प्राचीन मान्यताओं और पुराणों में मथुरा
Mathura: बौद्ध ग्रंथों में जिक्र है कि बुद्ध के शिष्य महाकाच्यायन ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी थी। पतंजलि के महाभाष्य में मथुरा शब्द कई बार आया है।
Mathura History: मथुरा के विषय में आज तक कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हो सका है। लेकिन इस नगरी का अस्तित्व ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी से है, यह सिद्ध हो चुका है। बौद्ध ग्रंथों में जिक्र है कि बुद्ध के शिष्य महाकाच्यायन ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी थी। पतंजलि के महाभाष्य में मथुरा शब्द कई बार आया है। कई स्थानों पर वासुदेव द्वारा कंस के नाश का उल्लेख नाटकीय संकेतों, चित्रों एवं गाथाओं के रूप में आया है। आदिपर्व में आया है कि मथुरा अति सुन्दर गायों के लिए उन दिनों प्रसिद्ध था।
वराह पुराण में आया है - विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो - मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। पद्म पुराण में आया है - माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है। हरिवंश पुराण ने मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है और एक श्लोक है - मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है। ब्रह्म पुराण में सन्दर्भ आया है कि कृष्ण की सम्मति से वृष्णियों एवं अन्धकों ने काल यवन के भय से मथुरा का त्याग कर दिया।
वायु पुराण का कथन है कि राम के भाई शत्रुघ्न ने मधु के पुत्र लवण को मार डाला। मधुवन में समुद्धिशाली नगर बनाया। घट-जातक में मथुरा को उत्तर मथुरा कहा गया है (दक्षिण के पाण्डवों की नगरी भी मधुरा के नाम से प्रसिद्ध थी), वहाँ कंस एवं वासुदेव की गाथा भी आयी है , जो महाभारत एवं पुराणों की गाथा से भिन्न है। रघुवंश में इसे मधुरा नाम से शत्रुघ्न द्वारा स्थापित कहा गया है। विष्णु पुराण में कहा गया है इसके प्रणयन के पूर्व मथुरा में हरि की एक प्रतिमा प्रतिष्ठापित हुई थी। वायु पुराण ने भविष्यवाणी के रूप में कहा है कि मथुरा, प्रयाग, साकेत एवं मगध में गुप्तों के पूर्व सात नाग राजा राज्य करेंगे।
ह्वेनसाँग के अनुसार मथुरा में अशोकराज द्वारा तीन स्तूप बनवाये गये थे, पाँच देवमन्दिर थे और बीस संघाराम थे, जिनमें 2000 बौद्ध रहते थे। इतिहासकार जेम्स ऐलन का कथन है कि मथुरा के हिन्दू राजाओं के सिक्के ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी के आरम्भ से प्रथम शताब्दी के मध्य भाग तक के हैं। मथुरा के इतिहास और प्राचीनता के विषय में शिलालेख भी प्रकाश डालते हैं। खारवेल के प्रसिद्ध अभिलेख में कलिंगराज (खारवेल) की उस विजय का वर्णन हैं, जिसमें मधुरा की ओर यवनराज दिमित का भाग जाना उल्लिखित है। कनिष्क, हुविष्क एवं अन्य कुषाण राजाओं के शिलालेख भी पाये जाते हैं।
ईसा पूर्व बसी थी नगरी
प्राप्त साक्ष्यों के अधर पर यह माना जा सकता है कि ईसा के 5 या 6 शताब्दियों पूर्व मथुरा एक समृद्धिशाली पुरी थी, जहाँ महाकाव्य-कालीन हिन्दू धर्म प्रचलित था और आगे चलकर बौद्ध व जैन धर्म का विस्तार हुआ। बाद में फिर यहाँ सनातन धर्म फलाफूला। सातवीं शताब्दी में जब ह्वेनसाँग यहाँ आया था तब यहाँ बौद्ध और सनातन धर्म एक-समान पूजित थे।
अग्नि पुराण में एक बात यह लिखी है कि राम की आज्ञा से भरत ने मथुरा पुरी में शैलूष के तीन कोटि पुत्रों को मार डाला। लगभग दो सहस्त्राब्दियों से अधिक काल तक मथुरा कृष्ण-पूजा और भागवत धर्म का केन्द्र रहा है। वराह पुराण में मथुरा की महत्ता और इसके उपतीर्थों के विषय में लगभग एक हजार श्लोक पाये जाते हैं। भागवत और विष्णु पुराण में कृष्ण, राधा, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन एवं कृष्णलीला के विषय में बहुत-कुछ लिखा गया है। पद्म पुराण का कथन है कि यमुना जब मथुरा से मिल जाती है तो मोक्ष देती है; यमुना मथुरा में पुण्यफल उत्पन्न करती है। जब यह मथुरा से मिल जाती है तो विष्णु की भक्ति देती है।
पुराणों में मथुरा
पुराणों में मथुरा के गौरवमय इतिहास का विषद विवरण मिलता है। अनेक धर्मों से संबंधित होने के कारण मथुरा में बसने और रहने का महत्त्व क्रमश: बढ़ता रहा। ऐसी मान्यता थी कि यहाँ रहने से पाप रहित हो जाते हैं । यहां रहने करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। वराह पुराण में कहा गया है कि इस नगरी में जो लोग शुध्द विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात देवता हैं।
वराह पुराण में यहाँ की भौगोलिक स्थिति का भी वर्णन मिलता है। यहाँ मथुरा की माप बीस योजन बतायी गयी है। इस मंडल में मथुरा, गोकुल, वृन्दावन, गोवर्धन आदि नगर, ग्राम एवं मंदिर, तड़ाग, कुण्ड, वन एवं अनगणित तीर्थों के होने का विवरण मिलता है।
ब्रह्म पुराण में वृष्णियों एवं अंधकों के स्थान मथुरा पर, राक्षसों के आक्रमण का भी विवरण मिलता है। वृष्णियों एवं अंधकों ने डर कर मथुरा को छोड़ दिया था। उन्होंने अपनी राजधानी द्वारावती (द्वारिका) में प्रतिष्ठित की थी। मगध नरेश जरासंध ने 23 अक्षौहिणी सेना से इस नगरी को घेर लिया था। अपने महाप्रस्थान के समय युधिष्ठर ने मथुरा के सिंहासन पर वज्रनाभ को आसीन किया। सात नाग-नरेश गुप्तवंश के उत्कर्ष के पूर्व यहाँ पर राज्य कर रहे थे। मथुरा की स्थापना श्रावण महीने में होने के कारण ही संभवत: इस माह में उत्सव आदि करने की परंपरा है। पुरातन काल में ही यह नगरी इतनी वैभवशाली थी कि मथुरा नगरी को देवनिर्मिता कहा जाने लगा था।
मथुरा के महाभारत काल के राजवंश को यदु अथवा यदुवंशीय कहा जाता है। यादव वंश में मुख्यत: दो वंश हैं। जिन्हें-वीतिहोत्र एवं सात्वत के नाम से जाना जाता है। सात्वत वर्ग भी कई शाखाओं में बँटा हुआ था। यदु और यदु वंश का प्रमाण ॠग्वेद में भी मिलता है। यह माना जा सकता है कि यदु तुर्वश किसी दूरस्थ प्रदेश से यहाँ आए थे। वैदिक साहित्य में सात्वतों का भी नाम आता है। शतपथ ब्राह्मण में आता है कि एक बार भरतवंशी शासकों ने सात्वतों से उनके यज्ञ का घोड़ा छीन लिया था। भरतवंशी शासकों द्वारा सरस्वती, यमुना और गंगा के तट पर यज्ञ किए जाने के वर्णन से राज्य की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान हो जाता है। सात्वतों का राज्य भी समीपवर्ती क्षेत्रों में ही रहा होगा। इस प्रकार महाभारत एवं पुराणों में वर्णित सात्वतों का मथुरा से संबंध स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है।
क्या है श्रीकृष्ण जन्मभूमि विवाद
कहा जाता है कि मुगल शासक औरंगजेब ने 1669 में हमला करके मथुरा के श्रीकृष्ण मंदिर को तुड़वा दिया था और इसके एक हिस्से में ईदगाह का निर्माण कराया था। औरंगजेब के कार्यकाल में बनी शाही ईदगाह मस्जिद को वहां से हटाने की मांग बरसों से चली आ रही है। हाल फिलहाल, इस मामले में एक केस मथुरा जिला सिविल न्यायालय में दायर है। श्रीकृष्ण विराजमान की याचिका में 13.37 एकड़ जमीन पर मालिकाना हक की मांग की गई है। श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान और शाही ईदगाह प्रबंध समिति के बीच पांच दशक पूर्व हुए समझौते को अवैध बताते हुए उसे निरस्त करने और मस्जिद को हटाकर पूरी जमीन मंदिर ट्रस्ट को सौंपने की मांग की गयी है। ये केस भगवान श्रीकृष्ण विराजमान, कटरा केशव देव खेवट, मौजा मथुरा बाजार शहर की ओर से उनकी सखी के रूप में अधिवक्ता रंजना अग्निहोत्री और छह अन्य भक्तों ने दाखिल किया है। याचिका में यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, कमेटी ऑफ मेनेजमेंट ट्रस्ट शाही ईदगाह मस्जिद, श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट, श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान को पार्टी बनाया गया है।
हिंदू पक्ष का दावा है कि भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्रीकृष्ण का जन्मस्थान उसी ढांचे के नीचे स्थित है, जहां पर प्राचीन केशवराय मंदिर हुआ करता था। दावा यह भी किया जाता है कि 1935 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वाराणसी के हिंदू राजा को मथुरा की विवादित जमीन के अधिकार सौंप दिए थे। इसके बाद 1951 में श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बनाकर तय हुआ था कि यहां दोबारा भव्य मंदिर का निर्माण होगा। वर्ष 1958 में श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ नाम की संस्था का गठन हुआ, जिसने मुस्लिम पक्ष से समझौता कर लिया।
क्या है 1968 का समझौता?
1951 में श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बनाकर यह तय किया गया कि वहां दोबारा भव्य मंदिर का निर्माण होगा और ट्रस्ट उसका प्रबंधन करेगा। इसके बाद 1958 में श्रीकृष्ण जन्म स्थान सेवा संघ नाम की संस्था का गठन किया गया था। इस संस्था ने 1964 में पूरी जमीन पर नियंत्रण के लिए एक सिविल केस दायर किया। लेकिन 1968 में खुद ही मुस्लिम पक्ष के साथ समझौता कर लिया। इसके तहत मुस्लिम पक्ष ने मंदिर के लिए अपने कब्जे की कुछ जगह छोड़ी और उन्हें मुस्लिम पक्ष को उसके बदले पास की जगह दे दी गई।
श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर धार्मिक अतिक्रमण के खिलाफ केस को लेकर सबसे बड़ी रुकावट प्लेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1991 भी है। नरसिम्हा राव सरकार में पास हुए इस कानून में कहा गया है कि 15 अगस्त, 1947 को देश की आजादी के समय धार्मिक स्थलों का जो स्वरूप था, उसे बदला नहीं जा सकता। इस एक्ट से अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि को अलग रखा गया था।
अदालती विवाद
वर्तमान में इस मामले को लेकर जिला जज व सिविल जज सीनियर डिवीजन के न्यायालय में वाद व याचिका विचाराधीन है । आये दिन कोई न कोई कृष्ण भक्त न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर मामले को जिंदा बनाये हुए है । जिला न्यायालय में वाद के बाद अब एक बार फिर यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया है ।
- सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई है जिसमें कृष्ण जन्म भूमि को समझौते के जरिये मुसलमानों को देने को चुनौती दी गई है।
- याचिका में कहा गया है कि हिंदुओं के साथ धोखा करके कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की संपत्ति बिना किसी कानूनी अधिकार के अनधिकृत रूप से समझौता करके शाही ईदगाह को दे दी गई जो कि गलत है।
- कोर्ट घोषित करे कि श्रीकृष्ण जन्म सेवा संस्थान की ओर से 12 अगस्त, 1968 को शाही ईदगाह के साथ किया गया समझौता बिना क्षेत्राधिकार के किया गया था, इसलिए वह किसी पर भी बाध्यकारी नहीं है।
- याचिका में यह भी मांग की गई है कि कृष्ण जन्मभूमि और ट्रस्ट की संपत्ति को समझौते के जरिए दूसरे पक्ष को दिए जाने की एसआइटी गठित कर जांच कराई जाए और सेवा संस्थान के सदस्यों के खिलाफ मुकदमा चलाया जाए।
इस संबंध में हिन्दू वादी नेता गोपेश्वर नाथ चतुर्वेदी का कहना है कि यह कोई पहली बार नही है जब याचिकाकर्ता ने ऐसी याचिका लगाई हो। इससे पहले यह 3 बार जिला जज , हाइकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में याचिका लगा चुके है और तीनों बार मामला खारिज हुआ है। अब फिर इन्होंने रिव्यू किया है जो होगा देखा जाएगा।
कब कब न्यायालय की शरण में पहुँचा मामला
1815 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नजूल भूमि के रूप में कटरा केशवदेव को नीलाम किया जिसे सबसे ऊंची बोली लगाकर वाराणसी के राजा पटनीमल ने खरीदा। 1875 -1877 के मध्य राजा नृसिंह दास के पक्ष में 6 मुकदमे डिक्री हुए, 1920 में मुकदमा हुआ जो हिन्दू पक्ष में हुआ, 1921 में अपील की वह भी खारिज हो गई, 1928 में राय कृष्णदास ने मुस्लिमों के विरुद्ध मुकदमा किया जो उनके पक्ष में डिक्री हुआ, उसकी अपील इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुस्लिमों ने की। वह भी 1935 में खारिज हो गई। 8 फरवरी 1944 को मदन मोहन मालवीय, गोस्वामी गणेशदत्त व भीखनलाल आत्रेय के नाम जुगल किशोर बिरला के आर्थिक सहयोग से कटरा केशवदेव की 13.37 एकड़ भूमि खरीदी गई।
21 फरवरी 1951 को श्रीकृष्ण-जन्मभूमि ट्रस्ट पंजीकृत हुआ और भूमि के तीनों स्वामियों ने भूमि ट्रस्ट को समर्पित कर दी। 21 जनवरी 1953 को सिविल मुकदमा खारिज हुआ जो मुस्लिम पक्ष ने बैनामा निरस्तिकरण के लिये किया था। 1959 में पुनः मुस्लिम पक्ष ने मुकदमा किया जो बाद में खारिज हुआ। 1967 में श्रीकृष्ण-जन्मस्थान ने मुस्लिमों के खिलाफ परिसर खाली कराने व ढाँचा हटाने के लिए मुकदमा किया जो 12 अक्टूबर 1968 के समझौते के आधार पर 1974 में समाप्त हुआ।
मंदिर-मस्जिद विवाद का समझौता
10 अगस्त 1968 को तत्कालीन जिलाधिकारी आर के गोयल और एसपी गिरीश बिहारी ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ और शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी के बीच आपसी रजामंदी से दस बिन्दुओं पर समझौता करा दिया था। यह समझौता ढाई रुपए के स्टांप पेपर पर किया गया था। विश्व हिन्दू परिषद के तत्कालीन जिलाध्यक्ष डा. रमनदास पंडया और चंद्रभानु ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ को इस समझौते को न करने की सलाह देते हुए एक पत्र देकर विरोध जताया था।
समझौते में प्रमुख मुद्दे
- मस्जिद निर्माण समिति दो दीवारों का निर्माण करायेगी। ईदगाह के ऊपर के चबूतरे की उत्तर व दक्षिण दीवारों को पूरब की ओर रेलवे लाइन तक बढ़ाकर दोनों दीवारों को बनाया जाएगा।
- मस्जिद कमेटी मुस्लिम आबादी को खाली कराकर वह परिसर संघ को सौंपेगी।
- एक अक्टूबर 1968 तक दक्षिण की ओर जीने का मलबा मस्जिद कमेटी उठा लेगी।
- मुस्लिम आबादी में जिन मकानों का बैनामा उत्तर और दक्षिण वाली दीवारों के बाहर अपने हक में कराया गया है उसे संघ के हवाले कर दिया जाएगा।
- जन्मस्थान की ओर आ रहे ईदगाह के पनाले को ईदगाह की कच्ची सड़क की ओर मोड़ा जाएगा। इसका खर्च जन्मस्थान संघ वहन करेगा।
- पश्चिम उत्तरी कोने में जो भूखंड संघ का है उसमें कमेटी अपनी कच्ची कुर्सी को चौकोर करेगा और वह उसी की मिल्कियत मानी जाएगी।