कब कांग्रेस अपनी हार से होगी शर्मसार
बंगाल में टीएमसी ने केरल में वाम मोर्चा और असम तथा पुडिचेरी में भाजपा ने सत्ता की कमान संभाल लिया है।
नई दिल्ली: कांग्रेस की सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी के राजधानी स्थित आलीशान 10 जनपथ बंगले के बाहर सन्नाटे के लिए सिर्फ कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न स्थितियां ही अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। इस सन्नाटे तथा उदासी के लिए मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल के हालिया चुनावों में कांग्रेस की करारी या कहें कि शर्मनाक पराजय भी जिम्मेदार है।
पश्चिम बंगाल और असम, केरल, पुडिचेरी विधान सभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस पार्टी (टीएमसी) ने केरल में वाम मोर्चा और असम तथा पुडिचेरी में भाजपा ने सत्ता की कमान संभाल लिया है। यानि कांग्रेस का सूपड़ा साफ !
गौर करें कि कांग्रेस के शिखर नेता राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल में जहां पर भी रैलियां की वहां पर कांग्रेस को मतदाताओं ने सिरे से नकारा। सभी क्षेत्रों में कांग्रेस की जमानत भी जब्त हो गई I कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में परिणामतः अपना खाता भी नहीं खोला। उसे 292 सदस्यीय विधान सभा में एक भी सीट तक नहीं मिली। यह अप्रत्याशित नतीजे हैं।
हार पर माथापच्ची
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस पार्टी को सिर्फ़ 3.02 प्रतिशत वोट ही मिल सके, जबकि पिछले चुनावों में पार्टी को यहाँ उसे 12.25 प्रतिशत वोट मिले थे। उसका जनता के बीच ग्राफ लगातर गिरता ही जा रहा है। उसे रोकने की भी कहीं कोशिश होती नजर तक नहीं आ रही।
राहुल गांधी ने 14 अप्रैल को मतिगारा-नक्सलबाड़ी तथा गोलपोखर में रैलियां की। सब जगहों में कांग्रेस के उम्मीदवार बुरी तरह हारे। हारे ही नहीं, बल्कि उनकी जमानतें भी जब्त हो गई। कांग्रेस आला कमान हर बार की तरह से इस बार भी अपनी हार पर माथापच्ची तो करेगी, पर निकलेगा कुछ भी नहीं।
सोनिया गांधी ने पश्चिम बंगाल चुनावों में पार्टी के बेहद खराब प्रदर्शन पर चर्चा के लिए कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाई है। दरअसल देश कांग्रेस को लगातार खारिज करता जा रहा है। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ने वामपंथी दलों के साथ भी गठबंधन किया था, जिसे महाजोट कहा जा रहा था।
जनता भी ध्यान से देख रही थी कि जो दो दल राज्य में दशकों तक लगातार एक-दूसरे की जान के दुश्मन रहे वे साथ-साथ कैसे आ गए। इनका मिलन जनता को समझ में नहीं आया और इस अवसरवादी "महाजोट को जनता ने सिरे से नकार दिया । एक कारण यह भी रहा कि इस महाजोट में घोर सांप्रदायिक मुस्लिम नेता शामिल थे जिन्हें हिन्दुओं ने नकार दिया I
हैरानी तो यह है कि मुशर्दिबाद और मालदा ज़िलों की सीटों पर भी कांग्रेस हारी। इन क्षेत्रों को तो परंपरागत रूप से कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। कांग्रेस तथा लेफ़्ट की पश्चिम बंगाल में विशाल रैलियां तो हुईं, लेकिन; इन्हें एक भी सीट नहीं मिली। दोनों पार्टियाँ ही पराजित हो गईं।
आखिर क्या हो गया इस बार
दोनों ने अलग-अलग समयों में राज्य में एकछत्र लम्बे समय तक राज किया है। पश्चिम बंगाल में जो लड़ाई में थे वही नतीजों में भी हैं। अगर पिछले राज्य विधानसभा चुनावों की बात करें तो कांग्रेस तथा लेफ़्ट को कुल मिलाकर 76 सीटें मिली थीं। तो इस बार क्या हो गया?
एक बात तो यह भी लगती है कि कांग्रेस की हार के लिए सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ-साथ पार्टी के कुछ दूसरे नेताओं को भी जिम्मेदारी लेनी होगी। कांग्रेस में कपिल सिब्बल,पी.चिदंबरम, मनीष तिवारी, अभिषेक मनु सिंघवी, समेत दर्जनों इस तरह के कथित नेता हैं जिनका जनता से कोई संबंध तक नहीं है।
ये लुटियन दिल्ली के बड़े विशाल सरकारी बंगलों में रहकर राजनीति करते हैं। ये सब बड़े मालदार कमाऊ वकील हैं। वकालत से थोड़ा बहुत वक्त मिल जाता है, तो सियासत भी करने लगते हैं। इन्हें लगता है कि खबरिया चैनलों की डिबेट में आने से वे पार्टी की महान सेवा कर रहे हैं।
हालांकि यह भी सच है कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस प्रचार के शुरू से ही कहीं नहीं थी। राज्य में मुख्य लड़ाई तो तृणमूल कांग्रेस पार्टी और भाजपा के बीच ही थी। कांग्रेस तो सिर्फ अपनी मौजूदगी भर दिखा रही थी। पर लड़ाई में आने की कांग्रेस ने कभी कोशिश भी कहां की। कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी यह पता था कि उनके लिए इस बार कोई उम्मीद नहीं है। पर यह भी तो किसी ने नहीं सोचा था कि उसका खाता ही नहीं खुलेगा।
देखिए कांग्रेस में केन्द्रीय नेतृत्व पिछले दो दशक से लगातार कमजोर हो रहा है, क्योंकि वह पार्टी को कही विजय नहीं दिलवा पा रहा है। केन्द्रीय नेतृत्व तब ताकतवर होता है जब उसकी जनता के बीच में कोई साख होती है। इसलिए माना जा सकता है कि उसके खिलाफ भी आवाजें अब और मुखर तरीके से उठने लगेंगी।
पिछले यानी 2019 के लोक सभा चुनाव को जरा याद कर लेते हैं। तब ही केरल और पंजाब को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा था। कांग्रेस का मतलब पंजाब में राहुल गांधी नहीं हैं। वहां पर पूर्व पटियाला नरेश कैप्टन अमरिंदर सिंह के अपने जलवे है।
उसी कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ राहुल गांधी ने कभी नवजोत सिंह सिद्धू को खड़ा किया था। सिद्धू राहुल गांधी के प्रिय हैं। कैप्टन के न चाहने के बाद भी सिद्धू को कांग्रेस में एंट्री मिली थी। राहुल गांधी ने सिद्धू को सारे देश में प्रचार के लिए भेजा था।
सिद्धू ने सभी जगहों में जाकर भाजपा और मोदी जी के खिलाफ अपनी गटर छाप भाषा का इस्तेमाल किया। यह सब जनता देख रही थी। सिद्धू जहां भी गए वहां पर उनकी पार्टी परास्त ही हुई। वैसे लोकतंत्र में वाद-विवाद-संवाद तो होते ही रहना चाहिए।
संसद में भी खूब सार्थक बहस होनी चाहिए। यह लोकतंत्र की मजबूती के लिए पहली शर्त है। पर लोकतंत्र का यह कब से अर्थ हो गया कि आप अपने राजनीतिक विरोधी पर लगातार अनर्गल मिथ्या आरोप लगाते रहें।
कांग्रेस के साथ एक बड़ी समस्या यह भी है कि अब उसकी दुकानों में इस तरह की कोई चीज नहीं ही है जिसके चलते जनता रूपी ग्राहक उससे जुड़ें। कांग्रेस के पास युवा नेताओं का नितांत अभाव नजर आ रहा है। देश का युवा उससे अपने को जोड़कर नहीं देखता। यही कांग्रेस के लिए बड़ी समस्या है। अगर उससे नौजवान ही दूर हो जाएंगे तो फिर उससे अपने को जोड़ेगा कौन।
कांग्रेस आला कमान को अपनी गलतियों को देखना होगा और देश हित में पार्टी को खडा करना भी होगा। देश कांग्रेस से सशक्त विपक्ष की भूमिका को निभाने की उम्मीद करता है। लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका को कम करके नहीं आंकी जा सकती है।
जुझारू विपक्ष सरकार के कामकाज पर नजर रखते हुए उसे उचित मुद्दों पर घेर सकता है। पर कांग्रेस ने तो अपनी स्थिति स्वयं बेहद दयनीय कर ली है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिये चिंतनीय है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं।)