Bishni Devi Shah Wikipedia: देश की आजादी के लिए जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली वीरांगना ‘बिशनी देवी शाह’ की अद्भुत कहानी

Bishni Devi Shah Biography: बिशनी देवी शाह उत्तराखंड की एक महान स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई और महिलाओं को भी इस आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। आइए जानें उनके बारे में।;

Written By :  Shivani Jawanjal
Update:2025-01-17 10:15 IST

Bishni Devi Shah (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Bishni Devi Shah Ke Bare Mein: भारतीय गणराज्य में कई गुमनाम नायक और नायिकाएं है, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम (Swatantrata Sangram) और देश के निर्माण में अहम योगदान दिया, लेकिन उनके कार्यों को इतिहास में पर्याप्त पहचान नहीं मिली। इसमें बिशनी देवी शाह, अरुणा आसफ अली, मातंगिनी हाजरा, तारा रानी श्रीवास्तव और अन्य जैसे अनेक नाम शामिल है, जिन्होंने आंदोलन, सत्याग्रह, विदेशी वस्त्र बहिष्कार, और क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेकर देश की आज़ादी के लिए संघर्ष किया। साथ ही, समाज सुधार, शिक्षा, और महिलाओं के अधिकारों के लिए भी महत्वपूर्ण कार्य किए। लेकिन भारतीय गणराज्य के इतिहास में ऐसे कई नाम खो गए। इन गुमनाम नायकों का योगदान भारतीय इतिहास में प्रेरणा का स्रोत है। तथा इन्हे याद रखना और उनका सम्मान करना हमारी जिम्मेदारी है।

इस लेख के जरिये हम याद करेंगे महान नायिका बिशनी देवी शाह (Bishni Devi Shah) को जिन्होंने भारत को अंग्रेजों के कब्जे छुड़ाने के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया। लेकिन उनका नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज न हो सका। इस लेख के माध्यम से हम उनके जीवन, संघर्ष और उपलब्धियों का विस्तार से वर्णन करेंगे।

बिशनी देवी शाह उत्तराखंड (Uttarakhand) की एक महान स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई और महिलाओं को भी इस आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। वह स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल जाने वाली उत्तराखंड पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी थी। उनका जन्म उत्तराखंड के एक साधारण परिवार में हुआ था। लेकिन उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया और पति की मृत्यु के बाद महज 19 वर्ष की आयु में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया।

कैसा था बिशनी देवी शाह का प्रारंभिक जीवन (Bishni Devi Shah Ka Jivan Parichay)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

बिशनी देवी शाह का जन्म 12 अक्टूबर, 1902 को उत्तराखंड के बागेश्वर (Bageshwar) में हुआ था। बिशनी देवी के जन्म के समय, देश भर में स्वतंत्रता संग्राम की लहर फैल चुकी थी, जिसमें कुमाऊं भी शामिल था। तब भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन धीरे-धीरे तेज हो रहे थे। कुमाऊं में भी लोग ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जागरूक हो रहे थे, और इस क्षेत्र में कई छोटे-मोटे विद्रोह और संघर्ष हो रहे थे।

वह उत्तराखंड की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी (First Female Freedom Fighter Of Uttarakhand) के रूप में जानी जाती हैं, जिन्हें स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल भी जाना पड़ा। उनका बचपन काफी संघर्षपूर्ण रहा। चौथी कक्षा तक पढ़ने के बाद उनकी शिक्षा रोक दी गई और महज 13 साल की उम्र में उनका विवाह हुआ। लेकिन ये तो बस शुरुआत थी, उन्हें तो और संघर्ष का सामना करना था। उनकी जिंदगी में एक और चुनौती ने दस्तक दी और 1918 में शादी के महज तीन साल बाद पति की मृत्यु हो गई। मात्र 16 साल की उम्र में वे विधवा हो गईं।

विधवा होने के बाद, उन्हें ससुराल और मायके दोनों जगह उपेक्षा का सामना करना पड़ा। उस समय, जब कम उम्र में पति की मृत्यु हो जाती थी, तो समाज की परंपराओं और आर्थिक निर्भरता के कारण कई महिलाएं संन्यास लेकर ‘माई’ बनने को मजबूर हो जाती थीं। लेकिन बिशनी देवी शाह ने इस परंपरा को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। और ‘माई’ बनने के बजाय अपने जीवन को समाज और राष्ट्र के हित में समर्पित करने का निर्णय लिया। इन कठिन परिस्थियों में भी उनका हौसला डगमगाया नहीं और, जोश और साहस के साथ वो अपने जीवन में आगे बढ़ती रहीं।

19 साल की स्वतंत्रता सेनानी

जब बिशनी देवी के पति का निधन हुआ, उस समय, अंग्रेजों के अत्याचारों को समाप्त करने के लिए अल्मोड़ा में भी लगातार बैठकें आयोजित की जा रही थीं। कुमाऊं क्षेत्र, जिसमें अल्मोड़ा भी शामिल था, स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक सक्रिय केंद्र बन चुका था। और १९ साल की विधवा बिशनी देवी शाह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी। 1919 में बिशनी देवी शाह ने महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और स्वदेशी आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय हो गईं।

बिशनी देवी शाह का राष्ट्र प्रेम 19 वर्ष की आयु में राष्ट्रीय गीत के गायन से शुरू हुआ। कुमाऊंनी कवि गौर्दा के गीतों को महिलाएं रात्रि जागरण में गाती थीं, जिससे स्त्रियों में राष्ट्रीय भावना का संचार हुआ। बिशनी देवी ने अल्मोड़ा में नंदा देवी मंदिर की सभाओं में भाग लिया और स्वदेशी प्रचार कार्यों में सक्रिय रूप से काम किया। जेल जाते समय उन्हें सम्मानित किया, पूजा-आरती की, और फूल भी चढ़ाए, आंदोलनकारियों को प्रोत्साहित करने के लिए यह उनका एक तरीका था। बिशनी देवी शाह ने कुमाऊं में स्वदेशी के प्रचार-प्रसार के लिए अपनी सारी जमा पूंजी और दो नाली जमीन दान कर दी।

महिलाओं के नेतृत्व में फहराया तिरंगा

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

1929 से 1930 के बीच महिलाओं में जागरूकता तेजी से बढ़ने लगी। 1930 तक महिलाएं स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगीं। इस समय अल्मोड़ा ही नहीं, बल्कि रामनगर और नैनीताल की महिलाओं में भी जागृति फैल रही थी। 25 मई 1930 को अल्मोड़ा नगर पालिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निर्णय लिया गया। इस मौके पर स्वयंसेवकों का एक जुलूस निकला, जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं, लेकिन गोरखा सैनिकों ने इसे रोकने की कोशिश की। इस दौरान मोहनलाल जोशी और शांतिलाल त्रिवेदी पर हमला हुआ, जिससे वे घायल हो गए।

तब बिश्नी देवी शाह, दुर्गा देवी पंत, तुलसी देवी रावत और भक्तिदेवी त्रिवेदी के नेतृत्व में महिलाओं ने एक संगठित समूह बनाया। इन महिलाओं को कुन्ती देवी वर्मा, मंगला देवी पांडे, भागीरथी देवी, जीवन्ती देवी और रेवती देवी का सहयोग मिला। उनकी मदद के लिए बद्रीदत्त पांडे और देवीदत्त पंत भी अल्मोड़ा के अन्य साथियों के साथ पहुंचे। इससे महिलाओं का साहस बढ़ा और वे झंडारोहण करने में सफल रहीं।

घर-घर जाकर बेचा चरखा

बिशनी देवी शाह ने अल्मोड़ा में चरखे का मूल्य घटवाकर 5 रुपये करवा दिया और घर-घर जाकर महिलाओं को चरखा बेचा । उन्होंने महिलाओं को संगठित कर चरखा कातने की कला सिखाई। उनका कार्यक्षेत्र धीरे-धीरे अल्मोड़ा से बाहर भी फैलने लगा। 2 फरवरी, 1931 को बागेश्वर में महिलाओं का एक जुलूस निकला, जिसमें बिशनी देवी ने उनका उत्साह बढ़ाया और उन्हें बधाई दी। सेरा दुर्ग (बागेश्वर) में उन्होंने आधी नाली ज़मीन और 5 रुपये दान में दिए। वे आंदोलनकारियों के लिए छिपकर धन जुटाने, सामग्री पहुँचाने और पत्रवाहक का कार्य भी करती थीं।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दो बार जेल गई बिशनी देवी शाह

25 अक्तूबर 1930 को जब अल्मोड़ा नगर पालिका में तिरंगा फहराया गया, तो बिशनी देवी शाह को इसके कारण दिसंबर 1930 में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें जेल में कठोर यातनाएँ दी गईं, लेकिन इसके बावजूद उनका साहस और उत्साह कम नहीं हुआ। और इस तरह बिशनी देवी शाह आजादी के लिए जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली महिला बन गई ।जेल से रिहा होने के बाद, उन्होंने अल्मोड़ा में स्वदेशी आंदोलन के प्रचार-प्रसार का कार्य शुरू किया।

राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी निरंतर सक्रियता के कारण 7 जुलाई 1933 को उन्हें दूसरी बार गिरफ्तार कर, फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया, जहाँ उन्हें 9 महीने की सजा और 200 रुपये जुर्माना हुआ। उस समय 200 रुपये काफी बड़ी रकम मानी जाती थी। जुर्माना न चुका पाने पर उनकी सजा को बढ़ाकर एक साल कर दिया गया, लेकिन उनकी स्वास्थ्य की स्थिति बिगड़ने पर उन्हें जल्द ही रिहा कर दिया गया।

बेख़ौफ़ बिशनी देवी शाह ने किया था धारा-144 उल्लंघन

फतेहगढ़ जेल से रिहा होने के बाद 1934 में मकर संक्रांति के अवसर पर बागेश्वर में उत्तरायणी मेला आयोजित किया गया था। जिसमें अंग्रेज सरकार ने धारा-144 लागू कर दी थी। इसके बावजूद बेख़ौफ़ बिशनी देवी शाह ने मेले में खादी की प्रदर्शनी लगाई।

बिशनी देवी शाह के अन्य महत्वपूर्ण योगदान

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

1934 में हुई रानीखेत में हर गोविंद पंत की अध्यक्षता में बैठक हुई जिसमे बिशनी देवी शाह को कार्यकारिणी सदस्य के रूप में निर्वाचित किया गया।

23 जुलाई,1935 में अल्मोड़ा के कांग्रेस भवन में तिरंगा फहराया।

कुमाऊं में जनजागरण के लिए आईं विजय लक्ष्मी पंडित ने बिशनी देवी के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान की सराहना की।

26 जनवरी, 1940 में अल्मोड़ा में फिर से झंडारोहण किया।

1940 - 41 में बिशनी देवी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी भाग लिया।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी बिशनी देवी ने अल्मोड़ा में इस आंदोलन में भाग लिया और सक्रिय भागीदारी की।

15 अगस्त, 1947 को जब देश स्वतंत्र हुआ, तब बिशनी देवी ने अल्मोड़ा में तिरंगे के साथ विशाल जुलूस का नेतृत्व किया।

कविता के जरिये अडिग संकल्प का प्रदर्शन

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बिशनी देवी शाह को दो बार जेल भेजा गया, लेकिन यह साहसी महिला कभी भयभीत नहीं हुई। जेल में भी उन्होंने प्रचलित गीतों की पंक्तियां दोहराकर अपनी शक्ति और अडिग संकल्प का प्रदर्शन किया। जेल में वह अक्सर “जेल ना समझो बिरादर, जेल जाने के लिए, कृष्ण का मंदिर है, प्रसाद पाने के लिए।” पंक्तिया दोहराया करती थी |

अंतिम दिन

आर्थिक अभाव और अपनों की कमी के कारण बिशनी देवी का अंतिम समय बेहद कठिन परिस्थितियों में बीता। वर्ष 1974 में 73 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। आजादी के आंदोलन में महिलाओं के योगदान की चर्चा हो तो बागेश्वर की बिशनी देवी शाह का नाम हमेशा अग्रणी रहेगा। वह उत्तराखंड की पहली महिला थीं, जिन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किया गया। बावजूद इसके, पहाड़ जैसी दृढ़ता वाली बिशनी देवी ने जेल में भी कभी हिम्मत नहीं हारी।

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