पति जैसा, वेद के कर्मपक्ष में प्रवीणता जैमिनि जैसी तथा वैदिक विवेकज्ञान में व्यास जैसा था।(७) कालड़ी के आस-पास की सभी दिशाओं के लोग उनके अलौकिक ज्ञान से हतप्रभ थे। एक बार जब वह पूर्णा नदी में स्नान हेतु गए तो घड़ियाल ने उनके पैर को पकड़ लिये। बिना किसी भय के उन्होंने तत्काल अपनी माता से निवेदन किया कि यदि वह उन्हें संन्यास लेने की आज्ञा देती हैं, तो उनकी प्राण-रक्षा हो सकती है।(८) किसी भी माता की अन्तिम इच्छा उसके पुत्र का जीवन-रहे होती है।

माता ने शीघ्र ही संन्यास लेने की अनुमति प्रदान की। यद्यपि पहले भी शंकर ने अनेक बार अपनी माता से इस प्रकार का निवेदन किया था किन्तु यह इससे सहमत नहीं हो पायी थी। माता का आदेश मिलते ही घड़ियाल से उनकी प्राण रक्षा हो गयी।(९) यह घटना आश्चर्यजनक थी। वस्तुतः यह घटना इस बात को संकेतिक करती है कि जब तक व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से मुक्त नहीं होता, समाज के लिए वह कोई बड़ा कार्य नहीं कर सकता।


घड़ियाल यहां स्वार्थ का प्रतीक है तथा उसकी जबड़े से मुक्ति व्यक्तिगत स्वार्थ से मुक्ति का सूचक है, जो अन्ततःआचार्य शंकर को समाज कल्याण के व्यापक कार्य हेतु मार्ग प्रशस्त करता है। आचार्य शंकर का आध्यात्मिक अद्वैतता, राष्ट्रीय अखण्डता, सामाजिक एकतानता तथा सांस्कृतिक एकता सम्बन्धी योगदान अभूतपूर्व है, बेलगांव से प्राप्त तीन तालपत्रों में उल्लिखित है कि शंकर ने आठ वर्ष के वय से पूर्व ही सभी वेदों का अध्ययन कर लिया था, बारह वर्ष से पूर्व सभी शास्त्रों एवं दार्शनिक सम्प्रदायों में निष्णात हो गये थे, सोलह वर्ष से पूर्व उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र एवं श्रीमद्वगवद्वीता पर भाष्यों का प्रणयन कर लिया था। तत्पश्चात् शैक्षणिक, आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में राष्ट्र की दृष्टि से अभूतपूर्व योगदान देते हुए इस लोक व्यवहार सेअपने को मुक्त कर लिया था। उनके कार्य अविस्मरणीय, प्रेरणा के स्रोत एवं उत्कृष्टता के मापदण्ड है।(१०)

माता की मृत्यु एवं उनका संस्कार

आचार्य शंकर जब भारतवर्ष के सुदूर किसी प्रान्त में शास्त्रार्थ एवं अद्वैत वेदांत की स्थापना में संलग्न थे, उसी समय अचानक उन्हें अपनी माता के मृत्युकाल का संकेत प्राप्त हुआ। संन्यास ग्रहण करते समय माता के समक्ष ली हुई प्रतिज्ञा के अनुसार वे शीघ्रातिशीघ्र अपने जन्मभूमि की ओर प्रस्थान किया एवं वहाँ पहुंचकर उनके स्वास्थ्य की चिंता करते हुए उन्हें अद्वैत वेदांत में उपदिष्ट किया। माता की मृत्यु के पश्चात जब उनके दाह-संस्कार हेतु शंकर उन्मुख हुए तो गाँव के लोग यह कहते हुए आचार्य शंकर का विरोध करने लगे कि एक संन्यासी को किया का दाह-संस्कार (११)करने का अधिकार नहीं होता ।


अतः वे इस कार्य में उन्हें साथ सम्मिलित नहीं होंगे। आचार्य शंकर में समाज के इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए अपने वचन के अनुसार स्वयं ही माता का दाह-संस्कार किया तथा तदुपरान्त एक बार पुनः समाज में प्रचलित नकारात्मक क्रियाकलापों के समाप्त्यर्थ अद्वैतवेदान्त की स्थापना में सन्नद्ध हो गये।

आचार्य शङ्कर के प्रमुख शिष्य एवं चार मठों की स्थापना

यद्यपि आचार्य शंकर के अनेकानेक शिष्य थे किन्तु उनमें चार अत्यधिक प्रसिद्ध थे। उनके नाम हैं पद्मपादाचार्य, हस्तामलकाचार्य, तोटकाचार्य एवंसुरेश्वराचार्य। इनमें भी पद्मपाद (सनन्दन) उनके अत्यधिक प्रिय थे, जिसके कारण अन्य शिष्य उनसे (पद्यपाद से) द्वेष भी करते थे। (१२) आचार्य शंकर के अनुसार शिष्य की केवल शैक्षणिक उत्कृष्टता ही गुरु के लिये इसके प्रिय होने का मापदण्ड नहीं है किन्तु उसकी निष्ठा भी उतनी ही आवशेयक है। निष्ठा के बिना वह ज्ञान की गहनता कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता, उनके अनुसार शैक्षणिक उत्कृष्टता किसी व्यक्ति को विकसित करने के लिए महत्त्वपूर्ण है। लेकिन केवल शैक्षणिक उत्कृष्टता से उसका व्यक्तित्व सीमित होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। आचार्य शंकर के समय पद्मपाद ने अनेक बार अपनी निष्ठा को सिद्ध किया था।

अद्वैतवाद का प्रचार एवं अपने प्रमुख चार शिष्यों को आने वाली पीढ़ी हेतु उसका संवाहक बनाने के लिये आचार्य शङ्कर ने चार मठों की स्थापना की-

1. शारदा मठ -भारत के पश्चिम भाग के द्वारका क्षेत्र में आचार्य शङ्कर ने शारदा मठ की स्थापना की तथा हस्तामलक को उसका प्रथम संचालक नियुक्त किया। शारदामठ से सम्बद्ध संन्यासियों के लिये तीर्थ एवं आश्रम दो उपनाम निर्धारित किये गये। इस मठ का मूल ग्रन्थ सामवेद तथा महा वाक्य तत्त्वमसि हैं। सिन्धु, सौवीर, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र एवं अन्य सम्बद्ध राज्य इस मठ के आध्यात्मिक प्रशासन के अन्तर्गत सम्मिलित हैं।(१३)

2. गोवर्धन मठ-भारत के पूर्व में स्थित पुरुषोत्तम क्षेत्र के जगन्नाथपुरी मेंआचार्य शंकर ने गोवर्धनमठ की स्थापना की एवं पद्मपाद को उसका प्रथम संचालक नियुक्त किया। इस मठ से सम्बद्ध संन्यासियों के लिये वन एवं अरण्य ऐसे दो उपनाम निर्धारित किये गये। इस मठ का मूल ग्रन्थ ऋग्वेद एवं महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म हैं। बिहार, बंगाल, उडीसा तथा अन्य पूर्वी राज्य इस मठ के आध्यात्मिक प्रशासन के अन्तर्गत सम्मिलित हैं।(१४)


3. ज्योतिर्मठ-भारत के उत्तरी भाग के बद्विकाश्रम क्षेत्र में आचार्य शंकर ने ज्योतिर्मठ की स्थापना की एवं तोटकाचार्य को उसका प्रथम संचालक नियुक्त किया। इस मठ से सम्बद्ध संन्यासियों के लिये गिरि, पर्वत एवं सागर ऐसे तीन उपनाम निर्धारित किये गये। इस मठ का मूल ग्रन्थ अथर्ववेद तथा महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म हैं। कुरु, कश्मीर, कम्बोज, पाञ्चाल, एवं अन्य सम्बद्ध राज्य इस मठ के आध्यात्मिक प्रशासन केअन्तर्गत सम्मिलित हैं।(१५)

4. श्रृंगेरीमठ - भारत के दक्षिणी भाग के रामेश्वर क्षेत्र में आचार्य शंकर नेश्रृंगरी की स्थापना की तथा सुरेश्वराचार्य (मण्डनमिश्र) को उसका प्रथम संचालक नियुक्त किया । इस मठ से सम्बद्ध संन्यासियों के लिये सरस्वती, भारती एवं पुरी ऐसे तीन उपनाम निर्धारित किये गये। इस मठ का मूल ग्रन्थ यजुर्वेद तथा महावाक्य अहं ब्रह्मास्मि हैं। आन्ध्र, तैलंगाना, कर्णाटक, द्रविड (तमिळनाडू), केरल एवं अन्य सम्बद्ध राज्य इस मठ के आध्यात्मिक प्रशासन के अन्तर्गत सम्मिलित हैं।(१६)

इन सभी मठों के सम्यक रूप से संचालनार्थ एवं इनसे सम्बद्ध सत्यान्वेषी लोगों के हितार्थ आचार्य शङ्कर ने एक महानुशासन नामक वैधानिक ग्रन्थ का निर्माण किया एवं सभी शंकराचार्यों (१७) के लिये नियमानुसार कर्तव्यों की व्यवस्था की। महानुशासन ग्रन्थ के नियमानुसार सभी चार प्रमुख शंकराचार्यों को सदैव अपने क्षेत्रों का भ्रमण करना चाहिये। लोगों के द्वारा किये जाने वाले कार्यों की समीक्षा करनी चाहिये तथा उन्हें सत्कार्यों में नियुक्त करते हुए सांसारिक एवं आध्यात्मिक उन्नति हेतु दिशा प्रदान करनी चाहिये।(१८) आचार्य शंकर के अनुसार उपर्युक्त विधान देश की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति, दृढ आधार एवं राष्ट्र गौरव के लियेअत्यावश्यक है।

अतः नियुक्त शंकराचार्यों को कम से कम समय मठ में बिताना चाहिये तथा अधिक से अधिक समय समाज में रहते हुएसत्यान्वेषियों के लिये व्यतीत करना चाहिये।(१९) उनके अनुसार वैदिक धर्म सनातन (२०) है और उसमें यह क्षमता है कि वह मानवता के सहित सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा कर सके। अतः शंकराचार्यों के द्वारा श्रमपूर्वक वैदिक धर्म की रहा अपरिहार्य है। सनातन धर्म की रक्षा से ही संसार की रक्षा सम्भव है।(२१)आचार्य की यह राष्ट्रीय, मानवीय एवं वैश्विक दृष्टि उनके समग्र व्यक्तित्व की पराकाष्ठा है। उनके द्वारा चार मठों की स्थापना केवल अद्वैत उपदेश का केन्द्र नहीं है किंतु अखण्ड भारत का प्रतीक है। आचार्य शंकर का स्पष्ट चिन्तन है कि केवल अध्यात्म एवं दर्शन हो भारत के लोगों को एकीकृत कर सकता है, राजनीति नहीं। भारत के लोगों के लिये यह एक अप्रतिम सन्देश है।

दशनामी संन्यास-परम्परा के संस्थापक

उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि आचार्य शंकर ने भारत में दशनामी संन्यासी परम्परा की स्थापना की। दशनामी का तात्पर्य है ऐसे संन्यासियों का समूह, जो आचार्य शंकर द्वारा प्रदत्त दश उपनामों यथा गिरि, सरस्वती आदि में से किसी एक को धारण करता है। यद्यपि भारत मेंआचार्य श कर से पूर्व संन्यास की एक प्राचीन परम्परा रही है, ऐसा आचार्य स्वयं अपने गीताभाष्य के उपोद्धात में सूचित करते हैं। आचार्य शंकर के अनुसार भगवान् ने स्वयं सृष्टि के आदि में गृहस्थ एवं संन्यास ऐसी दो परम्पराओं की स्थापना की। गृहस्थ की परम्परा मरीचि आदि प्रजापति एवं संन्यास की परम्परा सनक, सनन्दन आदि से आरम्भ हुई है।(२२) प्रथम का सम्बन्ध प्रजा के विस्तार से है जिसमें अभ्युदय (सांसारिकउपलब्धि) की प्रधानता होती है जबकि द्वितीय निःश्रेयस (मोक्ष या परमानंद की प्राप्ति) है जिसमें प्रधानता लोक कल्याण हेतु जीवन का समर्पण करना है।


अभ्युदय एवं निःश्रेयस दोनों की प्राप्ति धर्म से सम्भव है तथा धर्म वह है जिसके द्वारा सृष्टि की स्थिति बनी रहती है तथा अभ्युदय एवं निःश्रेयस की प्राप्ति होती है।(२३)उपर्युक्त प्राचीन संन्यास की वैदिक-परम्परा को आचार्य शंकर ने व्यवस्थित रूप देते हुए उसकी सम्यक रूप से संरचना की। यह तत्कालीन भारतीय समाज की परिस्थितियों के लिये अत्यन्त आवश्यक था। वेद की सनातन परम्परा संकट की अवस्था में थी तथा लोक संग्रहाभिमुख संन्यासियों में विशेष प्रकार की अपेक्षा थी। आचार्य शंकर के द्वारा सुव्यवस्थित संन्यास की परम्परा आज भी वैदिक ज्ञान की सुरक्षा एवं भारत की सांस्कृतिक एकता हेतु अनुशासित रूप से संन्नद्ध है।

पाँच ज्योतिर्लिङ्गों की स्थापना

आचार्य बलदेव उपाध्याय रचित श्रीशंकराचार्य नामक पुस्तक में यह उल्लिखित है कि आचार्य शंकर ने एक बार कैलाश की यात्रा की तथा वहाँ से पांच स्फटिक लिङ्ग लाये। उनमें से लोकनिमित्त चार लिङ्गों, जो परम सत्य के प्रतीक हैं, की स्थापना चार प्रमुख तीर्थों में की। उन्होंने मुक्तिलिंड्ग की स्थापना उत्तरी भारत में बद्रीनारायण के समीप, वीरलिङ्ग की स्थापना नेपाल के नीलकण्ठ क्षेत्र, मोक्षलिङ्ग की स्थापना चिदम्बरम् तथा भोगलिङ्ग की स्थापना भारत के दक्षिणी भाग स्थित श्रृंगेरी में की।योगलिङ्ग नामक पांचवें शिवलिङ्ग को स्वयं अपने पाम रखा। (२४) आचार्य शंकर द्वारा स्थापित चार मठ जहाँ भारत की बाह्य सीमा को मापता है, वहीं चार ज्योतिर्लिङ्ग देश की आन्तरिक अखण्डता को प्रतिबिम्बित करता है।

पञ्च देवतोपासना की स्थापना

आचार्य शंकर ने अखण्ड भारत के नेपाल, पाक अधिकृत कश्मीर सहित ८२ ( बयासी) स्थानों (कांचीमठ तमिलनाडु में उपलब्ध सूचना के आधारपर) का तीन बार पैदल भ्रमण किया। भ्रमण के क्रम में उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि कुछ कोसों के अन्तराल में भिन्न-भिन्न देवता लोगों के द्वारा पूजे जाता हैं जिसके कारण लोगों में अनेक प्रकार के मतभेद भी उपलब्ध थे।प्रत्येक व्यक्ति अपने देव को उत्कृष्ट सिद्ध करने में सन्नद्ध था। इस मनःस्थिति के कारण समाज में अनेक प्रकार की विसंगतियों उत्पन्न हो गयी थीं, , जिसके कारण सामाजिक समरसता खण्डित हो रही थी। भारत कीअखण्डता को ध्यान में रखते हुए एवं उपर्युक्त विसंगतियों से मुक्ति हेतु आचार्य शंकर ने देवता के अनेक रूपों को पांच प्रचलित रूपों (आदित्य, अम्बिका, विष्णु, गणेश एवं महेश) में समाहित करते हुये सभी की पूजा सबके लिये अनिवार्य कर दी तथा लोगों के मन में यह स्थापित करने में सफल रहे कि सभी पांच देवों में एक ही परमसत्ता चैतन्यरूप में विद्यमान है।


इस प्रकार लोगों के मन में उत्पन्न भेदवृत्ति को समाप्त करने में उन्हें सफलता प्राप्त हुई। तथा लोगों के अन्दर धार्मिक सहिष्णुता, साम्प्रदायिक सद्भावना तथा राष्ट्रीय एकता सुदृढ हो गयी। आज भी भारत के अधिकतर परिवारों में पञ्च देवोपासना की परम्परा प्रचलित है। आचार्य शंकर का उपनिषद् पर आधारित एक ही सिद्धान्त है कि एक ही परमसत्य (परम ब्रह्म-परिवर्तन रहित, शुद्ध चेतन स्वरुप, अनन्त, परमानन्द एवं अद्वैत) (२५) सभी देवताओं में स्थित है। आचार्य शंकर का अद्वैत प्रतिपादन इसी सिद्धान्त पर आधारित है जो वैदिक दर्शन का मुख्य लक्ष्य है। तत्कालीन समाज में इस प्रकार का चिन्तन व्यवहारिक रूप में नाना ही आचार्य शंकर की सफलता का द्योतक है।(२६)

प्राचीन मन्दिरों का पुनर्निर्माण तथा भयावह मूर्तियों का दयालुतापूर्ण मूर्तियों में परिवर्तन

भारतवर्ष की यात्रा के क्रम में आचार्य शंकर ने अनेक जीर्ण-शीर्ण प्राचीन मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया तथा उनमें देवी-देवताओं तथा शिवलिङ्गों की स्थापना की। इनके अतिरिक्त कई मन्दिरों में देवताओं की भयावह मूर्तियां थीं, जिन्हें उन्होंने दयालुतापूर्ण मूर्तियों के रूप में परिवर्तित कर दिया। उदाहरणस्वरूप -

1. अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित बद्रीनाथ मन्दिर में उन्होंने पुनः विष्णुभगवान् की मूर्ति की स्थापना की।

2. आचार्य शङ्कर ने चिदम्बरम् , नीलकण्ठ (नेपाल), केदारनाथ, सोमनाथ तथा गोकर्ण में शिवलिङ्गों की स्थापना की।

3. उन्होंने प्रयागराज, तीरुवितूर, काञ्ची एवं त्रिचनापल्ली(२७)में मन्दिरों में स्थित भयावह मूर्तियों को दयालुता से सम्पन्न तथा मातृत्वभाव से युक्तमूर्तियों के रूप में परिवर्तित कर दिया।

4. उन्होंने तिरुपति में ललाट पर लक्ष्मीयन्त्र से युक्त श्रीवेङ्कटेश्वर कीस्थापना की जिसके कारण वहां धन के प्रवाह का सातत्य है।

5. उन्होंने श्रीरंगम में ललाट पर जनयन्त्र के साथ श्रीरंगनाथ की स्थापना की जिसके कारण वहाँ सदैव लोगों का समूह विद्यमान रहता है।(२८)

आचार्य शंकर कभी भी देवता के किसी मूर्ति विशेष से अनुरक्त नहीं हुए, अपितु क्षेत्र विशेष के लोगों की भावना के अनुरूप तत्-तत् स्थल में उसी प्रकार की भाव-भङ्गिमा से युक्त मूर्तियों की स्थापना की। यह उनकी दूर दृष्टि का परिचायक है। मूर्ति विष्णु की हो, शिव की हो, शक्ति की हो या किसी अन्य देवता की हो, उनका मुख्य प्रयोजन लोगों की भावना को सर्वोपरि महत्व देना था। तिरुपति में भगवान् विष्णु की मूर्ति की स्थापना, अनेक अन्य स्थलों में शिवलिङ्गों की स्थापना अथवा और किसी स्थानों पर दयालुता पूर्ण मातृत्व संपन्न मूर्तियों की स्थापना तत्तत् स्थलों में करने वाले की भावना एवं उनकी पूजा-पद्धति पर आधारित था। किन्तु इन सभी मूर्तियों की स्थापना के क्रम में वे इस बात का सदैव ध्यान रखते थे कि सभी साकार मूर्तियां उस एक परमतत्त्व निराकार ब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र है।

ऐसा प्रायः धर्मोपदेशकों में नहीं देखा जाता। वे किसी न किसी रूप में किसी एक देवता से अवश्य सम्बद्ध होते हैं। ऐसा आचार्य शंकर में इसलिये सम्भव नहीं था क्योंकि उन्होंने उस एक परमतत्त्व में इस प्रकार अभिन्न रूप से स्वयं को स्थापित कर लिया था कि सभी प्रकार की मूर्तियाँ उनके लिये उस अद्वैत परमतत्त्व की अभिव्यक्ति मात्र थी। उनके इन विचारों एवं क्रियाकलापों में ऋग्वेद के उस गौरवपूर्ण एवं महान् विचार से युक्त मन्त्र स्पन्दित होता हुआ प्रतीत होता है-

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरयो दिव्यः स सुपणों गरुत्मान् ।

एक सद्विप्रा बहुधा बदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥(२९)

शङ्कर और प्रयागराज

बद्रीनाथ में उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता के ऊपर भाष्य लिखने तथा कुछ विशेष स्तोत्र एवं प्रकरण-ग्रन्थों की रचना करने के बाद आचार्य शंकर ने जहाँ एक ओर विद्वत्वर्ग की आध्यात्मिक एवं दार्शनिक जिज्ञासाओं को शान्त किया, वहीं दूसरी ओर सामान्य जनों कीसत्योन्मुखी भावनाओं को भी उसके निश्चित गन्तव्य तक पहुंचाया।भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा के क्रम में शास्त्रार्थ की दृष्टि से उनकी प्रयागराज की यात्रा अभूतपूर्व है। प्रयागराज आदिकाल से ही वैदिक ज्ञान एवं यज्ञ की भूमि रहा है। वह पवित्र तीर्थ लाखों ऋषियों, महात्माओं, विद्वानों को अनादिकाल से अपनी दार्शनिक जिज्ञासाओं की शान्ति एवं आध्यात्मिक उन्नति हेतु आकर्षित करता रहा है। वहां प्रसिद्ध एवं पवित्र गंगा, यमुना तया सरस्वती का त्रिवेणी संगम भी विभिन्न प्रकार की ज्ञान-परम्परा के सङ्गम का प्रतीक है।


आचार्य शंकर का प्रयागराज में आगमन एवं उस समय के प्रतिनिधि पूर्वमीमांसक आचार्य कुमारिल के साथ उनका दार्शनिक विषयों पर संवाद अनेकानेक उदाहरणों में से एक है।संगम के तट पर जब आचार्य शंकर ने परस्पर चर्चा के क्रम में लोगों से यह कहते हुए सुना - "आचार्य कुमारिल वैदिक ज्ञान के आधिकारिक विद्वान तथा उस ज्ञान के प्रचार के लिये ध्वजधारी संवाहक हैं, उन्होंने वेद विरोधी अपने बौद्धगुरु को तीक्ष्णतर्क से धूमिल किया है, वैदिक ज्ञान की पुनः स्थापना की है तथा बौद्धगुरु को परास्त करने के कारण प्रायश्चित स्वरुप आत्मदाह कर रहे हैं।" आचार्य शंकर शीघ्रता पूर्वक आचार्य कुमारिल से मिलने हेतु उनके पास गये। उस समय आचार्य कुमारिल अपने शिष्यों से घिरे हुए थे(३१) तथा ज्ञान एवं शास्त्रार्थ के प्रतीक स्वरुप प्रकाशित हो रहे थे। उन्होंने आचार्य शहूर का स्वागत किया।


प्रयागराज इन दो महान् वैदिक विद्वानों के मध्य में हुए संवाद का साक्षी है।संवाद का मूल विषय था कि क्या वेद का तात्पर्यार्थ कर्म में है, जो आचार्य कुमारिल के लिये अभिप्रेत था अथवा वेद का तात्पर्यार्थ ज्ञान में है, जो व्यक्ति को मोक्ष अथवा निःश्रेयस में आरुढ करता है, ऐसा आचार्य शंकर का निष्कर्ष है? वेद के द्वारा विहित कर्म निश्चित रूप से सांसारिक उपलब्धि (अभ्युदय) के लिये आवश्यक है। कर्म से ही धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति सम्भव है किन्तु अभ्युदय की अपनी सीमितता है। वस्तुतःवैदिक-परम्परा में जीवन के दो प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं अभ्युदय तथा निःश्रेयस।

निःश्रेयस कर्म के द्वारा सम्भव नहीं है, निःश्रेयस केवल ज्ञान से ही सम्भव है। ज्ञान से ही कोई जिज्ञासु उस परमतत्त्व ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता है जो अपरिवर्तनशील, शुद्ध चैतन्य, परमानन्द, अनन्त एवं अद्वैतस्वरूप है। परिवर्तनशील (विनाशशील) कर्म से परिवर्तनशील (विनाशशील) कर्म से परिवर्तनशील (विनाशशील) फल की ही प्राप्त सम्भव है न कि अपरिवर्तनशील (अविनाशी) निःश्रेयस की।आचार्य शंकर ने इस विषय पर आचार्य कुमारिल से शास्त्रार्थ करने की प्रार्थना की किन्तु आचार्य कुमारिल ने शरीर के अधिकतर भाग दग्ध होजाने के फलस्वरूप, इन्द्रियों की अक्षमता के कारण शास्त्रार्थ हेतु अपनीअसमर्थता व्यक्त की किन्तु उन्होंने आचार्य शंकर को उपर्युक्त विषयों पर अपनी प्रतिनिधि शिष्य आचार्य मण्डन मिश्र से शास्वार्थ करने की अनुशंसा की। आचार्य कुमारिल के बाद तत्कालीन भारत में आचार्य मण्डन मिश्र ,पूर्व मीमांसा के सबसे बड़े विद्वान् एवं वैदिक कर्म सिद्धान्त के समर्थक थे।


आचार्य शंकर वेद के अतिरिक्त वेद सम्मत स्मृतियों एवं पुराणों को भी यथार्थ ज्ञान के रूप में स्वीकार करते हैं। यही कारण था कि उन्होंने वेद सम्मेद स्मार्त्त एवं पौराणिक धार्मिक परम्परा को पुनः स्थापित किया।इसी क्रम में प्रयागराज के संगम तट पर उन्होंने धार्मिक परम्परा केअनुरूप स्वयं भी स्नान किया तथा ऐसा सन्देश दिया कि जो भी व्यक्ति त्रिवेणी संगम में स्नान करता है, वह दिव्य हो जाता है, आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक दुःख से मुक्त हो जाता है एवं अन्त में वह स्वर्ग को प्राप्त करता है ऐसा श्रुतिकथन है।(३२) प्रयागराज का यह त्रिवेणी संगम करोड़ों हिन्दुओं के लिये पवित्रतम स्थल है तथा धार्मिक मान्यताओं के आधार पर आस्था का केन्द्र है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आचार्य शंकर ने सित (गंगा ) एवं असित (यमुना) के संगम की प्रशंसा की एवं वेदसम्मत चिन्तन को प्रचारित किया।(३३)

प्रयागराज प्रत्येक बारह वर्ष में होने वाले कुम्भ मेला के लिये भी विश्वविख्यात है। भारतवर्ष की सभी दिशाओं एवं विश्व के अनेकानेक देशों से आकर ज्योतिष के आधार पर निर्धारित तिथियों में लोग वहां स्नान करते हैं। वैदिक सनातन धर्म को मानने वाले एवं तदनुरूप आचरण करने वाले सनातन धर्म के लोगों का यह सबसे बड़ा एकत्रीकरण है, कुम्भ मेला के अवसर पर सुंदर हिमालय की गुफानी से सिद्ध साधु-संत भी त्रिवेणी संगम पर आकर अपने आध्यात्मिक लक्ष्यों के प्राप्यर्थ स्नान करते हैं।

कर्मकाण्ड की दृष्टि से भी प्रयागराज में होने वाला कुम्भ सबसे पवित्र मानव जाता है। वैसे भी भारत में वेद मतावलंबियों के घर में जल, दुग्ध आदि से पूरित कुंभ को अत्यधिक पवित्र माना जाता है। इसका उल्लेख वेद से लेकर परिवर्ती शास्त्रों में भी उपलव्ध है। ऋग्वेद में विविध अर्थों के रूप में कुम्भ शब्द का अनेकशः प्रयोग हुआ है किन्तु अथर्ववेद स्पष्ट रूप से कहता है कि दुग्ध, दधि एवं जल में पूरित चार-कुम्भों की ब्रह्मा (विधाता) ने रचना की और लोगों के अभ्युदय एवं निः श्रेयस की प्राप्ति हेतु इन्हें चार दिशाओं में स्थापित किया-

चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि क्षीरेण पूर्णा उदकेन दध्ना एतास्त्वा धाराउपयन्तु।

सर्वाः स्वर्ग लोके मधुमत्पित्यमाना उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ता ॥

ऋग्वेद ४/३४/७

अथर्ववेद का यह विषय पुराणों में वर्णित देव और असुर के द्वारा समुद्र-मंथन से निःसृत अमृत कुंभ में साक्षात् रूप में सम्बद्ध है। पुराणों में भी इन्द्र के पुष जयन्त के द्वारा अमृत कुंभ को ले जाया जाना तथा चार स्थानों पर अमृत बिंदु का गिरना उल्लिखित है। वे चार नाम हैं- प्रयागराज(हिन्दूगणना के अनुसार माघमास (जनवरी-फरवरी) जब बृहस्पति मेष राशि में होता है तथा सूर्य और चन्द्र मकर राशि (३४) में (तब कुम्भ मेला का आयोजनहोता है), उज्जैन, हरिद्वार तथा नासिक। इस क्रम में प्रत्येक तीन वर्ष बाद यह कुम्भ सभी चार स्थानों में आयोजित होता है। इनमें भी प्रयागराज मेंआयोजित होने वाला कुम्भ पवित्रतम है, क्योकि यहां गंगा , यमुना और सरस्वती का त्रिवेणी संगम है। भारत वैदिक ज्ञान एवं धार्मिक परम्परा के लिए विश्व प्रसिद्ध है। ये दो परम्पराएँ हजारों वर्षों से एक साथ बिना किसी व्यवधान के आगे बढ़ रही हैं। इस विषय में ऐतिहासिक प्रमाणों का भारत में उतना अधिक महत्व नहीं है जितना कि पाश्चात्य जगत् में इसका महत्व स्वीकार किया जाता है। यही स्थिति प्रयागराज में आयोजित होने वाले कुंभ की प्राचीनता के विषय में है।

इस विषय में दिलीप कुमार राय का उनकी पुस्तक 'KUMBHA INDIA'S AGELESS FESTIVAL" के Introduction में

उपलब्ध कयन विशेष रूप से द्रष्टव्य है-

We do not know exactly when the legend of Kumbha first became crystallized and began attracting pilgrims, but we do know that the great Chinese traveller-historian Hiuen Tsang (otherwise Yuan Chwang) who came to India in the seventh century, witnessed this magnificent religious festival at Prayag, for he has left a graphic account of it. He writes that about half a million people gathered round about the confluence on that occasion and that the ceremony lasted for seventy-five days. The pilgrims comprised people from almost all ranks of life - from the Emperor Harshavardhan with his ministers and tributary chieftains, down

34 KUMBHA MELA (History and Religion, Astronomy and Cosmo biology), Subas Rat, Ganga. Kaveri Publishing Home, Varanasi, 1993, p.22

35 Published by Bharatiya Vidya Bhawan, Bombay, 1965

to the beggar in rags. Among the participants, there were the heads of the various religious sects, as well as philosophers, scholars, ascetics and spiritual aspirants, from all walks of life."

इसी के सातत्य में एक बार पुनः उनका कथन इष्टव्य है-

"The date of this celebration was 644 A.D., so that it can be taken as the first account of the Kumbha Mela in recorded history. It is possible, however, that Harsha did not initiate the festival, but only adopted it and gave it a royal fillip in order to promote religious fervour among the people. It may be presumed that it has continued ever since down to our own day."

आदि शंकराचार्य का कुम्भ-मेला की सुव्यवस्था में क्या योगदान है, इस विषय में भी उनका कथन ध्यातव्य है-

"I need only add that in the ninth century the great Shankaracharya gave it the final shape by the force of his magic personality. He first of all established the four well-known monasteries. In each of these he nominated a head who was to guide the sadhus under his charge. These were exhorted to assemble regularly at the Kumbha Mela, with the twofold purpose of maintaining contact with sadhus of other denominations and fortifying the spiritual aspirants. The people responded enthusiastically, for they were thus given the twofold opportunity of winning fresh inspiration through consorting with the sadhus and redemptive bathing in the sacred rivers."

प्रवीण एवं अजेय शास्त्रार्थकार

भारतवर्ष की यात्रा के क्रम में वैदिक अद्वैतवाद की स्थापना हेतु आचार्य शंकर अनेक सम्प्रदायों के प्रमुख आचार्य तथा दार्शनिक से मिले तथा उन्हें शास्त्रार्थ किया। ऐसा इसलिये आवश्यक था क्योंकि वेदान्त की स्थापना हेतु अन्य मतावलम्बी आचार्यों का तर्कपूर्ण खण्डन आवश्यक था।शास्त्रार्थ के क्रम में कोई भी आचार्य उनके समक्ष अधिक समय तक संवाद नहीं कर पाये। आचार्य शंकर ने सभी आचायों को यह स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया कि इस अनेकता से परिपूर्ण संसार का मूल कारण एक चेतन तत्त्व ब्रह्म है। शास्त्रार्थ की विशेषता यह थी कि पराजय को प्राप्त आचार्यों ने कभी भी अपमान का अनुभव नहीं किया किन्तु इसके विपरित आचार्य शंकर के व्यक्तित्व एवं विद्वत्ता से प्रभावित होकर उनके शिष्यत्व को स्वीकार कर लिया। इस विषय में एक उदाहरण विशेष रुप में दर्शनीय है । आचार्य कुमारिल के निर्देशानुसार जब आचार्य शंकर आचार्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने हेतु उनके घर पहुंचे तो कई दिनों के शास्त्रार्थ के पश्चात् उन्होंने मण्डन मिश्र को पराजित किया ।

किन्तु आचार्य मण्डन की पत्नी उभय भारती ने आचार्य शंकर को यह कहते हुए पुनः शास्त्रार्थ के लिए आह्वान किया कि मैं आचार्य मण्डन की अर्धाङ्गिनी हूं तथा जब तकआप शास्त्रार्थ में मुझे पराजित नहीं कर देते तब तक आचार्य मण्डन की पराजय स्वीकार नहीं की जा सकती। कई दिनों के शास्त्रार्थ के बाद आचार्य उभय भारती आचार्य शंकर को कामशास्त्र सम्बन्धी कुछ प्रश्न किया। आचार्य शंकर संन्यास की परम्परा की मर्यादा का निर्वाह करते हुए उभय भारती से एक मास का समय लिया तथा वहाँ से भ्रमण करते हुए मालावार राज्य पहुंचे।" संयोगवश उसी समय मालावार के राजा अगरुक का निधन हुआ था। जिसके शरीर में योगविद्या के माध्यम से प्रवेश कर काम के क्रियाकलाप के विषय में अनुभव प्राप्त किया तथा एक मास के पश्चात् पुनः उभय भारती के पास आकर उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित किया। शास्वार्थ के पश्चात् दोनों पति-पत्नी आचार्य शंकर से इतना अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने उनकी शिष्यता स्वीकार कर ली।इसी प्रकार अन्य आचायों के उदाहरण भी उपलब्ध हैं।

भक्ति के प्रणेता

सामान्य रूप से आचार्य शंकर को ज्ञानमार्ग का आचार्य माना जाता है। किंतु उन्होंने भक्ति को कभी भी गौण नहीं माना। भक्ति का लक्षण करते हुए वे कहते हैं "मोक्ष के सभी साधनों में भक्ति सर्वप्रधान है। अपने स्वरूप का अनुसंधान ही भक्ति है। भक्ति का यह लक्षण अन्य लक्षणों से पूर्णतःभिन्न है। क्योंकि सामान्यतः भक्ति का सम्बन्ध सगुण एवं साकार देवी-देवता से है। आचार्य शंकर के अनुसार स्वयं के मूल तत्त्व आत्मा काअन्वेषण ही भक्ति है। इसका प्रमाण आचार्य के द्वारा रचितचर्पटपञ्जरिकास्तोत्र में प्राप्त होता है। जहां इस प्रकार का संकेत है कि जब वे वाराणसी के किसी मार्ग से आगे बढ़ रहे थे तो उन्होंने एक व्यक्ति को डुकृअ करणे ऐसा व्याकरण से सम्बद्ध चातु का पाठ करते देखा, उन्होंने तत्काल उस व्यक्ति को कहा कि आप गोविन्द का भजन करें क्योंकि मृत्यु के आसन्न होने पर डुक्रिय करणे का कण्ठस्थी करण काम नहीं आयेगा।उनका यह प्रसिद्ध श्लोक निम्नलिखित है-

"दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः,

कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः।

भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमतेः,

प्राप्ते सन्निहते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥ १॥

आचार्य शंकर मन्त्रमुग्ध करने वाले भक्तिस्त्रोतों की रचना के लिये प्रसिद्ध हैं, उनके द्वारा रचित नर्मदाष्टकम्, यमुनाष्टकम्, गङ्गाष्टकम्, मनीषापञ्वकम्, शिवमानसपूजा, सौन्दर्यलहरी, आनन्दलहरी, साधनपज्वकम्, कनकधारास्तोत्रम्, अन्नपूर्णास्तोत्रम् आदि भक्तों एवंविद्वज्जनों के मध्य अत्यधिक प्रचलित हैं एवं भक्तिस्तोत्र के प्रतिमान के रूप में स्वीकार किये जाते हैं।

आचार्य शङ्कर का शास्त्रीय एवं साहित्यिक योगदान

आचार्य शंकर के कर्तृत्व इतने उत्कृष्ट एवं व्यापक हैं कि कोई भी व्यक्ति आश्चर्य चकित होकर सोचने लगता है कि इतने कम समय में कैसे कोई व्यक्ति इन सबकी रचना कर सकता है। उन्होंने १२ उपनिषदों(ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुणाक, माण्डूका, बृहदारण्यक, छान्दोग्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, स्वेताश्वतर तथा नृसिहतापनीय), ब्रह्मसूत्र तथा भगवद्रीता पर विस्तृत भाष्य लिखा। इनके अतिरिक्त इन्होंने विष्णुसहस्रनाम, सनत्सुजातीय, ललितात्रिशतं, तथा माण्डूक्यकारिका पर भी भाष्य लिखा।

आचार्य शंकर को नाम से अनेकानेक स्तोत्र एवं प्रकरण ग्रन्थ भी है। भाष्यों की लेखन शैलीअपने आप में विलक्षण है। ऐसा प्रतीत होता है कि उपनिषदों के ऋषि तथा ब्रह्मसूत्र, भगवद्वीता के रचयिता एक ही साथ आचार्य शंकर के रूप में प्रकट हुए तथा उपनिषद्, ब्रहासूत्र एवं भगवद्वता में प्रस्तुत विषय को और अधिक सरल शैली में लोगों तक पहुंचाया। आचार्य शंकर केवल विद्वान्और सत्यानुभूत आचार्य नहीं हैं अपितु वेद के तात्पर्यार्थ की तार्किकः एवं प्रमाण की दृष्टि से इस प्रकार प्रस्तुत करने वाले हैं कि सत्यान्वेषियों के लिए एक नैसर्गिक एवं सरल विषय सहज रूप से प्रस्तुत हो जाता है तथा वे ऐसा अनुभव करते हैं कि संशय अपने-आप दूर हो रहा है तथा सत्य का साक्षात्कार हो रहा है। जिज्ञासु स्वयं को मुक्त अनुभव करने लगता है तथा उसे किसी अन्य प्रकार की आध्यात्मिक सहायता की आवश्यकता नहीं होती । आचार्य शंकर के भाष्यों की गहराई में जाने के बाद जिन प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूति होती है उससे ऐसा लगता है कि व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति अपने आप हो रही है तथा अन्ततः ऐसा अनुभव होने लगता है कि आचार्य शंकर स्वयं शंकर के अवतार हैं।"

निष्कर्ष

आचार्य शंकर का अद्वैतवाद आज भी विश्व के करोड़ों जिज्ञासुओं कीआध्यात्मिक बुभुक्षा को तृप्ति प्रदान कर रहा है। भारतवर्ष तथा विश्व मेंअद्वैतवाद पर विशिष्ट विद्वानों एवं शोधकर्ताओं के द्वारा असंख्य टीकायें, उपटीकायें, स्वतंत्र पुस्तकें तथा शोधपत्र लिखे गये हैं तथा आज भी लिखे जा रहे हैं। आचार्य शंकर की अद्वैत परम्परा ने असंख्य दिव्य व्यक्तित्वों एवं आत्मवेत्ताओं को प्रस्तुत किया है जिन्होंने विश्व स्तर पर मानवता कीअभूतपूर्व सेवा की है। अद्वैतवाद की परम्परा में उनके शिष्यों के अतिरिक्त कुछ प्रसिद्ध नाम इस प्रकार है-सर्वस्वतंत्र वाचस्पति मिथ, श्रीहर्ष, , सर्वज्ञात्ममुनि, माधवाचार्य, चित्सुखाचार्य, मधुसूदन सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि रमण आदि।

सम्प्रति मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने 'आचार्य शंकर और सांस्कृतिक एकता न्यास' की स्थापना की है, जिसके माध्यम से आचार्य शंकर के व्यक्तित्व, कर्तृत्व एवं औपनिषद सिद्धान्त अद्वैतवाद के सभी पक्षों पर बहुआयामी क्रियाकलाप आरम्भ किया जा रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य है कि वैदिकवाङ्गय में प्रस्तुत जीव जगत् एवं जगदीश के स्वरूप को आचार्य शंकर की दृष्टि से समझना, वैदिक विज्ञान को स्थापित करना तथा आचार्य शंकर सदृश व्यक्तित्वों का निर्माण करना। अद्वैत के चिन्तन से हीअनियन्त्रित भौतिकवाद को पूर किया जा सकता है तथा शुद्र विचार जो कि भारतीय वैश्विक दृष्टि को प्रभावित कर समाज को विभाजित करना चाहता है, को समाप्त किया जा सकता है। इसी मे एक सशक्त भारत वर्ष का निर्माण सम्भव है, जिसे आचार्य शंकर ने अपने समय में साकार किया था तथा पुनः एक बार जिस अखंड भारत की आवश्यकता आज है, उसको इसी सिद्धान्त से स्थापित किया जा सकता है।

1-जापाऽपि तस्य विमा निमोभियमनिर्भर्वती।

क्षेचे वृषस्य नियमनामजं स भर्तुः कालोऽत्यगादिति तयोरतपतोरनेकः ॥शङ्करदिग्विजय, २.५०

2-आकर्णधन्निति बुबोध विप्रवर्यरतं जीनिकतमनिन्दितात्मा।

स्वप्नं भभंग वनितामणिरस्य भार्या गवं भविष्यति तु भी उन महात्माशरदिविजय, २.५४

3-शिवगुरः जस्सिमे निभावत कर्मशः सुतमोदितः।

उपनिनीषितमृनुरपि स्वयं नहि पोराकृमीरन्धिजय , ४.११

4-अत्रिनेनिगमांश्यतुमतएव गुरोःसषकान्।

जानि विस्मित महामती द्विजन्तामन भरदिविजय, ४.१६

5-इतिहासपुराणभारतस्मृतिभास्वाणि पुनः पुनर्मुदा ।

विबुधैः सुबुधी विलोकयन् सकत्व प्रतिविजय, ४.१०६

6-असत्प्रपन्वन्चतुराननोऽपि सन्नभोगयोगी पुरुषोतमोऽपि सन् ।

अनब्रजेता ऽप्यविरूपदर्शनी अत्यपूर्वी जगदीशङ्करदिग्विजय, ४.१०७

7-वेदे ब्रह्मसमस्ततदनिचये गान्यर्योपमस्तत्कया-

तात्पर्यार्थविवेचने मुरसमस्तरकर्मसंवर्णने ।

अनीज जैमिनिरव तद्वचनजोड्रोधवन्दे समी

व्यानेनैव में मूर्तिमानिव नवो वाणीविनार्वृतः॥ शङ्करदिग्विजय, ४.१९

8-त्यजति नूनमय चारणं चतो जलचरोऽम्व तवानुमतेन में।

सकलसंन्यसने परिकग्यिते यदि तवानुमतिः परिकल्पये ॥ अरदिग्विजय, ५.६५

9-इति निभी चकिता बदति स्फुट व्यक्ति साऽनुमति इतमम्बिका।

सति सुते भविता मम दर्शनं मृतवतस्तदुनेति विनिश्चयः॥

तदनु संन्यसनं मनसा व्यधामुमो लिकः।

शिशुरुपेत्य सरित्तटमवसन् प्रमेधाता शरदिग्विजय, ५.६६-६७४

10-बलदेव उपाध्याय, बोराचार्य, पृष्ठ संख्या ४२

11-जननं बहुधाऽर्चिताऽपि तस्मै बत नाऽऽयत्त व बन्धुता तदीया। जयकोपपरीवृत्तान्तरोऽसावधितांस्तानशपच्च निर्ममेन्द्रः ॥

संचित्य काष्ठानि मुशुष्कयन्ति गृहोपकण्ठे धृततोयपाषः।

स दक्षिणे दोष्णि ममन्य वद्धि ददाह तां तेन च संयतात्मा। भरदिग्विजय, १४.४०-४८

12-ईषभिराकुलहृदामितराबवाणं प्रख्यापयन्ननुमामदसीवभक्तिम्।जापसापरतटस्थममु कदाचिदाकारयन् निगमनेखरदेशिवेन्द्रः ॥शङ्करदिग्विजय, ६.६९

13-निन्यूसीवीरसौराष्ट्र महाराष्ट्रास्तमानारीः ।

देशाः पश्चिमादिसया ये शारदामहभागिनः ॥ शारदामडाम्नाप, ५

14-अङ्गवङ्गकतिद्वारच मगधोत्कलबार्बराः ।

गोवर्द्धनमठाधीनां देशाः प्राचीव्यवस्थिताः ॥ गोवर्धनमठाम्नाव, ४

15-कुरुकात्मीरकाम्लोजपाज्वालादिविभागतः ।

ज्योतिर्मठवभा देशा उदीचोदिगवस्थिताः ॥ ज्योतिर्मठाम्नाय, ५

16-बान्द्राविडकर्णाटककेरलादिप्रभेवतः । बुंद्धेर्यधीनां देशास्तेह्यवाचीदिगवस्थिताः ॥ श्रृंगेरीमडाम्नाय, ५

17-आदि शचूराचार्य के पश्चात् सभी चार मठों के सन्बालकों का पदेनशङ्कराचार्य नाम रख दिया गया, जो आज तक अबाधित रूप से प्रचनितहै।

18-विरुद्धचारणप्राप्तवाचार्याणां समजया।

लोकान् संशीनपन्वेव स्वधर्माप्रतिरोधतः ॥ महानुभासन, ३

19-स्वस्वराष्ट्रप्रतिष्ठित्यै संचारः सुविधीयताम्।

मठे तु नियतो वास आचार्यस्य न पुज्यते। महानुशासन, ४

20-विष्नानामपिबाहुल्यादेष धर्मः सनातनः ॥ महानुशासन, १२

21-धर्मस्य पद्धतिर्दोषा जगतः स्थितिहेतवे।

सर्व वर्णाधमायां हि यथाशास्त्रं विधीयते ॥ महानुशासन, २५

22-स भगवान् ‌सृष्वा इवं जगत् तस्य च स्थिति चिकीर्षुः मरीच्यादीन् प्रेसुद्धा प्रजापती प्रवृतितक्षणं धर्म ग्राह्यामान वेदोक्तम्। बोमद्रगवद्भीता, भाङ्करभाष्य, उपोद्वात

23-द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षणः । जगतःस्थितिकारण प्राणिनां साक्षात् अभ्युदयनिःश्रेयमहेतुः धर्मा ब्राह्मणाःवर्णिनिः आधमिनि व बेयोऽर्विभिः अनुष्ठीयमानः। श्रीमत्रगक्ट्रोला, शाङ्करभाष्य, उपोद्वात

24 -बीजकुराचार्य, बलदेव उपाध्याय हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण १९६२, पृष्ठ संख्या १४३

25 (i) सत्य ज्ञानमनन्तं ब्रह्म तैतिरीय उपनिषद, २.१

(ii) विज्ञानमानन्दं ब्रा। तैत्तिरीय उपनिषद, ३.१.२८

(iii) सदेव सौम्य इदमग्र आसीत् एकमेवाद्वितीयम् ॥ छान्दोग्योपनिषद, ६.२.१

26-प्राचीन भारतीय आचार्य, सम्पादक शशिप्रभा कुमार, रेवा प्रकाशन, नयी दिल्ली, २०१६

27-श्रीशङ्कराचार्य, बलदेव उपाध्याय, हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण १९६३, पृष्ठ संख्या १४३

28-प्राचीन भारतीय आचार्य, सम्पादक शशिप्रभा कुमार, रेवा प्रकाशन, नयी दिल्ली, २०१६

30-सोऽयं गुरोरुम्मधनप्रसक्त महत्तरं दोषमपाकरिष्णुः ।

अशेषवेदार्थविदास्तिकत्वात् तृषानलं प्राविशदेष धीरः ॥शङ्करदिग्विजय, ७.७५

31-धुत्वेति तां सत्वरमेष गच्छन् व्यालोकयत्तं तुषराशिसंस्थम् ।

प्रभाकराचैः प्रथितप्रभावे रूपस्थितं मामुर्विनः ॥ शङ्करदिग्विजय, ७,७७

32-बत्रा 55 प्लुता दिव्यशरीरभाज आचन्द्रतारं दिवि भोगजातम् ।

संभुञ्जते व्याधिकयानभिज्ञाः प्राहेममर्थ श्रुतिरेव साक्षात् ॥शङ्करदिग्विजय, ७.६६

33-अज्ञातसम्भवतिरोधिकयाऽपि वाणी यस्याः मितामिततपैव गुणातिरूपम्।

भागीरची बमूनवा परिचर्यमाणामेतां विगाह्य मुदितो मुनिरित्यभाणीत् ॥शङ्करदिग्विजय, ७.६७

34-KUMBH MELA ( History and religion Astronomy and Cosmo Biology) Subas Rai,Ganga,Kaveri Publishing House,Varansi, 1993,p-22

35-Published by Bhartiya Vidya Bhawan, Bombay,1965

36-KUMBHA INDIA'S AGELESS FESTIVAL, Dilip Kumar Roy, Bharatiya Vidya Bhawan, Bombay, 1965, Introduction, p. xai-x

37-जनाः कियनयो र पुष्पधन्वनः विभात्मिकाः विपदं समाधिताः।

पूर्वे व पचे कथमन्यथा स्थितिः कयं मुख्यां कथमेव पुरुषे शरदिग्विजय, ९.६९

38-इति विभिन्नयाय इव।

विदितागमोऽपि मुरिरक्षपिषुर्नियमं जगाद जगति प्रतिनाम् ॥शङ्करदिग्विजय, १००१

39-मोक्षकारणामा भलिलेय गरीयसी।

स्वरुपानुभन्दा भक्तिरित्यभिधीयते ॥ विवेकचूडामणि, ३२

40-शङ्करः साक्षात् शङ्करः। पारम्परिक रूप से सर्वमान्य

शङ्करं शङ्कराचार्य केशवं बादरायणम् ।

सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ॥ आचार्य शङ्कर की पारम्परिकप्रार्थना

( लेखक जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन के आचार्य है।उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित ‘ कुम्भ-2024’ पुस्तक से साभार।)

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