Anti Defection Law: कैसा दल ? कहाँ का बदल ?
Anti Defection Law: संविधान में एक महत्वपूर्ण संशोधन दलबदल विरोधी कानून का भी है। मगर दलबदल का यह खेल कभी रुक नहीं सका।
Anti Defection Law: आज यहां नौकरी तो कल वहाँ। परसों कहीं और। नए जमाने में तेजी से आगे बढ़ने वाले नौकरीपेशा लोगों का यही शगल रहा है। कोई कहीं से रिटायर नहीं होना चाहता। सबको जल्दी पैसा, जल्दी तरक्की की दरकार है। पहले सरकारी नौकरी रिटायरमेंट की नौकरी होती थी। लेकिन अब वहां भी ऐसा नहीं रहा। कम्पनी से मोहब्बत - वफादारी पुराने ज़माने की बातें हो गईं हैं।
यही हाल पॉलिटिक्स का भी हो चला है। आज इस दल तो कल उस दल। बस कैसे न कैसे आगे बढ़ना है, पैर जमाना है, हैसियत बढ़ानी है। बड़ी कुर्सी हथियानी है। निष्ठाएं अब मायने नहीं रखतीं। जबकि हमारे संविधान में कम से कम राजनीतिक निष्ठा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए एक प्रावधान तक किया गया है। लेकिन कोई माने तब न।
भारत का संविधान किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है। संविधान में समय की आवश्यकताओं के अनुरूप कई बार संशोधन भी किए गए। संविधान में एक महत्वपूर्ण संशोधन दलबदल विरोधी कानून का भी है। मगर दलबदल का यह खेल कभी रुक नहीं सका। विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा चुनाव या फिर बिहार की तरह यूं ही कभी भी प्रतिबद्धताएं, सिद्धांत, वफ़ाएँ, कसमें वगैरह कभी भी पलटी मार सकती हैं। हर चीज की तरह पलटी का भी एक कारण होता है वह कारण है सत्ता सुख। भला किसी की अंतरात्मा यूं ही थोड़े न जग जाती है, उसको कुर्सी या कुर्सी की करीबियत का सुख जगा देता है।
इसी सुख के कीड़े को मारने के लिए हमने एक कानून भी बना रखा है। राजीव गांधी की सरकार ने 1985 में 52वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिये से दलबदल विरोधी कानून पारित किया था। इसे संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ा गया। इस कानून का मुख्य मकसद देश में दलबदल के खेल को समाप्त करना था। आया राम, गया राम को ख़त्म करना था। हालांकि तमाम कानूनों की तरह यह कानून भी सिर्फ कानून ही है।क्योंकि इसके बनने के बाद भी दलबदल का खेल पहले की तरह ही बदस्तूर जारी है।इसने देश, काल व परिस्थियाँ के मुताबिक़ अपना स्वरूप नया गढ़ लिया। स्वरूप बदल लिया। ,,,
वैसे आपको बता दें कि इस कानून के तहत किसी भी निर्वाचित सदस्य को स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ने पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल की सदस्यता लेता है, तो उसे भी अयोग्य घोषित किया जा सकता है। यदि कोई निर्वाचित सदस्य सदन में पार्टी के रुख के विपरीत वोट करता है तो वह भी अयोग्य माना जाएगा। किसी सदस्य के वोटिंग से खुद को अलग रखने पर भी उसकी सदस्यता जा सकती है। इस कानून में सदन के अध्यक्ष को सदस्यों को अयोग्य करार देने की शक्ति दी गई है।
2003 के 91वें संविधान संशोधन के मुताबिक दलबदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय करने की अनुमति दी गई है मगर इसके साथ यह शर्त होगी कि उसके कम से कम दो तिहाई सदस्य विलय के पक्ष में हों।
वैसे दलबदल विरोधी कानून बनने के बाद भी नेताओं के दल बदलने के खेल पर कभी रोक नहीं लग सकी। एक चर्चित शेर है कि मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की। देश में दल बदलने की बीमारी पर ये पंक्तियां बिल्कुल सटीक बैठती हैं। देश में चुनाव के मौके को दल बदलने का सबसे उम्दा सीजन माना जाता है क्योंकि इस समय सदन के सदस्य का कार्यकाल पूरा हो चुका होता है। किसी भी चुनाव के दौरान इस दलबदल के खेल का नंगा नाच देखा जा सकता है। दलबदल की यह घटना अब भारतीय राजनीति में किसी को नहीं चौंकाती।
अगर बहुत पुरानी घटनाओं को छोड़ भी दिया जाए तो 2020 में मध्य प्रदेश, गोवा और कर्नाटक आदि राज्यों में दलबदल के खेल के सहारे सरकारें तक बदल गईं। मध्यप्रदेश में तो दलबदल विरोधी कानून के तहत दल बदलने वाले सभी सदस्यों की विधानसभा सदस्यता समाप्त कर दी गई। दल बदलने वाले विधायकों को पार्टियों की ओर से फिर चुनाव मैदान में उतारा गया। उनमें से एक कई जीत कर फिर नई सरकार में मंत्री बन गए। जो जीतने में कामयाब नहीं हो सके या जिन्हें चुनाव मैदान में नहीं उतारा गया, उन्हें दूसरे तरीकों से सरकार की ओर से उपकृत कर दिया गया। 1957 से 67 के बीच के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो इस दौरान 98 सदस्यों ने कांग्रेस से इस्तीफा दिया। जबकि 419 सदस्यों ने दूसरी पार्टियों से कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। 1967 में तो गजब खेल हुआ था।निर्वाचित लगभग 35 सौ सदस्यों में से करीब 550 ने पार्टी बदलकर दूसरी पार्टी का दामन थामा था।
हरियाणा में तो 1967 में एक रोचक घटना हुई थी जिसमें विधायक गया राम ने 15 दिनों के भीतर तीन बार दल बदलने का रिकॉर्ड कायम किया था। उसी के बाद भारतीय सियासत में आया राम,गया राम की कहावत प्रचलित हुई। हरियाणा में ही एक चर्चित नेता भजनलाल ने तो गजब का खेल खेला था। उन्होंने पार्टी के सभी सदस्यों के साथ पाला बदलकर मुख्यमंत्री बने रहने में कामयाबी हासिल की थी।
सितंबर 2021 में तो नागालैंड में गजब ही हो गया था। राज्य विधानसभा में प्रमुख विपक्ष नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) ने नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल होने की घोषणा कर दी। नतीजतन राज्य में विपक्ष ही नहीं बचा।
दल-बदल विरोधी कानून तब लागू नहीं होता जब किसी राजनीतिक दल को छोड़ने वाले विधायकों की संख्या सदन में पार्टी की कुल संख्या का दो-तिहाई हो। ये विधायक किसी अन्य पार्टी में विलय कर सकते हैं या सदन में एक अलग समूह बन सकते हैं। मिसाल के तौर पर मेघालय में कांग्रेस के 17 में से 12 विधायक, तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे। 2019 में राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के सभी छह विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए थे। उसी साल, तेलुगु देशम के छह राज्यसभा सांसदों में से चार भाजपा में शामिल हो गए। ये सब दलबदल कानून की जद से बाहर थे।
बिहार में विपक्ष बदला। सत्ता नही। सत्ता जस की तस रही। महाराष्ट्र में किस तरह उद्धव ठाकरे ताकते रह गए और एकनाथ शिंदे ने खेल कर दिया। महीनों तक दलबदल मामले का फैसला तक न हो सका और जब हुआ भी तो ऐसा कि समझने वाले समझ न सके।बहरहाल, राजनीतिक निष्ठा पर कपड़े की दुकान का वही स्लोगन ठीक बैठता है : फ़ैशन के ज़माने में गारंटी की उम्मीद न करें। इसे बिहार के लोग अच्छी तरह से जान चुके हैं। बाकी लोग भी समझ रहे हैं। आप को भी समझ लेना चाहिए।
(लेखक पत्रकार हैं । दैनिक पूर्वोदय से साभार ।)