Raja Vikramaditya Ki Kahani: सर्वश्रेष्ठ दानी राजा विक्रमादित्य
Raja Vikramaditya Ki Kahani: सर्वश्रेष्ठ दानी राजा विक्रमादित्य एक महानतम राजा थे जो प्राचीन भारतीय इतिहास में अपनी महानता और उदारता के लिए प्रसिद्ध हुए। वह चालुक्य वंश के सबसे प्रमुख शासक थे और 7वीं शताब्दी में मध्य भारतीय क्षेत्रों को आपकी सत्ता के अंतर्गत करार दिया। विक्रमादित्य ने साहित्य, कला, विज्ञान, और शिल्प के क्षेत्र में विशेष रूप से प्रगति की थी।
Raja Vikramaditya Ki Kahani: एक बार उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य ने एक महाभोज का आयोजन किया । उसमें असंख्य विद्वान,ब्राह्मण , व्यापारी तथा दरबारी आमंत्रित थे।भोज के मध्य में चर्चा चली कि सबसे बड़ा दानी कौन?
सभी ने एक स्वर से विक्रमादित्य को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ दानवीर घोषित किया ।राजाविक्रमादित्य लोगों के भाव देख रहे थे, तभी उनकी नज़र एक ब्राह्मण पर पड़ी जो अपनी राय नहीं दे रहा था।लेकिन उसके चेहरे के भाव से प्रतीत होता था कि वह सभी लोगों के विचार से सहमत नहीं है।विक्रम ने उसकी चुप्पी का अर्थ पूछा ।तो वह डरते हुए बोला कि सबसे अलग राय देने पर कौन उसकी बात सुनेगा। राजा ने उसका विचार पूछा तो वह बोला कि वह असमंजस की स्थिति में पड़ा हुआ है। अगर वह सच नहीं बताता, तो उसे झूठ का पाप लगता है और सच बोलने की स्थिति में उसे डर है कि राजा का कोप भाजन बनना पड़ेगा।
अब विक्रम की जिज्ञासा और बढ़ गई। उन्होंने उसकी स्पष्टवादिता की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा उसे निर्भय होकर अपनी बात कहने को कहा। तब उसने कहा कि महाराज विक्रमादित्य बहुत बड़े दानी हैं- यह बात सत्य है । पर इस भूलोक पर सबसे बड़े दानी नहीं। यह सुनते ही सब चौंके। सबने विस्मित होकर पूछा क्या ऐसा हो सकता है? उस पर उस ब्राह्मण ने कहा कि समुद्र पार एक राज्य है, जहां का राजा कीर्तिध्वज जब तक एक लाख स्वर्ण मुद्राएं प्रतिदिन दान नहीं करता तब तक अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करता है। अगर यह बात असत्य प्रमाणित होती है, तो वह ब्राह्मण कोई भी दण्ड पाने को तैयार था।राजा के विशाल भोज कक्ष में निस्तब्धता छा गई।
ब्राह्मण ने बताया कि कीर्तिध्वज के राज्य में वह कई दिनों तक रहा और प्रतिदिन स्वर्ण मुद्रा लेने गया।सचमुच ही कीर्तिध्वज एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दान करके ही भोजन ग्रहण करता है। यही कारण है कि भोज में उपस्थित सारे लोगों की हां-में-हां उसने नहीं मिलाई। राजा विक्रमादित्य ब्राह्मण की स्पष्टवादिता से प्रसन्न हो गए और उन्होंने उसे पारितोषिक देकर सादर विदा किया। ब्राह्मण के जाने के बाद राजा विक्रमादित्य ने साधारण वेश धरा और दोनों बेतालों का स्मरण किया। जब दोनों बेताल उपस्थित हुए तो उन्होंने उन्हें समुद्र पार राजा कीर्तिध्वज के राज्य में पहुंचा देने को कहा। बेतालों ने पलक झपकते ही उन्हें वहां पहुंचा दिया।
कीर्तिध्वज के महल के द्वार पर पहुंचने पर उन्होंने अपना परिचय उज्जयिनी नगर के एक साधारण नागरिक के रूप में दिया तथा कीर्तिध्वज से मिलने की इच्छा जताई। कुछ समय बाद जब वे कीर्तिध्वज के सामने उपस्थित हुए, तो उन्होंने उसके यहां नौकरी की मांग की।कीर्तिध्वज ने जब पूछा कि वे कौनसा काम कर सकते हैं तो उन्होंने कहा, जो कोई नहीं कर सकता, वह काम वे कर दिखाएंगे।राजा कीर्तिध्वज को उनका जवाब पसंद आया और विक्रमादित्य को उसके यहां नौकरी मिल गई।
वे द्वारपाल के रूप में नियुक्त हुए। उन्होंने देखा कि राजा कीर्तिध्वज सचमुच हर दिन एक लाख स्वर्ण मुद्राएं जब तक दान नहीं कर देता अन्न-जल ग्रहण नहीं करता है।उन्होंने यह भी देखा कि राजा कीर्तिध्वज रोज शाम को अकेला कहीं निकलता है ।और जब लौटता है, तो उसके हाथ में एक लाख स्वर्ण मुद्राओं से भरी हुई थैली होती है। एक दिन शाम को उन्होंने छिपकर कीर्तिध्वज का पीछा किया। उन्होंने देखा कि राजा कीर्तिध्वज समुद्र में स्नान करके एक मन्दिर में जाता है और एक प्रतिमा की पूजा- अर्चना करके खौलते तेल के कड़ाह में कूद जाता है।
जब उसका शरीर जल-भुन जाता है, तो कुछ जोगनियां आकर उसका जला-भुना शरीर कड़ाह से निकालकर नोच-नोच कर खाती हैं और तृप्त होकर चली जाती हैं। जोगनियों के जाने के बाद प्रतिमा की देवी प्रकट होती है और अमृत की बून्दें डालकर कीर्तिध्वज को जीवित करती हैं। अपने हाथों से एक लाख स्वर्ण मुद्राएं कीर्तिध्वज की झोली में डाल देती हैं और कीर्तिध्वज खुश होकर महल लौट जाता है।प्रात:काल वही स्वर्ण मुद्राएं वह याचकों को दान कर देता है। विक्रम की समझ में उसके नित्य एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दान करने का रहस्य आ गया।
अगले दिन राजा कीर्तिध्वज के स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त कर चले जाने के बाद विक्रम ने भी नहा-धोकर देवी की पूजा की और तेल के कड़ाह में कूद गए। जोगनियां जब उनके जले-भुने शरीर को नोंचकर खाकर चली गईं तो देवी ने उनको जीवित किया। जीवित करके जब देवी ने उन्हें स्वर्ण मुद्राएं देनी चाहीं तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि देवी की कृपा ही उनके लिए सर्वोपरि है।यह क्रिया उन्होंने सात बार दोहराई।सातवीं बार देवी ने उनसे बस करने को कहा तथा उनसे कुछ भी मांग लेने को कहा। विक्रम इसी अवसर की ताक में थे।
उन्होंने देवी से वह थैली ही मांग ली जिससे स्वर्ण मुद्राएं निकलती थीं।ज्यों ही देवी ने वह थैली उन्हें सौंपी, चमत्कार हुआ। मन्दिर, प्रतिमा सब कुछ गायब हो गया अब दूर तक केवल समुद्र तट दिखता था। दूसरे दिन जब कीर्तिध्वज वहां आया तो बहुत निराश हुआ। उसका वर्षों का एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दान करने का नियम टूट गया। वह अन्न-जल त्याग कर अपने कक्ष में असहाय पड़ा रहा। उसका शरीर क्षीण होने लगा। जब उसकी हालत बहुत अधिक बिगड़ने लगी,तो विक्रम उसके पास गए और उसकी उदासी का कारण जानना चाहा। उसने विक्रम को जब सब कुछ खुद बताया तो विक्रम ने उसे देवी वाली थैली देते हुए कहा कि रोज-रोज कड़ाह में उसे कूदकर प्राण गंवाते देख वे द्रवित हो गए, इसलिए उन्होंने देवी से वह थैली ही सदा के लिए प्राप्त कर ली।वह थैली राजा कीर्तिध्वज को देकर उन्होंने उस वचन की भी रक्षा कर ली,जो देकर उन्हें कीर्तिध्वज के दरबार में नौकरी मिली थी।
उन्होंने सचमुच वही काम कर दिखाया जो कोई भी नहीं कर सकता है। राजा कीर्तिध्वज ने उनका परिचय पाकर उन्हें सीने से लगाते हुए कहा कि वे सचमुच इस धरा पर सर्वश्रेष्ठ दानवीर हैं,क्योंकि उन्होंने इतनी कठिनाई के बाद प्राप्त स्वर्ण मुद्रा प्रदान करने वाली थैली ही बेझिझक दान कर डाली जैसे कोई तुच्छ चीज हो।