सोचती हूं चुप रहूं कैसे

Crime Against Women: आजादी के 78 साल बाद भी एक महिला सुरक्षित क्यों नहीं है? क्यों उसके लिए रात को बाहर निकलने में कर्फ्यू लग जाता है? क्या हमारी पूरी व्यवस्था आज भी सोच से मर्दवादी है?

Written By :  Anshu Sarda Anvi
Update: 2024-08-19 12:55 GMT

सोचती हूं चुप रहूं कैसे: Photo- Social Media

Crime Against Women: देश ने अभी-अभी अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस बड़े ही उत्साह के साथ मनाया। पर इस आजादी के आगे क्या है-विकास बनाम बराबरी, उद्योग बनाम पर्यावरण, शिक्षा और स्वास्थ्य का बुरा हाल, भाषा का उपनिवेशवाद-अंग्रेजी का दबदबा, जाति धर्म और लैंगिक भेदभाव को मिटाने की चुनौती, संवैधानिक प्रतिज्ञाएं पूरी करने की चुनौती और उन सबसे बढ़कर प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा। आजादी के 78 साल बाद भी एक महिला सुरक्षित क्यों नहीं है? क्यों उसके लिए रात को बाहर निकलने में कर्फ्यू लग जाता है? क्या हमारी पूरी व्यवस्था आज भी सोच से मर्दवादी है? क्या हमारे देश का पुरुष आज भी बदलने को तैयार नहीं है?

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निर्भया कांड के 12 साल बाद भी आज भी कुछ क्यों नहीं बदला है सिवाय कुछ नियमों और कानूनों के? एक बच्ची को खेल खेलते हुए यह नहीं पता होता है कि उसके साथ कुछ बड़े होने पर इस तरह की घटनाएं भी हो सकती हैं। वह अपनी ही धुन में मस्त होती है। वह जानती ही नहीं है कि ‘गुड टच’ और ‘बेड टच’ बड़े होकर इस तरह की हैवानियत भरी घटनाओं में भी बदल जाते हैं। वह यह जानती भी नहीं है कि उसके आसपास के पुरुष समाज की दो आंखें उसको एक आजाद देश के नागरिक के तौर पर नहीं बल्कि उसके एक लड़की , एक औरत होने पर निगाह रख रही है।

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क्या कहते हैं नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े

ऐसे ही लोग यह सोचते हैं क्या हुआ एक और बलात्कार की घटना हो गई तो। हमारा देश वह देश है जहां नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 25,000 बलात्कार के केस हर साल दर्ज होते हैं। बिना दर्ज होने वाली संख्या के बारे में तो कोई जानकारी ही नहीं है। निर्भया कांड के पूरे 12 साल बाद एक और निर्भया कांड। क्यों होता है बार-बार यह निर्भया कांड। चाहे अरुणा शानबाग की कहानी हो, चाहे लखनऊ कांड रहा हो या बदायूं कांड या शोपियां रेप का केस रहा हो।

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प्रियदर्शिनी मट्टू केस हो या उन्नाव कांड रहा हो, चाहे मथुरा रेप कांड रहा हो या गोवा रेप कांड या अभी-अभी ताजातरीन कोलकाता रेप कांड और फिर भी सिलसिला चलता ही जा रहा है । मुजफ्फरपुर में एक नाबालिग लड़की के साथ का गैंगरेप हो या बरेली में मानसिक विक्षिप्त द्वारा महिलाओं की रेप के बाद हत्या का मामला। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। इसके ऊपर हमेशा बहुत कुछ लिखा जाता है और फिर भुला भी दिया जाता है। ये घटनाएं पूरे समाज के सामने अनेक सवाल खड़े करती हैं।

संवेदनशील घटनाओं पर राजनीति बंद हो

राजनीति की रोटियां सेंककर अपनी गोटियों की बिसात बैठाने वाले राजनेता भले ही ऐसी घटनाओं को अपनी तरह से प्रयोग करते रहे हैं , प्रयोग कर रहें हैं या फिर उन्हें छुपाने में जुटे हैं। पर एक स्त्री के साथ हुई भयावहता किसी को दिखाई नहीं देती है। घर के आंगन में और घर के बाहर बच्चियां कितनी सुरक्षित हैं। सफेद कोट एक बार फिर लाल हो चुका है। इस तरह के लोगों को विकृत मानसिकता वाले नहीं कहना चाहिए बल्कि यह लोग अपनी पुरुषवादी सोच से आगे बढ़ ही नहीं पाते हैं। उनके लिए औरत आज भी एक सिर्फ वस्तु है।

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मणिपुर कांड को भी कैसे भूल सकते हैं हम? समय चला जाता है, पर दर्द नहीं जाता, घाव भर जाता है । लेकिन वो क्रूरता दिल से कभी भी नहीं जाती। अस्पतालों के साथ -साथ सामाजिक जीवन में भी एक रेप विक्टिम के साथ कितनी संवेदनशीलता बरती जाती है, यह तो वह ही जानती है। हम उनके दर्द को समझे बगैर ही उनको ही दोषी होने की निगाह से देखते हैं।

8- 9 अगस्त की रात को कोलकाता के सरकारी आर जी अस्पताल में महिला रेजिडेंट डॉक्टर की बलात्कार और बर्बरता से पिटाई के बाद गला घोंट कर हत्या कर दी गई, शर्मनाक नहीं बल्कि खौफनाक है। यह सब फिर से कैसे चलेगा, कब तक चलेगा यह सब। समय पर न्याय की उम्मीद ही कर सकते हैं, सीबीआई द्वारा निष्पक्ष जांच होनी चाहिए, रेपिस्टों के खिलाफ किसी भी तरह की दया भावना नहीं दिखानी चाहिए , हम सब यह जानते हैं उसके बाद भी इस तरह की घटनाएं न तो रुकती हैं, ना ही रोकी जा सक रही हैं।

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महिलाएं कब सुरक्षित महसूस करेंगी

आश्चर्य होता है कि जिस प्रदेश की मुख्यमंत्री खुद एक महिला है वहां पर भी महिलाओं के प्रति इतनी असंवेदनशीलता, इतनी बर्बरता और उसके बाद उस तरह की घटनाओं पर इस तरह की लीपापोती और उन्हें ढकने के लिए महिला मुख्यमंत्री द्वारा खुद ही उसके लिए मार्च निकालना, आखिर यह सब क्यों? हर प्रदेश महिलाओं के लिए इतना असुरक्षित क्यों होता जा रहा है? पूरे देश भर के रेजीडेंट डॉक्टरों द्वारा की जा रही हड़ताल से अवश्य ही देश की स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा उठी है और उन्हें वापस अपनी ड्यूटी पर, अपने कर्तव्य को निभाने के लिए जल्द ही आना भी होगा। लेकिन क्या उनकी सुरक्षा की गारंटी देश के, प्रदेश के कर्णधार दे सकते हैं? क्या उनका आक्रोश सिर्फ इस घटना तक ही है? उनका आक्रोश उस व्यवस्था के साथ भी है जो कि उन्हें असुरक्षित होने के साथ-साथ एक बड़ी ही दयनीय स्थिति में भी रखता है। उनके पास न तो सुविधाएं हैं और न ही उनके साथ बहुत अच्छा व्यवहार । सारी व्यवस्था सिर्फ एक ही बात पर निर्भर नहीं होती बल्कि सारी व्यवस्था बहुत सारी बातों को मिलाकर सुव्यवस्थित करने से बनती है।

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क्या होता जा रहा है देश के पुरुषों की संवेदनशीलता को? एक समय था जब गांव के एक घर की बेटी पूरे गांव की बेटी मानी जाती थी। एक समय था जब गांव के एक घर की बहू पूरे गांव के बुजुर्गों से पर्दा रख लेती थी क्योंकि उसे वह सभी अपने परिवारजन लगते थे। एक समय था जब किसी भी महिला की मदद करना किसी भी पुरुष के लिए अपने परिवार की सदस्या की मदद करना जैसा होता था। अगर एक स्त्री समाज द्वारा बनाई जाती है तो एक पुरुष भी तो समाज द्वारा ही बनाया जाता है।अगर नारीवादी सोच समाज द्वारा प्रतिकल्पित है तो पुरुषवादी सोच भी तो इसी समाज द्वारा ही प्रतिकल्पित है।

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क्यों यह सोच बदलती नहीं

क्यों यह सोच नहीं बदलती है? क्यों यह सोच अपने समय के साथ आगे नहीं बढ़ती है? क्यों बार-बार इस तरह की बातें की जाती है कि कार्य स्थलों पर महिलाएं सुरक्षित नहीं है? फिर महिलाएं सुरक्षित कहां है? न रेल में अकेले सफर करने में वह सुरक्षित है, न सड़क पर वह सुरक्षित है, न घरों में वह सुरक्षित है, न लिफ्ट, मॉल , खेत-खलिहानों, विद्यालयों, अस्पतालों जैसी जगह में वह आते -जाते सुरक्षित है तो फिर महिला सुरक्षित है कहां? क्यों बार-बार इस एक विषय पर हमें लिखना पड़ता है, हमें बोलना पड़ता है। बार-बार इन बातों पर विचार करके सिर्फ एक ही बात याद आ रही है, सोचती हूं चुप रहूं कैसे........।

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

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