Chetak Ki Kahani: इतिहास के पन्नों में अमर महाराणा प्रताप के वीर घोड़े चेतक की शौर्यगाथा

Maharana Pratap Ghoda Chetak Ki Kahani: महाराणा प्रताप और चेतक की कहानी भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में अंकित है।;

Written By :  Shivani Jawanjal
Update:2025-03-11 16:01 IST

Maharana Pratap Ghoda Chetak Ki Kahani (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

History Of Maharana Pratap Horse Chetak: भारत के इतिहास में कई वीर गाथाएँ दर्ज हैं, लेकिन महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) और उनके घोड़े चेतक (Horse Chetak) की कहानी अद्वितीय स्थान रखती है। यह कथा केवल वीरता और बलिदान की मिसाल नहीं, बल्कि अटूट निष्ठा, साहस और देशभक्ति का प्रतीक भी है। चेतक, महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय और वफादार घोड़ा था, जिसने हल्दीघाटी के युद्ध (Haldighati Battle) में अप्रतिम स्वामीभक्ति और अद्भुत वीरता का परिचय दिया। अपने स्वामी को सुरक्षित निकालने के लिए चेतक ने अपनी आखिरी सांस तक संघर्ष किया, जिससे वह इतिहास में अमर हो गया।

महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय और प्रसिद्ध घोड़े का नाम चेटक था, जिसे आम भाषा में चेतक कहा जाने लगा। यह घोड़ा न केवल महाराणा प्रताप के प्रति अपनी निष्ठा और वीरता के लिए प्रसिद्ध था, बल्कि हल्दीघाटी के युद्ध में उसकी भूमिका ने उसे इतिहास में अमर कर दिया।

चेतक का परिचय

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

चेतक (Chetak) काठियावाड़ी नस्ल का एक अत्यंत शक्तिशाली और तेज़ घोड़ा था। गुजरात (Gujrat) के चारण (Charan) व्यापारी तीन घोड़े चेतक, त्राटक और अटक को लेकर मेवाड़ आए थे। इनमें से अटक परीक्षण के दौरान काम आया जबकि महाराणा प्रताप ने त्राटक अपने छोटे भाई शक्ति सिंह को दे दिया और चेतक को अपने लिए चुन लिया। इन घोड़ों के बदले में, महाराणा प्रताप ने चारण व्यापारियों को जागीर के रूप में गढ़वाड़ा और भानोल नामक दो गाँव भेंट किए।

चेतक का रंग और विशेषताएँ

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

चेतक का रंग ऐतिहासिक रूप से "ग्रुलो" या नीला-ग्रे माना जाता है, जो काठियावाड़ी नस्ल (Kathiawari Breed) में पाया जाने वाला एक विशिष्ट आदिम रंग है। इसे स्थानीय भाषा में "रोजो" भी कहा जाता था। इसीलिए ऐतिहासिक साहित्य और लोक कथाओं में महाराणा प्रताप को "हो नीला घोड़ा रा अस्वार" या "ओ नीले घोड़े के सवार" कहकर संबोधित किया गया है।

चेतक एक असाधारण घोड़ा था जो अपनी गति, शक्ति और बुद्धिमत्ता के लिए प्रसिद्ध था। कहा जाता है कि उसके सिर पर एक प्राकृतिक निशान था जो हाथी की सूंड जैसा दिखता था, जिससे वह देखने में भी बेहद विशिष्ट लगता था।

महाराणा प्रताप और चेतक का अनोखा रिश्ता

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) और उनके प्रिय घोड़े चेतक (Chetak) का रिश्ता सिर्फ एक योद्धा और उसके घोड़े का नहीं था, बल्कि यह अटूट निष्ठा, प्रेम और बलिदान की एक अनोखी मिसाल थी। चेतक न केवल एक घोड़ा था, बल्कि वह महाराणा प्रताप का सबसे विश्वासपात्र साथी और उनके संघर्षों का साक्षी था।

महाराणा प्रताप के जीवन में चेतक की भूमिका एक घोड़े से कहीं अधिक थी। वह न केवल युद्ध के मैदान में उनका साथी था, बल्कि संकट के समय भी उनके साथ खड़ा रहा। चेतक को अपनी असाधारण गति, शक्ति और बुद्धिमत्ता के लिए जाना जाता था। वह एक ऐसा घोड़ा था, जो अपने स्वामी की भावनाओं और परिस्थितियों को समझता था।

महाराणा प्रताप ने चेतक को अपने परिवार के सदस्य की तरह रखा और उसे युद्ध के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किया। चेतक को न केवल महाराणा की भाषा समझने की क्षमता थी, बल्कि वह अपने स्वामी की भावनाओं को भी भांप सकता था।

चेतक और उसकी नकली हाथी की सूंड– एक अनोखी युद्धनीति

महाराणा प्रताप जब भी चेतक को युद्ध के मैदान में लेकर जाते, तो उसके मुंह पर हाथी की नकली सूंड बांध दी जाती थी। यह रणनीति मुग़लों के खिलाफ युद्ध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। नकली सूंड का उद्देश्य शत्रु सेना के हाथियों को भ्रमित और भयभीत करना था, जिससे युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप को रणनीतिक बढ़त मिलती थी।

इतिहास और प्रमाण

उदयपुर के सिटी पैलेस में महाराणा प्रताप और चेतक की कई प्रतिमाएँ देखने को मिलती हैं, जिनमें चेतक के मुंह पर हाथी की सूंड बंधी हुई दिखाई देती है। इसके अलावा, कई पुरानी पेंटिंग्स और ऐतिहासिक चित्रों में भी चेतक के मुंह पर नकली सूंड का उल्लेख मिलता है।

इन प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चेतक को वास्तव में युद्ध के दौरान हाथी की सूंड से सजाया जाता था, जो राजपूतों की युद्धकला का एक अनूठा उदाहरण था। यह महाराणा प्रताप की रणनीतिक सोच और चेतक की बुद्धिमत्ता का प्रतीक है, जिसने हल्दीघाटी के युद्ध में उनकी जीत सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई।

आखिर ऐसे क्यों किया जाता था?

अब सवाल यह उठता है कि आखिर चेतक के मुंह पर हाथी की नकली सूंड बांधने की जरूरत क्यों पड़ी? दरअसल, मुग़लों की सेना न केवल संख्या में बड़ी थी, बल्कि उनके पास बड़ी संख्या में हाथी भी मौजूद थे, जो युद्ध के दौरान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। इसके विपरीत, मेवाड़ की सेना अपेक्षाकृत छोटी थी और उनके पास सीमित संख्या में हाथी थे। इस स्थिति में, राजपूत सेना को अधिकतर घोड़ों पर निर्भर रहना पड़ता था, और स्वयं महाराणा प्रताप भी चेतक पर सवार होकर युद्ध लड़ते थे।

हाथियों को भ्रमित करने की अनूठी चाल

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

चेतक को हाथी की सूंड बांधने के पीछे एक गहरी रणनीति थी। युद्ध के दौरान, जब कोई घोड़ा नकली सूंड के साथ हाथियों के सामने जाता, तो हाथी उसे अपना छोटा बच्चा समझते थे और उस पर हमला नहीं करते थे। इस भ्रम का लाभ उठाकर मेवाड़ी सैनिक आसानी से मुग़ल सेना के हाथियों के बीच घुस सकते थे और उन पर आक्रमण कर सकते थे।

रणनीति का प्रभाव

इस अनोखी रणनीति ने हल्दीघाटी के युद्ध में मेवाड़ (Mewar) की सेना को महत्वपूर्ण बढ़त दिलाई। इससे राजपूत योद्धाओं को हाथियों के बीच से रास्ता बनाने और शत्रु पर अप्रत्याशित हमला करने का अवसर मिला। ऐतिहासिक दस्तावेजों और पेंटिंग्स में भी इस रणनीति का जिक्र मिलता है, जो यह दर्शाता है कि यह केवल एक कथा नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक युद्धनीति थी, जिसने युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

हल्दीघाटी युद्ध (1576) में चेतक की वीरता

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

18 जून 1576 को पश्चिमी भारत में राजस्थान (Rajasthan) के अरावली पर्वतों (Arawali Mountain Ranges) में लड़े गए ऐतिहासिक हल्दीघाटी के युद्ध (Haldi Ghati War) में चेतक ने अपनी अद्वितीय स्वामिभक्ति, बुद्धिमत्ता और वीरता का प्रदर्शन किया। युद्ध के दौरान, चेतक को एक हाथी के मुखौटे से सजाया गया था, ताकि मुग़ल सेना के हाथियों को भ्रमित और भयभीत किया जा सके। यह रणनीति महाराणा प्रताप की युद्धनीति का हिस्सा थी, जिसमें चेतक की भूमिका महत्वपूर्ण रही।

इस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना का सामना मुगल सम्राट अकबर के सेनापति मान सिंह के नेतृत्व में विशाल मुगल सेना से हुआ। मुगलों की संख्या अत्यधिक अधिक थी, लेकिन महाराणा प्रताप और उनकी सेना ने पूरे साहस के साथ उनका सामना किया।

युद्ध के दौरान चेतक ने अपने अद्भुत कौशल का परिचय दिया। महाराणा प्रताप जब हाथी पर सवार मुगल सेनापति मान सिंह (Mughal Senapati Man Singh) पर आक्रमण करने जा रहे थे, तो चेतक ने सीधे मुग़ल सेनापति मानसिंह के हाथी पर अपने पैर रख दिए, जिससे महाराणा प्रताप को मानसिंह पर भाले से सीधा वार करने का अवसर मिला। हालांकि, इसी संघर्ष के दौरान चेतक का एक पैर हाथी की सूंड में बंधी तलवार से कट गया, जिससे वह गंभीर रूप से घायल हो गया।

चेतक का अंतिम बलिदान

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युद्ध का परिणाम प्रतिकूल होता देख महाराणा प्रताप को अपने सेनापतियों ने रणभूमि से सुरक्षित निकलने की सलाह दी, ताकि वे भविष्य में अपनी सेना को पुनर्गठित कर सकें। महाराणा प्रताप को युद्धभूमि से निकालने की जिम्मेदारी चेतक ने उठाई।

हालांकि चेतक को युद्ध के दौरान गंभीर चोटें आ चुकी थीं, लेकिन उसने अपने स्वामी को सुरक्षित स्थान तक पहुँचाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी। उसने 25 फीट चौड़े नाले को छलांग लगाकर पार किया। इस छलांग ने महाराणा प्रताप को मुगलों से बचा लिया, लेकिन चेतक अपनी अंतिम सांसें गिनने लगा। घायल चेतक जब महाराणा प्रताप को लेकर सुरक्षित स्थान तक पहुँचा तब अत्यधिक रक्तस्राव और गंभीर चोटों के कारण वह गिर पड़ा और अंततः वह वीरगति को प्राप्त हुआ।

महाराणा प्रताप और उनके भाई शक्तिसिंह ने स्वयं अपने प्रिय घोड़े का दाह-संस्कार किया। आज भी राजसमंद जिले (Rajasmand District) के हल्दीघाटी गांव में चेतक की समाधि स्थित है, जो उसकी स्वामिभक्ति और वीरता की अमर निशानी है।

कविताओं और गीतों में अमर चेतक

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चेतक की वीरता, स्वामीभक्ति और बलिदान को कई कविताओं और लोकगीतों में अमर किया गया है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि श्यामनारायण पाण्डेय (Shyamnarayan Pandey) ने अपने महाकाव्य हल्दीघाटी में "चेतक की वीरता" नाम से एक सुंदर और प्रेरणादायक कविता लिखी है। इस कविता में चेतक के अदम्य साहस, स्वामीभक्ति और बलिदान का वर्णन करते हुए श्यामनारायण लिखते हैं...

"राणा की पुतली फिरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था,

हवा से भी तेज़ था, बिजली से भी झपट जाता था।

राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक उस पार था,

स्वामी की रक्षा के खातिर, जीवन भी बलिदान था"।

श्यामनारायण पाण्डेय की यह कविता राजस्थानी वीरता की कहानियों का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी है। आज भी यह कविता साहस, स्वामीभक्ति और बलिदान का प्रतीक मानी जाती है। चेतक की बहादुरी को लोकगीतों, कहानियों और इतिहास में आज भी याद किया जाता है।

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