Sache Dost Ki Pehchan: सावधान! सोच समझ कर करें दोस्ती, रामायण में पढ़ें बाबा तुलसीदास को

Sache Dost Ki Pehchan: रामायण में लिखा गया है मित्र उसे बनाएं, जो आपको अच्छी प्रेरणा दे, जिसके साथ रहने से आपको अच्छी प्रेरणा मिले। जो आपको आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे।

Written By :  Sankata Prasad Dwived
Update: 2023-12-04 14:54 GMT

Sache Dost Ki Pehchan Ramayana Inspirational Story 

Sache Dost Ki Pehchan: जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु ( बड़े भारी पर्वत ) के समान जाने। कहने का तात्पर्य है कि जो मित्र के दुख में दुखी न हो, उससे अधिक गिरा हुआ व्यक्ति कोई नहीं हो सकता हैं।

श्रीरामचरितमानस में बाबा तुलसीदास जी लिखते हैं :-

जे न मित्र दु:ख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥

निज दु:ख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दु:ख रज मेरु समाना॥

सवाल यह है कि मित्र किसे बनाएं ?

मित्र उसे बनाएं, जो आपको अच्छी प्रेरणा दे, जिसके साथ रहने से आपको अच्छी प्रेरणा मिले। जो आपको आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे।

मित्र वह ही अच्छा है, जो आपकी दुर्बलताओं को दूर करके आपकी अच्छाइयों को उभारने में सहायक बने। जो आपके संकट में काम आ सके। जिसके आचार विचार अच्छे हों।

ऐसे व्यक्ति को मित्र कभी न बनाएं, जो आपको गलत रास्ते पर ले जाए। जो केवल मौज-मस्ती के लिए आपके साथ जुड़ना चाहता है।

वस्तुतः मित्र वही होता है, जो हर स्थिति में आपका साथ दे। जिससे आप मित्रता रखें, यह देखें कि उसके विचार कैसे हैं? उसका आचार कैसा है? क्या वह आपको आगे बढ़ने के लिए उत्साहित करता है या हतोत्साहित करता है ? आपकी दुर्बलता को दूर करने के लिए सहायक बनता है या आपको दुर्बलता की ओर धकेलता हैं। आपकी अच्छाइयों को उभारने में निमित्त बनता है या उन्हें नष्ट करने पर उतारू होता है?

आप इन बातों को देख करके ही किसी व्यक्ति से मैत्री बनाने की कोशिश करें। आप किसी भी व्यक्ति से मित्रता निभाएं, उसके सुख-दुःख के साथी बनें। उसे आगे बढ़ाने में सहयोगी बनें। लेकिन अपनी मित्रता के नाम पर आप अपने उसूलों को खण्डित न करें। जो व्यक्ति आपके माता पिता और गुरुजन की आज्ञा की अवमानना करने को प्रेरित करे, वह मित्र कहलाने लायक नहीं होता। उसका साथ छोड़ दें।

वही भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते है की व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है स्वयं ही अपना शत्रु भी। अपना मित्र होने का अर्थ है कि हम अपना जीवन किस स्तर पर जीते हैं। वही दूसरों से मित्रता रखने का अर्थ हैं कि दूसरों से अपेक्षा रखते हैं, और जहां अपेक्षा है, इच्छा है, ख्वाहिश है, डिजायर है, वहां आज नहीं तो कल निराशा का सामना अवश्य करना पड़ेगा। पड़ा है। इसलिए किसी से सोच समझकर ही मित्रता करें।

(लेखक प्रख्यात धर्म विद् हैं) 

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