Hindu marriage: हिंदू विवाह संस्कार कोई इवेंट नहीं
Hindu marriage: बीते शुक्रवार सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक बहुत ही महत्वपूर्ण और संजीदा फैसला दिया गया हिंदू विवाह के अहम दर्जे को लेकर
Hindu marriage: बीते शुक्रवार सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक बहुत ही महत्वपूर्ण और संजीदा फैसला दिया गया। फैसला था हिंदू विवाह के अहम दर्जे को लेकर। सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि हिंदू विवाह कोई व्यापारिक लेन-देन नहीं है और न ही नाचने- गाने और खाने-पीने का मौका भर है। यह एक संस्कार और धार्मिक उत्सव है जिसमें जब तक सप्तपदी जैसी सभी रस्में नहीं निभाई जाती हैं, उसे हिंदू विवाह नहीं माना जा सकता है। क्या होती है सप्तपदी और क्या होती है वैवाहिक संस्था, आइए समझते हैं। सप्तपदी हिंदू विवाह का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र अंग है, जिसके बिना विवाह पूर्ण नहीं हो सकता। देव साक्षी में वर उत्तर दिशा में कन्या को सात मंत्रों के द्वारा सप्त मण्डलिकाओं में सात पदों तक साथ ले जाता है। अग्नि की चार परिक्रमाओं से यह कृत्य अलग है। जिस विवाह में सप्तपदी होती है, वह 'वैदिक विवाह' कहलाता है। सप्तपदी में अन्न वृद्धि, बल वृद्धि, धन वृद्धि, सुख वृद्धि, परिवार पालन, ऋतु व्यवहार, मित्रता को स्थिर रखना जैसे सात सूत्रों को आत्मसात करना होता है और यही दांपत्य जीवन की सफलता का मूल मंत्र भी है । सप्तपदी के बाद ही कन्या को वर के वाम अंग में बैठाया जाता है। विवाह महिलाओं और पुरूषों को पारिवारिक जीवन में प्रवेश करवाने की संस्था है । जिस संस्था द्वारा मानव यौन सम्बन्धों का नियमन करता है, उसे विवाह की संज्ञा दी जाती है। विवाह एक प्रजननमूलक परिवार की स्थापना की समाज स्वीकृत विधि है ।
हाल ही में दो कमर्शियल पायलेट्स जिन्होंने वैद्य हिंदू विवाह सेरेमनी नहीं की थी, के तलाक के मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह बात कही गई। इसके साथ ही कोर्ट ने उनके मैरिज सर्टिफिकेट को भी न केवल रद्द कर दिया बल्कि दोनों को कानूनी शादीशुदा मानने से भी इंकार कर दिया। चूंकि जब हिंदू विवाह सेरेमनी ही नहीं हुई तो उनकी तलाक की प्रक्रिया और पति और उसके परिवार वालों पर लगाया गया दहेज का केस भी खारिज कर दिया। दरअसल यह फैसला उन लोगों के लिए सबक है जिन्होंने हिंदू विवाह को संस्कार के स्थान पर एक इवेंट बना दिया है। यह एक पुरुष और महिला द्वारा एक दूसरे के साथ अपने रिश्ते को स्वीकार करने का उत्सव है, जिसमें वे दोनों इसके बाद से पति-पत्नी कहलाएंगे। हमने अपने ही विवाह संस्कार का इतना मखौल बना दिया है कि अग्नि को साक्षी मानकर लिए गए फेरों की पवित्रता भी कलुषित हो उठी है, यह कलुषता चाहे पति या पत्नी किसी की भी तरफ से हो। विवाह की मर्यादा और पवित्रता की रक्षा करना और उसे निभाना यही उसका अर्थ हुआ करता था।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह संस्कार में बैटर हाफ जैसा कोई शब्द मान्य नहीं होता है । क्योंकि यहां पति-पत्नी आधे- अधूरे रूप में नहीं बल्कि अपनी स्वयं की पहचान के साथ अपने आप में पूर्ण रूप में साथ में आते हैं। अर्धांगिनी कहलाए पत्नी तो भी अपनी पहचान के साथ ही स्वीकार की जाती है। इस तरह हिंदू विवाह स्त्री और पुरुष दोनों को आत्म सम्मान के साथ बराबरी का अधिकार प्रदान करते हुए सामने आता है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की भी ताकीद की कि स्त्री और पुरुष हिंदू विवाह में बंधने से पहले अपनी पूरी मैच्योरिटी के साथ सोच ले कि यह सिर्फ पति-पत्नी का स्टेटस पाने का उपक्रम मात्र नहीं है और न ही यह एक ऐसा आयोजन है, जिसके बाद आप एक दूसरे पर दबाव डालकर दहेज या अन्य उपहारों की मांग या लेनदेन करें। यह बात समाज के दहेज़ लोभियों को समझ आनी चाहिए। विवाह समाज की मूलभूत और महत्वपूर्ण इकाई परिवार के निर्माण का प्रयोजन भी है, जिसके पोषण से भावनात्मक जुड़ाव, समाजीकरण, निरंतरता और सह अस्तित्व की धारणा मजबूत होती है। लेकिन इस समय विवाह के तौर-तरीकों में जो बदलाव दिखाई दे रहे हैं । वह औद्योगिक अर्थव्यवस्था की आगमन के कारण हैं, जिसने विवाह संस्कार की संस्कृति में परिवर्तन कर उसे भी बाजारवाद का एक हिस्सा बना दिया है, जिससे विवाह और परिवार संस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। अब हम विवाह के संस्कारों को करने के नाम पर उपभोक्ता नहीं बल्कि उत्पाद बनकर प्रयुक्त हो रहे हैं। धर्म , अर्थ, काम के महत्वपूर्ण संयोग से बनी विवाह संस्था जिसमें संतान उत्पत्ति की राह खुलती है, वह अब बदलने लगी है। पुराने समय की विवाह संस्था काफी स्थिर और मजबूत हुआ करती थी जहां संबंध विच्छेद जैसे कृत्यों को कभी भी प्रोत्साहित नहीं किया जाता रहा।
लेकिन आज भारतीय शादियों में बड़े-बड़े बदलावों को देखा जा सकता है, जो कि भव्य आयोजनों, मेहमानों की लंबी लिस्ट, इवेंट्स की श्रृंखला, हैसियत से ज्यादा खर्चा, संगीत, आर्केस्ट्रा, फोटोशूट आदि अनेक प्रक्रिया में बिखर कर रह गया है, जिससे विवाह संस्कार का मूल अर्थ ही कहीं दब गया है। इतना होने के बावजूद भी आज भी हम यह नहीं कह सकते हैं कि यह विवाह चल पाएगा या नहीं । क्योंकि बढ़ते औद्योगीकरण ने सबको आत्मकेंद्रित बना दिया है। इसलिए ऐसे संक्रमण के समय में जब आवश्यकता है कि नई पीढ़ी को विवाह संस्था के मूल अर्थ से वापस जोड़ा जाए, सुप्रीम कोर्ट यह फैसला हिंदू विवाह का मखौल बनाने को, इसका दुरुपयोग करने के प्रति हतोत्साहित करेगा और विवाह संस्था के सिर्फ कानूनन ही नहीं बल्कि सामाजिक और धार्मिक अर्थ को भी बनाए रखने में सहायक सिद्ध होगा।
( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)