कृषि और किसानों के मसलों पर "सलेक्टिव" नजरिए के निहितार्थ !

उत्तर प्रदेश में चुनावी घमासान के मौजूदा दौर में संयुक्त किसान मोर्चा ने एक बार फिर से आंदोलन शुरू करने का ऐलान कर हलचल पैदा की है। मोर्चा अपनी कथित मांगों को लेकर पूरे यूपी में मिशन उत्तर प्रदेश शुरू करने की बात कर रहा है।

Written By :  Anand Upadhyay
Published By :  aman
Update:2022-02-02 13:59 IST

agriculture and farmers issues

उत्तर प्रदेश में चुनावी घमासान के मौजूदा दौर में संयुक्त किसान मोर्चा ने एक बार फिर से आंदोलन शुरू करने का ऐलान कर हलचल पैदा की है। मोर्चा अपनी कथित मांगों को लेकर पूरे यूपी में मिशन उत्तर प्रदेश शुरू करने की बात कर रहा है। नुक्कड़ सभाएं, प्रेस कॉन्फ्रेंस और साहित्य वितरण की योजना बनाई गई है। उल्लेखनीय है कि कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के तुरंत बाद संसद में औपचारिक नियम संगत त्वरित कार्रवाई कर भारत सरकार ने इस कानून को शालीनता के साथ वापस लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन कानूनों की उपादेयता न समझा पाने की बात स्वीकार करते हुए आंदोलनकारी किसानों से सार्वजनिक माफी भी मांग कर सहृदयता का परिचय देकर उदार दृष्टिकोण दिखाया था। कतिपय अन्य मांगों के सिलसिलेवार नियम संगत समाधान का ठोस आश्वासन भी भारत सरकार के स्तर से दिया गया है।

इतना सब होने के बावजूद किसानों के नेताओं के एक धड़े द्वारा पुनः आन्दोलन की दुन्दुभि बजाना वो भी ऐन यूपी में विधानसभा के चुनाव की निर्वाचन प्रक्रिया औपचारिक रूप से प्रारंभ  हो चुकने के संवेदनशील मौके को देखते हुए विशुद्ध सियासत ही नजर आता है। कतिपय राजनीतिक दल काफी हद तक इन तथाकथित किसान नेताओं के कन्धों का इस्तेमाल अपनी रियासत को धार देने और इनका फौरी फायदा यूपी के मौजूदा चुनाव में भुनाने को उतावले नजर आने लगे हैं। हाथों हाथ लेने वाले राजनीतिक आकाओं  के साथ गलबहियां करने में किसान नेताओं को दूरगामी व तात्कालिक दोनों तरह के "डिविडेंड "दिखने लगे हैं। इन किसान नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी रह-रह कर हिलोरें मारती नजर आने लगी हैं।

एक तरफ भारत सरकार और उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा चुनावी डोर टू डोर संपर्क अभियान, विभिन्न टीवी न्यूज चैनल्स  पर सीएम सहित अनेक वरिष्ठ  नेताओं अथवा पार्टी  के प्रवक्ताओं के इंटरव्यू तथा एडवरटाइजिंग के जरिये सूबे के कृषि सेक्टर और किसानों खासकर मझोले व छोटे किसानों के व्यापक हित में उठाए गए विविध कल्याणकारी कार्यों और प्रदान  किए गए विशेष आर्थिक पैकेज सहित अन्य सहायता का जोर-शोर के साथ बाकायदा आंकड़ों सहित बखान किया जाना दृष्टिगत है। वहीं, विपक्ष विशेषकर सपा-रालोद का गठबंधन अपना पॉलिटिकल एजेण्डा प्रदर्शित कर सरकार को घोर किसान विरोधी सिद्ध करने पर उतारू नजर आ रहा है।

भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश सरकार जहां सूबे के किसानों का 11 हजार करोड़ गन्ना भुगतान का बकाया दिलवाने का दावा कर रही है। 86 लाख किसानों का 36 हजार करोड़ की कर्ज  माफी किए जाने, 20-20 सालों से ठप पड़ी कृषि सिंचाई परियोजनाओं को भारत सरकार के वित्तीय सहयोग से पूरा कराकर चालू किए जाने, तीन दशकों से बंद पड़े  गोरखपुर के फर्टिलाइजर कारखाने को नवीनीकृत कर शुरू करने जाने, एमएसपी का 72 हजार करोड़ रुपए का भुगतान किए जाने, गन्ना  किसानों को रिकॉर्ड 1.51 लाख करोड़ रुपए का पेमेंट किए जाने का पुख्ता दावा करती परिलक्षित है।

 यही नहीं फरवरी 2019 में मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई प्रधानमंत्री  किसान जनधन योजना के तहत उत्तर प्रदेश के पात्र किसानों को त्रैमासिक आमदनी मुहैया कराए जाने के निमित्त सहायतार्थ प्रति वर्ष 6000 रुपये की दर से अब तक लगभग ढाई करोड़ से ज्यादा किसानों के निजी बैंक खातों में 42565 करोड़ रुपए का भुगतान कर यूपी के जरूरतमंद किसानों को कोरोना काल की इस विषम घड़ी  मे आर्थिक  संबल  प्रदान  करने का दावा मय आंकड़ों  के साथ करती नजर  आ रही  है।

स्वॉयल हेल्थ कार्ड  की उपलब्धता, नीम कोटेड यूरिया की समयबद्ध आपूर्ति, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लाभ देकर प्राकृतिक आपदा ग्रस्त किसानों को त्वरित आर्थिक नुकसान  की भरपाई की व्यवस्था सनिश्चित करवाने की ऐतिहासिक योजना सहित चीनी उत्पादन में यूपी को पूरे देश में पहले स्थान पर लाकर अब तक 54 डिस्टिलरीज  के जरिए सूबे में 262 करोड़ लीटर इथेनॉल का रिकॉर्ड उत्पादन होने की बात सामने रख रही है।

भारतीय जनता पार्टी यूपी के मौजूदा विधानसभा चुनाव के आसन्न मतदान के ऐन मौके पर विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं की बैसाखी और कंधों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष   तरीके से सपा-रालोद गठबंधन द्वारा खुला दुरुपयोग किए जाने का जो आरोप लगा रही है वह तब सच्चाई नजर आने लगता है जब यह नेता मौजूद 2017 में सत्तारूढ़  सरकार से पहले रहीं कांग्रेस, सपा, बसपा के कार्यकाल में सूबे के किसानों की बदहाली पर पूरी बेहयाई के साथ वास्तविकता की अनदेखी कर पल्ला झाड़ने का  काम करते नजर आते हैं।

उल्लेखनीय  है कि बीते सप्ताह महाराष्ट्र  के प्रमुख हिन्दी समाचार पत्र के पुणे संस्करण के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित समाचार में मौजूद गैर भारतीय जनता पार्टी  की अघाड़ी गठबंधन (शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी) सरकार के शासन में  जनवरी से नवंबर 2021 के मध्य कुल 2498 किसानो के आत्महत्या कर लिये जाने का हृदयविदारक व शर्मसार  कर देने की बात छपी है।इसी समाचार में आगे वर्ष 2020 में कर्ज  में डूबे 2547  किसानो के आत्महत्या कर लिए जाने की कष्टप्रद बात बताई  गयी है।

आरटीआई एक्टिविस्ट के स्तर से महाराष्ट्र  सरकार  से मांगी गई  जानकारी  के जवाब  में मिली सूचना के हवाले से प्रकाशित  इस समाचार में यह भी वर्णित  है कि सरकारी पैकेजों के क्रियान्वयन  मे भ्रष्टाचार के कारण राज्य  की 1 लाख रुपए की राहत के तहत औसतन 50 प्रतिशत किसानों के परिजन ही मुआवजे की पात्रता में आकर लाभ हासिल कर पाए। उचित मूल्य न मिलने के चलते  महाराष्ट्र  के किसान विशेषकर  प्याज व टमाटर जैसी उपज को सड़क  पर फेंकते देखे गये हैं।

वरिष्ठ समाजसेवी अन्ना हजारे ने आरोप लगाया है कि महाराष्ट्र के सहकारी शक्कर कारखाने की बिक्री में 25 हजार करोड़ का घोटाला हुआ है। महाराष्ट्र के प्रमुख हिन्दी समाचार पत्र में छपे समाचार में अन्ना जी ने यह भी आरोपित किया है कि सरकार  मे प्रमुख पदों पर बैठे चुनिंदा राजनेता और अफसर, शक्कर कारखानों,उनकी सार्वजनिक संपत्ति  को हड़प करने के लिए  अपने व्यक्तिगत स्वार्थ वश नियमों और कानूनों का कैसे उल्लंघन करते हैं, साथ ही सहकारिता के सेक्टर को खत्म कर निजीकरण  को  कैसे प्रोत्साहन  दिया जाता है। यह अवलोकनीय  है। अन्ना ने इस संदर्भ  में भारत सरकार  के सहकारिता मंत्री अमित शाह को पत्र  लिखकर  सुप्रीम कोर्ट  के रिटायर्ड  जज  के माध्यम से घोटाले की जांच  करवाने की मांग  की है।  विदित हो कि यू पी मे भी बसपा सरकार  के समय कौड़ियों के मोल बेच दी गयी सरकारी चीनी मिलों के प्रकरण  को सूबे के सीएम ने विविध चुनावी मंच से उठाते हुए घोषणा की है कि सिलसिलेवार  इन मिलों को शुरू कराने का काम किया जाएगा।

राजस्थान  में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र  मे बढ़ -चढ़कर किसानों की कर्ज माफी का लॉलीपॉप दिखाया था। गहलोत सरकार के अब तक के कार्यकाल में अधिकांश  किसान कर्ज माफी की बाट जोहते अपने को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं। पंजाब  में कॉन्ट्रैक्ट खेती की बड़ी -बड़ी मल्टीनेशनल  कंपनियों  की मनमानी शर्तों  और कॉन्ट्रैक्ट  की अवहेलना  पर भारी आर्थिक  जुर्माने  के कठोर प्रावधान पर न तो कांग्रेस  कुछ बोल रही है और न ही तथाकथित किसान नेताओ  के मुख से कोई शब्द  फूट रहा है। किसानो के साथ कथित ज़्यादती  का प्रायोजित  ठीकरा तो सिर्फ  भारतीय  जनता पार्टी शासित  यू पी सरकार के ऊपर फोड़कर अपना राजनीतिक उल्लू जो सीधा करना है!

किसानों के तथाकथित सर्वेसर्वा घोषित एनसीपी के सुप्रीमो शरद पवार के राज्य में कॉन्ट्रैक्ट खेती ,केरल मे एमएसपी की सच्चाई पर विपक्षी नेताओं का रहस्यमय मौन समझ से परे नजर आता है।महाराष्ट्र  मे किसानों की बदहाली और दर्दनाक आत्महत्या  पर बेहयाई  से  काला चश्मा डाले शरद पवार कथित रूप से यू पी मे आकर सपा-रालोद गठबंधन  के पक्ष  मे प्रचार  करने को उतावले  बताए जा रहे हैं। इसी तर्ज  पर पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी  भी बी जे पी डाह मे संतप्त  होकर यूपी में अखिलेश  के लिए  प्रचार  करने पर उतारू  बताई जा रही  हैं। इन सभी नेताओं को अपने राज्यों के किसान  की सुध  लेने की जगह भाजपा विरोध के चलते सिर्फ उत्तर प्रदेश में किसानों की तथाकथित बदहाली सलेक्टिव सोच और निहित  एजेंडे के तहत दिखाई  पड़ रही है। यह संकीर्ण  दोहरापन   मौजूदा  भारतीय स्वार्थपरक  राजनीति  के शोचनीय ह्रास  को भी परिलक्षित  करा रहा है।

विस्मयकारक तथ्य तो यह भी दृष्टिगत  है कि बीते सप्ताह किसानों को लाभ मिलने का तुर्रा दिखाकर महाराष्ट्र  की गठबंधन  सरकार  के मंत्रिमंडल  ने राज्य  के किराना स्टोरों और सुपर मार्केट में "वाइन" को बेचने की अनुमति प्रदान  करने का निर्णय  लिया है। तर्क  यह दिया जा रहा है कि महाराष्ट्र  मे काफी संख्या मे किसानों की आमदनी फल उत्पादों से बने "वाइन " पर निर्भर  करती है। इस फैसले से किसानों की आमदनी में इजाफा  होगा। ठाकरे सरकार के इस फैसले पर महाराष्ट्र  के पूर्व  सी एम और प्रमुख  विपक्षी दल बी जे पी के नेता  देवेन्द्र  फडणवीस ने कहा है कि दर असल यह फैसला किसानों की आड़ लेकर वाइन कारोबारियों के साथ हुई डील के तहत लिया गया है।

यह भी कहा कि हम महाराष्ट्र  की इमेज एक "वाइन" स्टेट के रूप में  नहीं बनने देंगे। वहीं किसानों की ढाल  लेकर  किए गये इस विचित्र  निर्णय  का प्रख्यात  सामाजिक  कार्यकर्ता  अन्ना हजारे ने कड़ा विरोध  किया है। इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण  बताते  हुवे कहा कि इस फैसले से लोगों में शराब की लत लगेगी। ऐसा कदम महाराष्ट्र  को कहां  ले जाएगा?वास्तव  में संविधान  के अनुसार  सरकार का यह कर्तव्य  है कि वह लोगों को नशे, नशीली दवाओं और शराब से हतोत्साहित  करे और जनता को प्रचारित  व शिक्षित करे। अन्ना ने  कहा कि दुखद है कि सिर्फ  आर्थिक  लाभ  के लिए ऐसा किया जा रहा है।

किसान हित की आड़ लेकर महाराष्ट्र सरकार  के "वाइन" बिक्री  के फैसले को आधार बनाकर राज्य के कई  जिलों जैसे  नांदेड़  के किसानों ने राज्य  सरकार की आलोचना करते हुवे मांग  कर दी है कि उन्हें  इसी तर्ज  पर भांग  की खेती करने की अनुमति दी जाए। बताया जा रहा है कि  ठाकरे सरकार  द्वारा किसानों के नाम पर "वाइन" व्यवसाय  को बढ़ावा देने के प्रयास   के प्रति  कटाक्ष  स्वरूप विरोध  जताने के लिए सरकार को यह ई-मेल भेजकर  भांग  की खेती सार्वजनिक  किए जाने का तुर्रा  छोड़ दिया गया है।

विचारणीय प्रश्न  तो यह उठता है कि कृषि प्रधान भारतवर्ष  में  किसानों के मूल मुद्दों, कृषि  लागत, आधुनिकीकरण, उर्वरकों व कीटनाशकों के प्रयोग की संतुलित और यथासंभव  जरूरत के अनुसार उपयोग किए जाने के व्यापक  प्रशिक्षण, प्राकृतिक आपदा की आपात  स्थिति मे नुकसान की समुचित भरपाई, किसानों के उपज की उचित कीमत मुहैया कराने की ठोस रणनीतिक व्यवस्था, उन्नत व वैज्ञानिक अनुसंधान से जुड़ाव  तथा किसानों खासकर लघु और सीमांत  तथा भूमिहीन बटाईदार  कृषकों की आमदनी  मे समुचित मुनाफे  की सुनिश्चित  कार्य योजना बनाकर बिचौलियों के काकस से निजात दिलाने के लिए  राष्ट्रव्यापी  कदम उठाने के सामूहिक  जतन सुझाने की जगह राजनीतिक  पार्टियां  किसानों को मोहरा बनाती  आ रहीं हैं।

उल्लेखनीय यह भी है कि देश के 80 फीसदी किसान छोटे किसान हैं। किसानो की आड़ में बड़े -बड़े फार्म हाउस वाली जमात और इनके साथ गठजोड़ मे शामिल बिचौलियों और दलालों की बिरादरी सुनियोजित साजिश रचकर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त कर अन्ततः देश के आम और बहुसंख्यक छोटे व मझौले किसानों का हक मारने मे कामयाब होती रही है। इस काकस में राजनीतिक  पार्टियों  की मिली भगत जगजाहिर  है। खेदजनक तो यह है कि भोले भाले और काफी  जगह अल्प शिक्षित इन किसानों को बरगला कर राजनीतिक दल जब-तब मोहरा बनाकर अपना पॉलिटिकल उल्लू सीधा कर इन्हें बेहयाई  के साथ अपने हाल पर छोड़कर चलते बनते हैं।

कुछ ऐसा ही मौजूदा विधानसभा के उत्तर प्रदेश  चुनाव में होता दिखाई  पड़ रहा है। जहां  किसानों खासकर छोटे सीमांत तथा मझोले  किसानों के कल्याण के लिए समेकित भाव से किए गए अनेक अनेक  उपायों और प्रत्यक्ष आर्थिक पैकेज सहित उपज का सही मूल्यांकन  और भुगतान  की अभूतपूर्व  वस्तुस्थिति की अनदेखी  कर भारतीय  जनता पार्टी  शासित  सरकार को नीचा दिखाने की होड़ में विभिन्न  विपक्षी पार्टियों  ने अपने सूबे के किसानों की दुर्दशा पर आंखों  में पट्टी बांधकर यूपी में किसानों की कथित बदहाली और ज्यादती का सामूहिक राग अलाप कर साबित कर दिखाया है कि कृषि और किसानों से जुड़े आम मसलों पर भी इन राजनीतिक दलों के नजरिए के निहितार्थ  आखिरकार उनके राजनीतिक एजेंडे के दिग्भ्रमित सांचे  के अनुरूप  ही होते हैं।

सत्ता की चाहत में प्रोपेगेंडा और वितंडावाद  फैलाकर , वोट बैंक  के लिए यूज एण्ड थ्रो   की नीति मे अपने लिए शत प्रतिशत  अनुकूल  लगने वाली इन भोले किसानों से उत्तम कौन-सी थोक जमात आसानी से उपलब्ध  होगी? कदाचित  इन तथाकथित  राजनीतिक  आकाओं को यह भी अहसास  होना चाहिए  कि  किसान  भोला तो परिलक्षित  होता है अगर समय और परिस्थितिजन्य अनुमानों  का वास्तविक पारखी भी उससे बढ़कर शायद ही कोई होता है!

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