युधिष्ठिर और अर्जुन के विषाद की 'चित्त भूमि' एक, बस समय का अंतर

Mahabharata: महाभारत दुनिया का सबसे बड़ा महाकाव्य है। इस कथा के दो प्रमुख नायक युधिष्ठिर व अर्जुन विषादग्रस्त होते हैं। दोनों के विषाद की चित्त भूमि एक है। बस समय का अंतर है।

Written By :  Hriday Narayan Dixit
Update:2022-08-26 13:59 IST

Mahabharata : महाभारत दुनिया का सबसे बड़ा महाकाव्य है। इस कथा के दो प्रमुख नायक युधिष्ठिर व अर्जुन विषादग्रस्त होते हैं। दोनों के विषाद की चित्त भूमि एक है। दोनों के विषाद का केंद्र परिवार है। समय का अंतर है। अर्जुन युद्ध तत्पर परिजनों को देखकर विषादग्रस्त होते हैं । युधिष्ठिर इसी युद्ध में मारे गए परिजनों को लेकर व्यथित होते हैं। अर्जुन के विषाद को श्रीकृष्ण का प्रबोधन मिलता है। विषाद प्रसाद बनता है।

अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं, ''आपके प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया- तव प्रसादात्मान अच्युत। लेकिन युधिष्ठिर अपने भाइयों, व्यास जैसे विद्वानों के प्रबोधन से भी संतुष्ट नहीं होते। युद्ध में व्यापक हिंसा हुई थी। सभी योद्धाओं के अपने विचार थे। धर्म और कर्तव्य की अपनी परिभाषाएं थी। युधिष्ठिर धर्मराज थे। धर्म के आग्रही थे। लेकिन धर्म तत्व को लेकर असमंजस में थे। वनपर्व में यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर है। यक्ष ने तमाम प्रश्न पूछे थे। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न था, ''कः पंथाः - जीवन मार्ग क्या है?'' युधिष्ठिर का उत्तर है, ''वेद - श्रुति में भिन्न मत हैं। ऋषि अनेक हैं। तर्क की प्रतिष्ठा नहीं। धर्मतत्व गुहा में है। इसलिए महान लोगों द्वारा अपनाया मार्ग ही श्रेष्ठ है।'' इस वक्तव्य में धर्म की व्याख्या नहीं है।


डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने ''भारत सावित्री'' नाम से महाभारत पर सुन्दर पुस्तक लिखी है। तीसरे खंड में युधिष्ठिर की व्यथा है। युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा, ''पृथ्वी के लिए हमने बन्धु-बान्धवों के वध का पाप किया है। अपने इस पाप से हम नरक जाएंगे। यह राज्य और भोग मुझे नहीं चाहिए।'' अर्जुन ने कहा, ''कैसा दुख है? जिसके कारण धर्म से प्राप्त पृथ्वी को त्याग कर वन जाने की बात सोची जाती है। राज्य और सम्पदा युद्ध से मिले थे।

अर्जुन के अनुसार ''पृथ्वी धर्म से प्राप्त हुई थी।'' यहां युद्ध और धर्म एक हो गए है। अर्जुन ने आगे कहा, ''धर्म और अर्थ का त्याग करके वन प्रस्थान मूढ़ता है।'' (वही) यहां विजित भूमि व धन का उपभोग धर्म बताया गया है। अर्जुन धन की महत्ता बताते हैं, ''दरिद्रता बड़ा पाप है। सब क्रियाएं धन से होती हैं। अर्थ के बिना प्राण यात्रा सिद्ध नहीं होती। धर्म, काम और स्वर्ग सब अर्थ से ही होते हैं।'' (वही पृष्ठ 21) यहां धन से ही स्वर्ग की प्राप्ति ध्यान देने योग्य है। महाभारत का स्वर्ग कल्पना नहीं है। धन साधन से प्राप्त होने वाली विशेष समृद्धि है। अर्जुन के अनुसार "धर्म का पालन भी धन से ही संभव है। काम के बारे में भी धन ही श्रेय है।" चैथे पुरुषार्थ मोक्ष की चर्चा नहीं है। महाभारत के रचनाकाल में धन की विशेष महत्ता जान पड़ती है। अर्जुन ने वेदों के अनुष्ठान को भी धन से जोड़ते हुए कहा, ''वेदों के जितने आदेश हैं, वे बिना धन के पूरे नहीं होते।'' इस वक्तव्य में मोक्ष छोड़कर तीनों पुरुषार्थ धन आधारित हैं। यह महाभारत के रचनाकाल का भौतिकवाद है।


अर्जुन ने कहा, ''दण्ड ही प्रजाओं की रक्षा करता है। दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड से अन्न और धन की रक्षा होती है। यदि दण्ड पालन न करे तो सब कुछ अंधकार में डूब जाए। सब दण्ड के वश में है। अपने आप शुद्ध रहने वाला व्यक्ति दुर्लभ है।'' भीम ने कहा, ''जो बीते दुख का सोच करता है, वह अपने लिए दुख से दुख प्राप्त करता है। लोक रीति को देखते हुए विजय का लाभ उठाइये।'' युधिष्ठिर तैयार नहीं हुए। व्यास की प्रतिभा असाधारण थी। उन्होंने गृहस्थ धर्म की प्रशंसा की, "गृहस्थ जीवन ही शास्त्र का मार्ग है, उसी पर चलना चाहिए।''(वही 31) व्यास ने प्राचीन राज्यशास्त्र का प्रतिपादन किया, "राजा प्रजाओं से कर वसूल करता है। उसका कर्तव्य है कि चोर-डकैतों से राज्य को बचावे। पुरुषार्थ करने से दुष्ट वश में आते हैं। राजा को पाप नहीं लगता।"

'भारत सावित्री' के अनुसार ''व्यास ने युधिष्ठिर को दार्शनिक दृष्टिकोण से राजधर्म समझाया।" इसे पर्याय योग कहते हैं। यह कालवाद का अंग था। कालचक्र रथ के पहिये की तरह घूमता है। सुख व दुख बारी बारी से आते हैं। न कर्म से और न शोच करने से कुछ होता है। अपनी बारी से सुख और दुख, भाव और अभाव होते रहते हैं।" न बुद्धि से कुछ होता है, न पढ़ने लिखने से। काल से मूर्ख भी मालामाल हो जाता है।'' यहां काल सर्वोपरि है।


काल पर व्यास की टिप्पणी सुन्दर कविता है। व्यास ने कहा, ''काल से ही आंधी चलती है। काल से वृष्टि होती है। काल से वृक्ष फलते हैं। काल से ही रात्रियां आती हैं। काल से ही चन्द्रमा खिलता है। बिना काल के वृक्षों में फूल फल नहीं आते। बिना काल के नदियों में जल नहीं बहता। शिशिर, गर्मी और वर्षा बिना काल के नहीं होतीं। बिना काल न कोई मरता है और न कोई जन्म लेता है। बिना काल यौवन नहीं आता। बिना काल के बीज नहीं उगता। बिना काल के सूर्य नहीं आता और अस्त भी नहीं होता। बिना काल के समुद्र में लहरें नहीं उठतीं। काल से पके हुए सब मानव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। न कोई किसी को मारता है, न कोई मरता है। स्वाभाविक रूप से यह सब हो रहा है।(वही पृष्ठ 34-35)

बुद्ध दर्शन में 'संसार दुखमय' है। व्यास के कालवाद में सुख और दुख दोनों हैं। कहते हैं ''शोक और हर्ष के हजारों कारण प्रतिदिन मूर्ख के सामने आते है। वे पंडित को नहीं छूते।'' (वही पृष्ठ 35) युधिष्ठिर का मन शांत नहीं हुआ। श्रीकृष्ण ने कई प्रतिष्ठित राजाओं की कथा सुनाई। इस सूची में अंगदेश के राजा बृहद्रथ, उसीनर के राजा शिवि, दुष्यंत पुत्र भरत आदि के साथ दशरथ पुत्र राजाराम का भी उल्लेख है ''श्रीराम ने प्रजा का पालन पुत्रों जैसा किया। श्रीराम के शासन में मेघ समय पर वृष्टि करते थे।'' (वही पृष्ठ 40) महाभारत युद्ध का समय और महाभारत के रचनाकाल अलग अलग हैं। युद्ध में भारी राष्ट्रीय क्षति हुई थी। संस्कृति व धर्म संहिता की धज्जियां उड़ गई थीं। युधिष्ठिर आहत थे। पूरा देश आहत था। कार्य कारण व्याख्या असंभव थी। कालवाद सीधा सरल विश्लेषण था। व्याख्या के अभाव का विकल्प था कालवाद।


महाभारत में काल की सर्वोपरिता है। इसके पहले काल की महिमा अथर्ववेद में है। ऋषि भृगु ने बताया है, ''काल में मन है। काल में प्राण है। काल का रथ गतिशील है। इस पर ज्ञानी ही बैठ सकते हैं।'' लेकिन  महाभारत में सब काल के अधीन है। यही स्थिति धर्म की भी है। ऋग्वेद में धर्म प्रकृति का संविधान है। सब उसका पालन करते हैं। अथर्ववेद में धर्म पालन की सर्वोपरिता है। महाभारत काल धर्म के पराभव का काल है। महाभारत के गीता वाले अंश में श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि "यह ज्ञान सूर्य ने मनु को दिया। मनु ने इक्ष्वाकु को दिया। काल के प्रवाह में यह नष्ट हो गया। मैं वही ज्ञान तुमको बता रहा हूँ।'' श्रीकृष्ण धर्म की ग्लानि की चर्चा करते हैं। धर्म की ग्लानि होती है तब धर्म संस्थापनार्थाय कर्म जरूरी हो जाते हैं।

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