Champu Ramayana: रामो विग्रहवान् धर्म
Champu Ramayana: मध्यकाल में प्रणीत कई रामायण, जैसे कि- अध्यात्म रामायण, अद्भुत रामायण (15वीं शती ई०) और रामचरितमानस (16वीं-17वीं शती) आदि से पूर्व इस कृति को प्रसिद्धि मिल चुकी थी।
Champu Ramayana: ग्याहरवीं शताब्दी के महान् नायक जो शस्त्र एवं शास्त्र दोनों में निष्णात थे, ऐसे महाराज भोज ने कई ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनमें से उनकी एक अनन्यतम कृति है, चम्पू रामायण। मध्यकाल में प्रणीत कई रामायण, जैसे कि- अध्यात्म रामायण, अद्भुत रामायण (15वीं शती ई०) और रामचरितमानस (16वीं-17वीं शती) आदि से पूर्व इस कृति को प्रसिद्धि मिल चुकी थी। निश्चितरूप से महाराज भोज के आदर्श, महर्षि वाल्मीकि ही रहें होंगे। यद्यपि महर्षि वाल्मीकि के साथ महर्षि वशिष्ठ का योगदान भी इस क्षेत्र में अपना स्थान रखता है। चम्पू-रामायण के बालकाण्ड में उल्लेख है कि-लोक से विरक्त व्यक्ति जिस राम का ध्यान किया करते है-वे ही राम पिता की आज्ञा से विश्वामित्र का अनुगमन अर्थात् उनके पीछे चल दिये है:-
योगेन लभ्यो यः पुंसां संसारापेतचेतसाम्।
नियोगेन पितुः सोऽयं रामः कौशिकमन्वगात् ।।
(चम्पू रामायण, बालकाण्ड-35)
योगवासिष्ठ के वैराग्य प्रकरण में वशिष्ठ जी महाराज दशरथ के लिये कहते है:-
इक्ष्वाकूणां कुले जातः साक्षाद्धर्म इवापरः।
भवान् दशरथः श्रीमांस्त्रैलोक्यगुणभूषितः॥
धृतिमान्सुव्रतो भूत्वा न धर्म हातुमर्हसि।
त्रिषु लोकेषु विख्यातो धर्मेण यशसा युतः।।
(सर्ग, 9, 7)
इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न आप (महाराज दशरथ) साक्षाद् द्वितीय धर्म के समान तीनों लोक के उत्तम गुणों से विभूषित हैं। आप धर्म को छोड़ने योग्य नहीं है।
महर्षि विश्वामित्र के लिये भी वशिष्ठ जी ने यही कहा :
एष विग्रहवान् धर्म एष वीर्यवतां वरः।
एष विद्याधिको लोके तपसश्च परायणाम् ॥ (बालकाण्ड, 21.10)
ये (विश्वामित्र जी) साक्षात् मूर्तिमान् धर्म और तप के परम स्थान हैं। सम्पूर्ण विश्व सभ्यता की ओर दृष्टिपात् करने पर हमें यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है और गर्व भी होता है कि उपर्युक्त सभी कथानक जो रामकथा से सम्बन्धित हैं, सबसे ऊपर हैं। यही नहीं बल्कि यह भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित है कि सब कुछ होते हुये भी अर्थात् रामकथा के श्रेष्ठ पात्र भी श्रीराम के व्यक्तित्व के साथ तुलनीय नहीं हैं अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि तुलना करना श्रेयस्कर भी नहीं है जबकि उनके पूज्य पिता महाराज दशरथ और उनके गुरु वसिष्ठ जी एवं विश्वामित्र जी भी उसी कोटि में आते हैं अर्थात् सभी के लिये यही कहा गया कि- ये साक्षात् मूर्तिमान् धर्म हैं। इसका प्रभाव यह हुआ कि हमारे जिन-जिन मूलशास्त्र का रामायण के बाद प्रणयन हुआ, उन सभी में किसी न किसी रूप में रामकथा के तत्त्व विद्यमान हैं। वाल्मीकि के राम 24वें त्रेतायुग में विद्यमान थे। इस बात का उद्घोष वायुपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, हरिवंशपुराण आदि के साथ-साथ महाभारत में भी किया गया है।
चतुर्विंशे युगे वत्स! त्रेतायां रघुवंशजः।
रामोनाम भविष्यामि चतुर्यूहस्सनातनः।।
• (ब्रह्माण्डपुराण; 2.3.26.30)
सन्धौ तु समनुप्राप्ते त्रेतायां द्वापरस्य च।
रामो दाशरथिर्भूत्वा भविष्यामि जगत्पतिः ।।
(महाभारत; शान्ति पर्व, 348.19)
जब श्रीराम का जन्म हुआ उस समय त्रेता युग के तेईस पर्याय बीत चुके थे तथा चौबीसवें पर्याययुग में त्रेता के अन्त में श्रीराम विराजमान थे। श्रीराम ने एक हजार वर्ष तक राज्य किया अर्थात् राम राज्य द्वापर के प्रारम्भ तक था। इस सम्पूर्ण परम्परा को जानने के लिये हमारे पास दो साधन हैं। प्रथमतः वेद और उसके अनन्तर हमारी ऋषि परम्परा। इस बात को वाक्यपदीयकार भगवान् भर्तृहरि ने बहुत अच्छे ढंग से व्यक्त किया है :
प्राप्त्युपायोऽनुकारश्च तस्य वेदो महर्षिभिः।
एकोप्यऽनेकवर्मेव समाम्नातः पृथक् पृथक्।।
(ब्रह्मकाण्ड, 6ठीं कारिका)
वेद उस ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय भी है और अनुकार भी। इन दोनों में भेद यह है कि वेद का उपासनाकाण्ड और कर्मकाण्ड प्राप्ति का उपाय है और ज्ञानकाण्ड से उसका साक्षात् अनुकार, प्रत्यक्ष हो जाता है अर्थात् ज्ञानकाण्ड के माध्यम से ही हम सबको साक्षात् लक्ष्यदर्शन हो रहा है। इस रूप में वेद अनुकार भी है। इस प्रकार वह उपाय भी है और अद्वैत तत्त्व भी। वस्तुतः वेद एक ही है जो अनेक रूपों में देखा जा रहा है। इस प्रकार यदि हम तात्विक दृष्टि से अवलोकन करें तो हमें प्रतीत होता है कि वैदिक ज्ञान परम्परा की आधार भूमि पर रामायण रूपी गंगा प्रवाहित हुई। महर्षि वाल्मीकिकृत रामायण वस्तुतः वेद के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने का शास्त्र है। रामायण वैदिक सिद्धान्तों और मानवीय मूल्यों को एक साथ लेकर आगे बढ़ता है। वाल्मीकि रामायण का प्रामाण्य उसका वेदमूलक होने से है क्योंकि सब वेद के व्याख्यान रूप ही हैं। यह पुराणों का भी उद्घोष है। श्रीराम वेद वेद्य के रूप में अवतीर्ण हये। वस्तुतः वेद ही प्राचेतस महर्षि वाल्मीकि से रामायण के रूप में प्रकट हुये।
वेद वेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।
वेद प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना ।।
यह भी मान्यता है कि वेद के उपबृंहणार्थ ही ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ने लव- कुश के प्रति रामायण को संक्रमित किया :
वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राहयत प्रभुः। (वाल्मीकि रामायण; 1.4.6)
लेकिन सबके मूल में हैं अथवा लक्ष्य है-धर्म के स्वरूप का व्याख्यान।
श्रीमद्रामायण में ब्रह्मर्षि वाल्मीकि जब भी कुछ कहते हैं तो उसके बारे में निःसन्देह यह कहा जा सकता है कि इसकी वेदता स्वतः सिद्ध है। वे उस कोटि के ब्रह्मर्षि हैं जिनके शरीर में किंचित् मात्र भी अशुभ नहीं है। स्वयं श्रीराम ऐसे अन्तःकरण वाले ऋषियों को प्रणाम करते हैं :-
प्रणमन्ति हि ये तेषामृषीणां भवितात्मनाम् ।
न तेषामशुभं किंच्छिरीरे राम विद्यते ।।
इस कोटि के जो महर्षि होते हैं वे काल का अतिक्रमण करने में समर्थ होते हैं। वस्तुतः वे देवतुल्य हैं। उनके लिये कुछ भी देखना असम्भव नहीं है। किष्किन्धाकाण्ड में भगवती सीता के अन्वषेण के प्रसंग में कहा गया है कि- सुवर्णमय उदयाचल, पृथिवीलोक एवं ब्रह्मलोक का द्वार है। इससे आगे की पूर्व दिशा अगम्य है। उधर देवता रहते हैं। उस ओर सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश न होने के कारण वहाँ की भूमि अन्धकार से आच्छन्न एवं अदृश्य हैः
ततः परमगम्या स्यात् दिक्पूर्वा त्रिदशावृता।
रहिता चन्द्रसूर्याभ्यामदृश्या तमसावृता।।
ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ऐसे देवतुल्य ऋषि हैं जिनकी दृष्टि वहाँ तक है जहाँ तक देवताओं की है। यही रामायण की रचना का वैशिष्ट्य है कि सब कुछ महर्षि के सामने दृष्टिगोचर हो रहा है। अब उन्हें आवश्यकता थी इसके प्रमाण की और इसके लिये देवर्षि नारद से उपयुक्त ब्रह्माण्ड में कोई दूसरा हो नहीं सकता था। महर्षि वाल्मीकि ने देवर्षि नारद से प्रेरणा प्राप्त की और राम को पुरुषोत्तम के रूप में उन्होंने नारद जी के माध्यम से ही दर्शन किया। यदि हम भारतीय ज्ञान परम्परा की ओर देखें तो ऋषि परम्परा में नारद का स्थान आद्यर्षि या ब्रह्मर्षि के बाद सर्वोपरि है। इसीलिये वे देवर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। समस्त विद्याओं के वे आश्रय स्थान हैं। तीनों लोकों में सर्वत्र विचरण करने की उनमें सामर्थ्य है। इसीलिये वाल्मीकि जी नायक के अनुसन्धान में उन्हीं के पास जाते हैं और प्रश्न रख देते हैं :
कोन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्चवीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः ।।
( वाल्मीकि रामायण; 1.1.2)
ब्रह्मर्षि वाल्मीकि नारद जी के प्रति निश्चय के साथ कहते हैं- महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातमेवं विधं नरम्। आप में ऐसे पुरुष को जानने की सामर्थ्य है। वस्तुतः इस प्रश्न का उत्तर देवर्षि नारद ही दे सकते थे। यहाँ नारद जी के विषय में बिना कुछ कहे आगे बढ़ना पुण्यप्रद नहीं होगा। इसलिये नारद जी के गाम्भीर्य को जान लेना आवश्यक है। वे ऐसे प्रथम देवर्षि हैं जो सम्पूर्ण विद्याओं को आत्मसात् कर लेने के बाद भी सन्तुष्ट नहीं हुये और वे स्वयं सनत्कुमारजी के पास जाकर कहते हैं, हे भगवन् ! मुझे उपदेश कीजिये। सनत्कुमारजी ने कहा-आप जो कुछ जानते हैं उसे प्रस्तुत करते हुये मेरे पास आओ (ततस्त ऊर्ध्वं वक्ष्यामीति स होवाच ) तदनन्तर मैं आगे के लिये उपदेश करूंगा। सनत्कुमारजी के प्रश्न के उत्तर में नारद जी ने कहा :-
ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पंचमं वेदानां वेदं पित्र्यं राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्या ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्यां सर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्येषिण।।।
हे भगवन्, इन सब विद्याओं का मैंने अध्ययन कर लिया है। इसके अनन्तर सनत्कुमारजी के द्वारा सूक्ष्मतमतत्त्वरूपी ज्ञान को आत्मसात् करने का मार्ग नारद जी के लिये प्रशस्त हो जाता है। यही तो उनके पूर्ण ऋषित्व का कारण है। इस अवस्था को प्राप्त ऋषि ही देवर्षि की कोटि में पहुँचता है। महर्षि वाल्मीकि को उनका सान्निध्य सहज सुलभ है। अतः वे नारद जी से अधिकार के साथ कहते हैं कि-महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातमेवं विधंनरम् और ऐसे वाग्विदां वर, तपः स्वाध्याय निरत तपस्वी को नारद जी उत्तर देते हैं- इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामोनाम जनैः श्रुतः। ऐसे नर (पुरुष) है जो लोगों में, जन में राम नाम से विख्यात है। ये धर्मज्ञ है, सत्यनिष्ठ हैं तथा प्रजा के हित साधन में लगे रहते हैं।
रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः स्मृतिमान् प्रतिभानवान्।।
(वाल्मीकि रामायण; 1.1.14;15)
जीवों तथा धर्म के रक्षक हैं, शास्त्रों के तत्त्वों को जानने वाले हैं। वे श्रीराम गम्भीरता में समुद्र के समान्, धैर्य में हिमालय के समान एवं विष्णु के समान बलवान हैं (विष्णुना सदृशो वीर्ये।)
स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः।
समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव ।।
विष्णुना सदृशोवीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः।
कालाग्निसदृशः क्रोधे, क्षमया पृथिवीसमः।
(वाल्मीकि रामायण; 1.1.17;18)
इस प्रकार समस्त गुणों से सम्पन्न श्रीराम एक राजा हैं। इन्हीं समस्त गुणों से सम्पन्न राम के माध्यम से महर्षि वाल्मीकि लोक में आदर्श प्रस्तुत करते हैं कि राजा के रूप में श्रीराम का क्या कर्तव्य है? क्या गुण और धर्म है? पारिवारिक उत्तरदायित्व क्या है? वाल्मीकिजी ने महर्षि नारद से सम्यक् प्रकार से समस्त वचनों को सुनकर, उसी प्रकार से राम के चरित्र का चित्रण करने के लिये उद्यत हुये।
रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम्।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः।।
वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छुतम्।।
(वाल्मीकि रामायण; 1.1.32)
सनातन परम्परा में प्रत्येक कही हुई बात को अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति से उसी प्रमाण के साथ सुनने की परम्परा है। यहाँ भी नारद जी की कही हुई बात को ब्रह्मा जी ने प्रमाणित किया कि श्रीराम संसार में सबसे बड़े धर्मात्मा और धीर पुरुष हैं। वाल्मीकि जी को ब्रह्मा जी उद्बोधित करते हैं कि जैसा तुमने नारद से सुना है श्रीराम वैसे ही है। उसी के अनुसार काव्य रचना करो। ब्रह्मा जी से महर्षि वाल्मीकि को यह भी वर प्राप्त हुआ कि-काव्य में वर्णित तुम्हारी कोई बात झूठी नहीं होगी।
न ते वागनृता काव्ये काचिदत्रभविष्यति ।
कुरु रामकथां पुण्यां श्लोकबद्धां मनोरमाम्॥
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति ।।
यावत् रामस्य च कथा त्वत्कृता प्रचरिष्यति।
तावदूर्ध्वमधश्च त्वं मल्लोकेषु निवत्स्यसि ॥
(वाल्मीकि रामायण; 1.1.35,36)
श्रीमद्रामायण के अनुशीलन में दो महनीय दैवी आत्माओं के सौभाग्य को देखकर अतीव आनन्द की अनुभूति होती है। प्रथमतः महर्षि वाल्मीकि जिनके अन्तःकरण में स्वयं ब्रह्माजी ने सत्य को प्रतिष्ठित कर दिया। ऐसा शाश्वत सत्य जो चिरकाल तक इस पृथिवी पर देदीप्यमान रहेगा और जिसके कारण वे ब्रह्मलोक के साथ इस पृथिवीलोक में भी प्रतिष्ठित रहेंगे। द्वितीयतः श्रीहनुमान जी का सौभाग्य जिनके विषय में गोस्वामी तुलसीदासजी ने किष्किन्धाकाण्ड के अन्त में लिखा है कि:
पवनतनय बल पवन समाना, बुधि विवेक विज्ञान निधाना।
कवन सो काज कठिन जगमाहीं, जो नहि होत तात तुम पाहीं॥
और ऐसे हनुमान जी जब भगवती सीता के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करते हैं तो उन्हें वह सब प्राप्त हो जाता है जो सम्भवतः उसके बाद किसी को नहीं प्राप्त हुआ :
अजर अमर गुननिधि सुत होउ। करहु सदा रघुनायक छोहू।
दोनों विभूतियों में एक साम्य है वह यह कि दोनों रामरूपी महासागर में लीन रहते हैं। यह सत्य है कि किसी कर्ता के द्वारा कोई भी कार्य ज्ञानपूर्वक ही होता है और ज्ञान या विचाअनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयंभुवा । आदौ वेदमयी यतः सर्वाः प्रवृत्तयः।।
- के साथ कोई-न-कोई भाषा भी होती है। इस दृष्टि से विश्वनिर्माण के अव्यवहित पूर्व में होने वाले ईश्वरीय ज्ञान की भाषा वैदिक भाषा ही है। वाक्यपदीय के अनुसार कोई भी ऐसा ज्ञान नहीं होता जिसमें सूक्ष्मरूप में शब्दों का सम्पर्क न हो- न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते (वाक्यपदीय, 1.123)। सभी ज्ञान शब्द से सम्बद्ध ही होते है-अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वंशब्देन भासते।
आदि और निधन रहित नित्य वाक् स्वयंभू ने उत्सृष्ट की। आदि में वेदमयी नित्य वाक् थी। उस वाक् से संसार की सब प्रवृत्तियाँ हुईं ।
अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयंभुवा ।
आदौ वेदमयी यतः सर्वाः प्रवृत्तयः।।
(अध्याय, 2.31)
वाल्मीकि रामायण का प्रामाण्य उसका वेदमूलक होने से है। क्योंकि सब कुछ वेद के व्याख्यानरूप में ही है और यह व्याख्यान श्रृंखला कोई सामान्य व्यक्ति नहीं बल्कि स्वयं ब्रह्मर्षि वाल्मीकि के मुखारविन्द से निर्झरित हुई। इसीलिये इन सभी तत्त्वों पर विचार करते हुये मैंने इस प्रस्तुति के प्रारम्भ में महर्षि वाल्मीकि के लिये ब्रह्मर्षि अभिधान का प्रयोग किया है क्योंकि जिस प्रकार से ब्रह्मर्षि या आद्यर्षि में कर्तृत्व का गुण है और जिनके माध्यम से ब्रह्म का वाङ्मयी विग्रह वेद का प्रवर्तन हुआ । उसी तरह महर्षि वाल्मीकि की तपस्या एवं स्वाध्याय से रामायणरूपी वेद, लोक में प्रवर्तित हुआ वह भी साक्षात् दर्शन के रूप में। जो अभी तक केवल तप से ही सुलभ था, उसे महर्षि वाल्मीकि ने वाङ्मयी रूप में सबके लिये प्रस्तुत कर दिया। यही तो उनका कर्तृत्व है जो उन्हे ब्रह्मर्षि अभिधान से युक्त कर रहा है। ऋषि परम्परा में वाल्मीकि को ब्रह्मर्षि के रूप में स्वीकार किया गया है। ऋग्वेद में अश्विनौ देवता से सम्बन्धित मन्त्रों के क्रम में च्यवन ऋषि का उल्लेख हुआ है। च्यवन ऋषि को अश्विनौ की कृपा से यौवन की प्राप्ति हुई थी। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि च्यवन ऋषि भृगु ऋषि के वंशज थे जो कई पीढ़ी से पृथक् हो गये थे- च्यवनो हनाम भार्गवः आसीत्।
यह सन्दर्भ राजा शर्याति की पुत्री के द्वारा च्यवन के नेत्र को कष्ट पहुँचाने से सम्बन्धित आख्यान में देखा जा सकता है। यहाँ यह भी उल्लेख है कि च्यवन के साथ उसका विवाह हुआ। इन्हीं च्यवन ऋषि की वंश परम्परा में महर्षि वाल्मीकि का जन्म हुआ अर्थात् ब्रह्मर्षि वाल्मीकि मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की कुल परम्परा से आते हैं। वस्तुतः वे स्वयं मन्त्रद्रष्टा ही हैं जो मन्त्र के स्वरूप को लोक के उपकार के लिये अवतरित कर रहे है।
इसी बात को बाद के कवियों-जैसे-प्रथम या द्वितीय शताब्दी ईस्सी में अश्वघोष, बुद्धचरित में महर्षि च्यवन के वंशज के रूप में वाल्मीकि का उल्लेख करते हैं :
वाल्मीकिरादौ च ससर्ज काव्यं जग्रन्थ यन्न च्यवनो महर्षिः।
(बुद्धचरित, 1.43)
अश्वघोष के प्रमाण से भी यह कहा जा सकता है कि-ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ऋषि परम्परा से साक्षात् सम्बन्धित थे। उनका प्रचेतस् के पुत्र के रूप में उल्लेख सार्थक ही है। प्राचेतस इनका अपर नाम भी प्रसिद्ध है, जिसे वे स्वयं भी घोषित करते हैं :
प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन।
न स्मराम्यनृत वाक्यमिमौ तु तव पुत्रकौ।।
(वाल्मीकि रामायण; उत्तरकाण्ड, 96.19)
प्रयाग की धरती को यह गौरव प्राप्त हुआ कि दो महनीय तपस्वियों के तेज से आज भी यह नगर अपने नाम को सार्थक कर रहा है। प्रथमतः महर्षि भरद्वाज और दूसरे वाल्मीकि जो प्रयाग के आस-पास ही रहे। जब श्रीराम प्रयाग से चित्रकूट की ओर जा रहे थे तो सर्वप्रथम चित्रकूट दर्शन के उपरान्त वाल्मीकि के आश्रम का उन्हें दर्शन होता है।
चित्रकूटमिमं पश्य प्रवृद्धशिखरं गिरिम्।
मुनयश्च महात्मानो वसन्त्यस्मिन्शिलोच्चये।
अयं वासो भवेत् तावदत्र सौम्यरमेमहि ।।
(वाल्मीकि रामायण; अयोध्याकाण्ड, 15.10;15)
श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ वाल्मीकि को प्रणाम करते हैं-
इति सीता च रामश्च लक्ष्मणश्च कृतांजलिः।
अभिगम्याश्रमं सर्वे वाल्मीकिमभिवादयन्।। (वहीं, 16)
वे यहाँ ब्रह्मर्षि वाल्मीकि की थोड़ी चर्चा आवश्यक थी। ऐसे प्रथम ऋषि हैं जिन्होंने लोक की भाषा संस्कृत में वेद के गूढ़ तत्त्वों का व्याख्यान प्रस्तुत किया। वस्तुतः उन्होंने रामायण के माध्यम से वेद प्रतिपादित धर्म का लोक के लिये प्रवर्तन किया। काव्यसर्जना के माध्यम से सनातन धर्म और वेदप्रतिपादित लोकव्यवहार, सम्पूर्ण राष्ट्र में चतुर्दिक् फैल गया। इसमें मुख्य उद्देश्य यह था कि-उन्होंने धर्म के मूर्तिमान् स्वरूप के लिये महाराज दशरथ अथवा महर्षि विश्वामित्र को नहीं प्रस्तुत किया बल्कि महर्षि ने इसके लिये वेद का आश्रय लेकर, उसी के मूर्तिमान् स्वरूप अर्थात् वेद के ही मूर्तिमान् स्वरूप, श्रीराम को प्रस्तुत किया। महर्षि की ही तपस्या का फल है कि उनके इस आदि काव्य के नायक श्रीराम को सम्पूर्ण राष्ट्र ने इस तरह से आत्मसात् किया कि सब श्रीराम ही बनना चाहते है, रावण नहीं: रामादिवत् वर्तितव्यं न तु रावणादिवत्।
इस पर भी चर्चा (अध्ययन) आवश्यक है कि-श्रीराम ही धर्म रूपी विग्रह के साक्षात् मूर्तिमान् स्वरूप, किस कारण से सर्वमान्य रूप से स्वीकार किये गये। वस्तुतः श्रीराम के रूप में परब्रह्म परमेश्वर की ही इस धरातल पर मनुष्य रूप में अभिव्यक्ति अथवा प्रस्तुति है जिसका परम और एकमात्र उद्देश्य है-'धर्म की प्रतिष्ठा में बाधक तत्त्वों का विनाश'। श्रीराम सदैव इस बात के लिये तत्पर रहते हैं कि कहीं धर्म के व्रत में व्यवधान तो नहीं हो रहा है। भरत जब चित्रकूट में मिलते है तो यही प्रश्न उपस्थित होता है :
यां वृत्तिं वर्तते तातो यां च नः प्रपितामहः।
तां वृत्तिं वर्तसे कच्चिद् या च सत्यपथगा शुभा।
(वाल्मीकि रामायण; अयोध्याकाण्ड, 100.74)
भरत, सत्य-धर्म का पालन कर रहे हैं कि नहीं क्योंकि परम कल्याण का यही मूल तत्त्व है। राम तत्त्वदर्शी हैं, वस्तुतः यहाँ यह कहना उचित नहीं प्रतीत हो रहा है क्योंकि तत्त्वतः श्रीराम का जो मूल स्वरूप है उसका ज्ञान हो जाने पर, इन सब बातों का कोई अर्थ नहीं रह जाता है लेकिन यह ज्ञान हो जाने पर भी कि श्रीराम का दर्शन हमें जिस रूप में होता है अर्थात् तत्त्वतः वे-
यत्तदद्देश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुः श्रोत्रं तदपाणिपादम्।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः॥
(मुण्डकोपनिषद्; 1.1.6)
उनका यह स्वरूप तो केवल तपस्वियों या ज्ञानियों के लिये ही दर्शनीय है, सामान्य जन के लिये कदाचिद् सम्भव नहीं है । लेकिन परब्रह्म परमेश्वर का इस रूप में दर्शन अथवा यह स्वरूप जो श्रीराम के रूप में उपस्थित हो रहा है, वह तो पुरुषोत्तम के रूप में सबके लिये दर्शनीय हो जाता है। पुरुषोत्तम का यहाँ यह तात्पर्य नहीं है कि वह पुरुष जाति विशेष में सर्वोत्तम हैं। वस्तुतः ब्रह्म तो पुरुष के रूप में सब में विराजमान हैं। लेकिन मानव के रूप में उनकी यह अनुकृति उन्हें पुरुषोत्तम बना देती है। यह अन्वेषण का विषय था, महर्षि वाल्मीकि के लिये- कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे (बालकाण्ड, 1.2.4)। केनोपनिषद् में इसी का उत्तर मिल जाता है, जहाँ कहा गया है कि :
तस्यैष आदेशो यदे तद्विद्युतो
व्युद्युतदा 3 इतीन्यमीमिषया 3 इत्यधिदैवतम।
उसी एक के आदेश से सब कुछ होता है और उसी से देवगण भी अनुशासित रहते हैं। उसी की महिमा से ही सभी महिमामण्डित हैं। उसी के व्रत का पालन पृथिवी के साथ-साथ अन्तरिक्ष एवं द्युलोक के प्राणी भी करते हैं। वह ब्रह्म जब मनुष्य के रूप में अवतरित होता है तो उसका वह रूप सामान्य जन तो नहीं, लेकिन देवर्षि को सहज सुलभ हो जाता है और वह और कोई नहीं बल्कि : इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः।
अब परब्रह्म परमेश्वर, धर्म का किस तरह से पालन करते हैं । अथवा लोक में धर्म के पालन हेतु सबको धर्मानुशासन में रहने के लिये किस प्रकार प्रेरित करते हैं, इसी को पूर्णरूप में श्रीमद्वाल्मीकि रामायण में प्रस्तुत किया गया है। यह अनुशासन समय और काल के सापेक्ष है-
धर्म के साक्षात् विग्रह के रूप में श्रीराम का कर्तृत्व बाल्यावस्था से ही दृष्टिगोचर होने लगता है। महर्षि वाल्मीकि बालकाण्ड के अट्ठारहवें सर्ग में इसका सजीव चित्रण प्रस्तुत करते हैं। श्रीराम अपने भाइयों के साथ ही स्वाध्याय एवं शस्त्रविद्या के अभ्यास में लगे रहते हैं कभी भी सं गच्छध्वं संवदध्व सं वो मनांसि जानताम् के उद्घोष से रंचमात्र भी विमुख नही दिखाई पड़ते। इस क्रम में वे सदैव पिता की सेवा में भी लगे रहते हैं :
ते चापि मनुजव्याघ्रा वैदिकाध्ययने रताः॥
पितृशुश्रूषणरता धनुर्वेदे च निष्ठिताः॥ (1.18.36)
श्रीराम शिष्य के रूप में जिस तरह से विनय आदि गुणों का परिचय देते है तथा सविनय जिज्ञासा, कर्त्तव्य के प्रति जागरूक होकर कार्यों के प्रति कृतसंकल्प का भाव, उन्हें एक शिष्य के रूप में गुरु के अन्तःकरण से स्नेहभाव प्राप्त होता है और बला और अतिबला विद्या के रूप में जो ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ कदाचिद् उसका दूसरा उदाहरण भी नहीं है।
मन्त्रग्रामं गृहाणत्वं बलामतिबलां तथा।
न श्रमो न ज्वरो वा ते न रूपस्य विपर्ययः॥
एतद् विद्याद्वये लब्धे न भवेत् सदृशस्तव ।
बला चातिबला चैव सर्वज्ञानस्य मातरौ ॥
क्षुत्पिपासे न ते राम भविष्येते नरोत्तम।
बलामतिबलां चैव पठतस्तात राघव ।।
(बालकाण्ड, सर्ग 22:13-17)
बला और अतिबला के रूप में जो विद्यायें श्रीराम को गुरु विश्वामित्र से प्राप्त हुईं। वे सभी उसी को प्राप्त हो सकती थीं जिसका अन्तःकरण परम शुचिता को प्राप्त हो गया है। महर्षि को तो इसमें सन्देह ही नहीं है क्योंकि विधि के पूर्व ही वे श्रीराम को 'नरोत्तम' के रूप में सम्बोधित करते हुये विद्या के महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं। इस निधि के प्राप्त हो जाने के अनन्तर भी श्रीराम का अन्तःकरण अहंकार शून्य है।
वे सभी विद्याओं को अपने अन्तःकरण में धारण करके, सम्बन्धित विद्याओं के देवतत्त्व को यथा समय उपस्थित होने का निवेदन करते हुये स्व स्थान में रहने का अनुरोध करते हैं। यह कार्य कोई लोकोत्तर मनुष्य ही कर सकता है। सामान्य प्राणियों के लिये तो कदापि सम्भव नहीं है। श्रीराम एक ऐसे शिष्य के रूप में भारतीय जनमानस में प्रतिष्ठित हैं, जो अपने गुरु की आज्ञा को ही अनुशासन मानते हैं, उस पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं है। यही अनुशासन उन्हें ताटका-वध के लिए उपस्थित करता है यद्यपि यह क्षत्रियोचित मर्यादा के विपरीत है। एक ओर ताटका का वध तो उसी क्रम में परम तपस्विनी अहल्या का चरण स्पर्श करते है और केवल स्पर्श ही नहीं करते बल्कि परम आनन्द का अनुभव करते हैं। महर्षि वाल्मीकि कहते हैं-
राघवौ तु तदा तस्याः पादौ जगृहतुर्मुदा ।
स्मरन्ती गोतमवचः प्रतिजग्राह सा हि तौ ॥
श्रीराम का कर्तव्यबोध जब पिता के प्रति, गुरु के प्रति, ब्राह्मणों के प्रति एवं ऋषियों के प्रति एक साथ उपस्थित हो जाता है तब भी क्या करणीय है, इसमें तनिक भी विलम्ब नहीं करते। यह चित्रण वस्तुतः वाल्मीकि रामायण में हमें परशुराम जी एवं राघव के संवाद में स्पष्ट दिखाई देता है। वे उनके अहंकार को नष्ट करके एक ओर उनकी तपस्या में वृद्धि करते हैं तो दूसरी और उनकी अप्रतिहत गति का उन्हें ही दान करते है। क्षत्रिय धर्म की मर्यादा, राजधर्म की मर्यादा और पुत्र के दायित्व को भी अपने अलौकिक विवेक और शक्ति से श्रीराम समस्त सांस्कृतिक तत्वों को एक ही मंच पर उपस्थित कर देते हैं।
श्रीराम का आदर्श एकांगी नहीं है और ऐसा भी नहीं कि पुत्र के रूप में उनका दायित्व सीमित रहा हो। वे अपनी सभी माताओं के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझते थे तभी तो वे अपनी माताओं के सभी आवश्यक कार्यों को पूर्ण करके ही गुरुजनों द्वारा दिये जाने वाले महनीय कार्यों को सम्पादित करने में लग जाते थे :
मातृभ्यो मातृकार्याणि कृत्वा परम यन्त्रितः।
गुरुणां गुरुकार्याणि काले कालेऽन्ववैक्षत ॥
(बालकाण्ड, 77.22)
श्रीराम के पूरे जीवन में जो सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह है पुत्र के रूप में पिता के संकल्प को व्रत के रूप में स्वीकार करने का संकल्प । वह भी वह स्थिति जो किसी के लिये सम्भव नहीं है- वह है 'मन में धर्म की उपस्थिति। माँ कैकेयी कहती हैं-'वनं गन्तुं कृतत्वरः' और ये शब्द उन्हें और भी संकल्पवान के रूप में प्रस्तुत करते हैं। श्रीराम किसी भी संकल्प को जब स्वीकार करते हैं तो पूर्णता के साथ स्वीकार करते हैं, वे वन जा रहें है, ऋषि के रूप में आचरण का निर्वाह करने में ऋषियों से भी आगे रहे तभी तो युद्धकाण्ड (17-35;36) में वानर उनको सम्बोधित करते हुये कहते हैं किः
अज्ञातं नास्ति ते किंचित् त्रिषु लोकेषु राघव ।
आत्मानं पूजयन् सम पृच्छस्यमान् सुहृत्तया ।।
त्वं हि सत्यव्रतः शूरो धार्मिको दृढविक्रमः।
परीक्ष्यकारी स्मृतिमान् निसृष्टात्मा सुहृत्सु च।।
श्रीराम इन सब गुणों को पूर्णता के साथ धारण करते हुये अपने संकल्प को और भी जाग्रत कर देते हैं। वन जाने के पूर्व अपनी समस्त प्रिय वस्तुओं का दान करते हैं। अपने गुरुपुत्र सुयज्ञ को सब देकर उनका मंगलमय शुभाशिषः प्राप्त करते है। पूर्णतः सांसारिक अथवा लौकिक सुख के संसाधनों का त्याग करके वे पूर्ण रूप से ऋषिमय तपस्वी चर्या के लिये अयोध्या से प्रस्थान करते हैं ।लेकिन कभी भी अयोध्या को, प्रजा को, अपने पूज्य पिताजी के यश और कीर्ति को क्षणमात्र भी मन से बाहर नही करते, तभी तो गुह के साथ प्रथम मिलन में यह सब एक साथ उपस्थित हो जाता है। वह चित्रकूट को ही अयोध्या के रूप में देखते हैं और पयस्विनी उनके लिये सरयू बन जाती हैं। सबमें सबको देखना और सबको अपने में देखना, यही तो है पुरुषोत्तम का वैशिष्ट्य। लोक की मर्यादा और लोक के जो अधिष्ठाता हैं, उनको भी देखना, धर्मज्ञ का ही कर्तव्य है। कामदगिरि की गोद में उनकी पर्णकुटी में, प्रवेश तभी सम्भव है, जब वास्तु देवता की अनुमति हो, उनकी शुभदृष्टि हो। श्रीराम लोक के कलेवर को भी मन में बैठाये हुये हैं, तभी तो वास्तुदेवता का पूजन करने के उपरान्त ही आगे की चर्या प्रारम्भ होती है।
कर्तव्यं वास्तुशमनं सौमित्रे चिरजीविभिः।
कदाचिद् हम सब जैसे सामान्य व्यक्तियों के लिये यह समझना बड़ा कठिन हो जाता है और उस दृश्य के आनन्द का अनुमान लगाना कठिन हो जाता है । जब माँ कौसल्या उनकी कुशल क्षेम के लिये स्वस्तिवाचन कर रही हों। प्रभु श्रीराम अपने कुशल क्षेम के लिये वास्तुशान्ति कर रहे हैं। दूसरा दृश्य तो और भी अद्भुत रहा होगा जब सीधे-सीधे वे भगवान् भूतभावन की प्रतिष्ठा में जुटे रहे होंगे।
लेकिन लोक की मर्यादा तभी प्रतिष्ठित होती है और तभी आगे बढ़ती है जब सर्वशक्ति सम्पन्न लोकोत्तर महापुरुष सृष्टि के प्रत्येक तत्त्व के संरक्षण के लिये लालायित लग रहा हो। यह लोलुपता प्रति-पद श्रीराम के चरित्र में दिखाई पड़ती है।
इसी का एक रूप लक्ष्मण के साथ है तो दूसरा रूप भरत के साथ। अयोध्या के सम्राट के रूप में महाराज दशरथ के संकल्प को उन्होंने, अपने को भरत के रूप में प्रतिष्ठित किया । लेकिन प्रति पल अपने दायित्व के प्रति श्रीराम उन्मुख दिखाई देते हैं। भरत के चित्रकूट आगमन पर स्नेह का समुद्र उपस्थित कर देते हैं । लेकिन बड़े स्नेह के साथ राजा के रूप में भरत के आचरण को भी जानना चाहते हैं। महर्षि वाल्मीकि इस प्रसंग को कुछ इस तरह से प्रस्तुत करते हैं :
अङ्केभरतमारोप्य पर्यपृच्छतसादरम्।
भरत चित्रकूट पहुँच गये हैं। श्रीराम अत्यन्त स्नेह के साथ भरत से मिलते हैं। अपने अङ्क में स्थान देते हैं और फिर अपनी जिज्ञासाओं को भरत के सामने रखते जाते हैं।
धर्म में प्रतिष्ठित एक राजा का आचरण कैसा होना चाहिए, यह श्रीराम के प्रश्न के माध्यम से हम देख सकते हैं। राजा के रूप में भरत अपने माता- पिता के प्रति, ब्राह्मण एवं देव कार्यों के प्रति तथा राज्य के विद्वज्जनों का सम्मान कर रहे हैं कि नहीं। उन्होंने मंत्रिपरिषद् में शूरवीर, शास्त्रज्ञ, जितेन्द्रिय, कुलीन तथा राजा के मन की बात समझ लेने वाले व्यक्तियों को सम्मिलित किया है कि नहीं। राजा के रूप में उनकी दिनचर्या संयमित है कि नहीं, इत्यादि विषय पर भरत से जानना चाहते हैं। वस्तुतः भरत को धर्मज्ञ राजा के अनुशासन का पाठ भी पढ़ा रहे हैं; वह भी स्नेह रूपी अथाह समुद्र के माध्यम से। अयोध्याकाण्ड का यह प्रसंग अद्भुत है। भाइयों के बीच इतना
स्नेह और विश्वास कि भरत के लिये, एक भी अपमान जनक शब्द सुनने के लिये तैयार नहीं। अपनी ही छाया लक्ष्मण को यह उत्तर देने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते कि-मेरे एक शब्द पर भरत सम्पूर्ण अयोध्या का राज्य तुम्हें दे सकते हैं। ऐसा अटूट सम्बन्ध है, श्रीराम का अपने भाइयों के साथ। इस तत्त्व की और प्रतिष्ठा हो जाती है जब श्रीराम भरत के प्रति, एक अग्रज के रूप में, कुल पालक के रूप में तथा धर्मज्ञ के रूप में उपदेश देते हैं:
यावत्पितरि धर्मज्ञ गौरवं लोकसत्कृते।
तावद्धर्मकृतां श्रेष्ठं जनन्यामपि गौरवम्।। 101.21 11 ॥
एताभ्यां धर्मशीलाभ्यां वनं गच्छेति राघवः
मातापितृभ्यामुक्तोऽहं कथमन्यत्समाचरे ॥22॥
त्वया राज्यमयोध्यायां प्राप्तव्यं लोकसत्कृतम्।
वस्तव्यं दण्डकारण्ये मया वल्कलवाससा ।।2 3 ।।
स च प्रमाणं धर्मात्मा राजा लोकगुरुस्तव।
पिता दत्तं यथाभागमुपभोक्तुं त्वर्महसि ।॥25॥
यदब्रवीन्मां नरलोकसत्कृतः पिता महात्मा विबुधाधिपोपमः।
तदेव मन्ये परमात्मनो हितं न सर्वलोकेश्वरभावमव्ययम् ।।26 ।।
(अयोध्याकाण्ड, 101-21; 25)
श्रीराम भरत को सीधे एक धर्मज्ञ के रूप में उपदेश देते हैं कि-स च प्रमाणं धर्मात्मा राजा लोकगुरुस्तथा अर्थात् धर्मात्मा राजा जो लोकगुरु भी हैं, उन्हीं की आज्ञा शिरोधार्य होनी चाहिए। हम दोनों भाई अपने-अपने हिस्से में प्राप्त आज्ञाओं का पालन करें। पिता की आज्ञा ही मेरे लिये परम हितकारी है । उसके स्थान पर सर्वलोकेश्वर का पद भी मेरे लिये हितकर नहीं है। स्वयं श्रीराम भरत को भी धर्मज्ञ कहकर ही सम्बोधित करते हैं लेकिन वह स्वयं के कर्त्तव्य पालन के प्रति भी हिमालय की तरह अविचल भाव में (स्थितः स्वधर्मे हिमवानिवाचलः) स्थित हैं। श्रीराम का भरत के प्रति उद्बोधन धर्म की प्रतिष्ठा करता है और भरत को कहना ही पड़ता है :
अधिरोहार्य पादाभ्यां पादुके हेमभूषिते।
एते हि सर्वलोकस्य योगक्षेमं विधास्यतः ॥
आप इन सुवर्णभूषित दोनों पादुकाओं पर अपना चरण रखें। यही अब संसार के योग-क्षेम का विधान करेंगी। सर्वज्ञ श्रीराम भरत को सदैव धर्म की मर्यादा में रहने के लिये सचेत करते हैं, तभी तो भरत से कहते हैं-
मातरं रक्ष कैकेयीं मा रोषं कुरु तां प्रति।
मया च सीतया चैव शप्तोऽसि रघुनन्दन।
मैं अपनी और सीता की सौगन्ध देकर कहता हूँ कि माँ कैकेयी के प्रति क्रोध न करना और उनकी रक्षा करना।
श्रीराम वन में लोकानुसार एवं शास्त्रानुसार दोनों रीति से कर्तव्य का पालन करते हैं। पिता के स्वर्ग गमन की सूचना मिलते ही पिण्डदान देना उनका प्रथम कर्तव्य बन जाता है। वस्तुतः वही शास्त्रज्ञ है जो प्रत्येक कर्म एवं तत्सम्बन्धित सामग्रियों के स्थानापन्न का ज्ञान रखता है। श्रीराम शास्त्र के प्रतिमान हैं। वे पिण्डदान के लिये इङ्गुदी के फल का चयन करते हैं। भगवान् वाल्मीकि श्रीराम के नित्य नैमित्तिक क्रियाकलापों के चित्रण मंा आनन्दानुभूति के साथ वर्णन करते हैं। वस्तुतः यह स्पन्दन तो उन्हें ही हो सकता है क्योंकि वे पुरुष को पुरुषोत्तम के रूप में भी दर्शन करने का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं कि कैसे त्रैलोक्य का अधिपति सन्ध्योपासना में तत्पर है तो दूसरी ओर ऋषियों को भी क्षणमात्र के लिये संशय उत्पन्न करने में भी पीछे नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि भगवान् अगस्त्य के मन में भी निमेषमात्र के लिये ही सही, वह क्षण आया होगा जब उनके श्रीचरणों को पकड़कर श्रीराम उनके सम्मुख उपस्थित हुये होंगे (जग्राहापततस्य पादौ च रघुनन्दनः)। धर्ममूर्ति वही है जो स्थान एवं परिवेश में भी धर्म को हृदय में रखकर कर्तव्य पालन में नियुक्त रहे। श्रीराम यह जानते हैं कि इन्हीं ऋषियों की चरण धूलि का प्रसाद पृथिवीलोक के ऐश्वर्य का कारण है। इसके एक कण से जैसे सृष्टिकर्ता सृष्टिकर्तृत्व में समर्थ होते हैं वैसे ही लोक में ऐश्वर्य की प्रतिष्ठा विना इन ऋषियों की कृपा के नहीं हो सकती है। ये ऋषि ही लोक गुरु हैं तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक ही चौपाई में वह सब कह दिया जो श्रीराम के द्वारा महर्षि वशिष्ठ से लेकर महर्षि विश्वामित्र, मुनिवर सुतीक्ष्ण आदि के साथ-साथ भगवान् अगस्त्य के प्रति परम आदर भाव अथवा पूर्ण समर्पण का भाव उपस्थित करते हुये प्रस्तुत हुई हैं।
जेंहि गुरुचरण रेणु सिर धरहीं।
ते नर सकल विभव बस करहीं।
वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड में जितने भी प्रसंग हैं, सभी में एक- एक विशेष तत्त्व की प्रतिष्ठा होती हुई दिखाई देती है। चाहे वह जटायु का प्रसंग हो अथवा कबन्ध के दाह संस्कार का, सभी में श्रीराम लोकानुसार कर्तव्य का निर्वाह करते हैं। उनके द्वारा किये गये सभी कार्य केवल और केवल पुरुषोत्तम ही कर सकते हैं । लेकिन परिणाम के बाद वह पुनः हम सबको हमारे अपने रूप के समान ही प्रतीत होते हैं। यही तो धर्मज्ञ की मर्यादा है। वस्तुतः धर्मज्ञ अथवा धर्ममूर्ति का पद तप और स्वाध्याय से ही प्राप्त होता है। इसकी प्राप्ति के लिये ही तो ऋषिगण प्रयत्नशील रहते हैं क्योंकि इसकी प्राप्ति हो जाने पर कर्तृत्वशक्ति स्वतः उद्भुत हो जाती है। इसलिये महर्षि ने अपने उद्देश्य को प्रारम्भ में ही उपस्थित कर दिया । लेकिन महर्षि वाल्मीकि शबरी और उसके निवास स्थान के वर्णन में भक्ति, तप, श्रद्धा, आतिथ्य सत्कार और समर्पण को एक साथ एक ही विग्रह में प्रस्तुत कर देतें हैं। अद्भुत प्रस्तुति है। एक ओर तो श्रीराम, दशरथनन्दन है तो दूसरी ओर तप एवं श्रद्धा की साक्षात् मूर्ति, गुरुजनों की सेविका शबरी। शबरी को किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। वह तो ऋषि पद का भी अतिक्रमण करने में सफल है। क्यों न हो-ब्रह्म का साक्षात् दर्शन अथवा सान्निध्य इस रूप में किसे सुलभ हुआ है। ऐसी स्थिति में कुछ नही सूझता सिवाय इसके कि पूर्ण आलिंगन में अपने को डुबो दे या फिर चरणों का आश्रय ले। शबरी प्रभु के चरणों में अपना आश्रय देखती है। महर्षि कहते हैं-पादौ जग्राह रामस्य । शबरी बार-बार कहती है- अद्य मे सफलं तप्तं स्वर्गश्चैव भविष्यति। आपके आगमन से मेरी तपस्या सफल हो गई। वस्तुतः यहाँ भगवान् और भक्त के बीच का संवाद जिस रूप में है, वह अन्यत्र दुलर्भ है। शबरी अपने तप एवं श्रद्धा के कारण परम तत्त्व के दर्शन का लाभ उठा रही हैं लेकिन जो उसे सुनना चाहिए वही वाक् उसके मुख से निःसृत होकर उसे सुना रही है। शबरी कहती है :
तवाहं चक्षुषा सौम्य पूता सौम्येन मानद ।
गमिष्याम्यक्षयांल्लोकांस्त्वत्प्रसादादरिंदम् ।।
(अरण्यकाण्ड, 74.13)
आपकी दृष्टि पड़ गई, अब तो मैं आपकी कृपा से अक्षयलोक को जाऊँगी। जैसे वाल्मीकि जी को पूर्ण आत्मतत्त्व में प्रतिष्ठित करने के लिये ब्रह्मा जी आये थे वैसी ही शबरी अपनी बात को पुष्ट करने के लिये अपने गुरुदेव का वचन दोहराती है। कहती हैं-जब आप चित्रकूट में थे मेरे पूज्य गुरु जिनकी शुश्रूषा में मैं रत रहती थी, जब उन्होंने विमान से दिव्यलोक की ओर प्रस्थान किया तभी जाते समय यह कहकर गये कि आप यहाँ पधारेगें और मैं आपकी कृपा से अक्षयलोक को जाऊँगी। वस्तुतः धर्मज्ञ के रूप में श्रीराम अपने तपस्वी रूप का अतिक्रमण नहीं कर सकते। वह सब जो शबरी को उनके अनुग्रह से प्राप्त हो रहा है, शबरी स्वयं ही कहती जा रही है। अद्भुत प्रसंग है, एक ओर गुरुजनों की सेवा से संक्रान्त तपरूपी तेज जिसके प्रकाश से विद्याओं के लिये भूमि मिल जाती है तो दूसरी ओर इन विद्याओं के लक्ष्य अर्थात् आदित्यलोक। यही स्वरूप उपस्थित है उस मतङ्गवन में शबरी और श्रीराम का। शबरी बहुत देर तक मानवीय सृष्टि का अनुकरण करने में सहज नहीं थी । लेकिन उन्हीं में समाहित होने के लिये भी गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह करना चाहती थी। यही तो मिला था, उसे अपने गुरुजनों से। इसलिये कह ही देती है-गन्तुं समीपं भवितात्मनाम् मैं अपने गुरुजनों के पास जाना चाहती हूँ। प्रभु श्रीराम भी यहाँ कह ही देते हैं-आश्चर्यमिति चाब्रवीति 'अद्भुत' है अर्थात् मुझे छोड़कर मेरे धाम को जाने के लिये इतनी तत्परता लेकिन उत्तर देना तो धर्मज्ञ का कर्त्तव्य है। अतः कह ही देते हैं- भद्रे गच्छ कामं यथासुखम्। यह सम्बोधन भी अद्भुत है-भद्रे ! वस्तुतः शबरी का सबकुछ कल्याणकारी है। यहाँ पर शबरी चित्त को पुंजीभूत कर अस्पर्श योग द्वारा सहज ही पुण्यधाम को प्राप्त कर लेती है।
कृतज्ञ होना और कृतज्ञता ज्ञापित करना व्यक्ति का परम कर्तव्य है। कृतघ्नता से बड़ा कोई पाप नहीं। यद्यपि मित्र के साथ यह भाव कुछ और रूप में प्रदर्शित होता है ।लेकिन वेद का अनुशासन है कि वह मित्र नहीं जो मित्र अपने सखा को कुछ न प्रदान करे। न स सखा यो न ददाति सख्ये । श्रीराम इस कर्तव्य के पालन में और भी एक पग आगे हैं। किष्किन्धाकाण्ड के 38 वें सर्ग में महाराज सुग्रीव से श्रीराम की जो चर्चा चल रही है वह परम कल्याणकारिणी है। वे कहते हैं- आप में मित्रों के हित साधन का कल्याणकारी गुण है। अब मैं सनाथ हूँ और मैं युद्ध में शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लूँगा। आप मेरे परम हितैषी मित्र हो और सहायता करने में भी सक्षम हो।
त्वमेव मे सुहृन्मित्रं साहाय्यं कर्तुमहर्षि।
सुग्रीव स्वयं उपकृत हैं लेकिन मित्र कह रहें कि नहीं ऐसा नहीं है। आपका सान्निध्य मेरे लिये मंगल का हेतु है। यह लक्षण कदाचित् और किसी में असम्भव है।
श्रीराम करुणा वरुणालय हैं। स्नेह के प्रतिमान हैं। तत्त्वतः सीता जी के साथ उनका सम्बन्ध क्षणमात्र के लिये वियुक्त नहीं रहने का सम्बन्ध है। वस्तुतः राम और सीता एक ही मूर्ति है जिसमें दोनों का स्वातन्त्र्य है। यही दर्शन तो है भगवत्पादशंकराचार्य महाराज का जिसे वे सौन्दर्यलहिरी में प्रस्तुत करते हैं। श्रीराम की शक्ति उद्धव-स्थिति-संहारकारिणी सीता ही हैं। वे उन्हें कैसे अलग रख सकते हैं। महर्षि को यह ज्ञात है लेकिन लोकाधिप राम मर्यादा से पोषित हैं। वे लङ्का में विराजमान सीता का ध्यान योग से दर्शन करते हैं :
एवं मया महाभाग दृष्टाजनकनन्दिनी ।
उग्रेण तपसा युक्ता त्वद्भक्त्या पुरुषर्षभ ।।
(सुन्दरकाण्ड, 44.19)
श्रीराम उनके वियोग में रुदन भी करते हैं। सुन्दरकाण्ड का यह प्रसंग जहाँ पर हनुमान् जी चूड़ामणि भगवान् को दे रहे हैं। चूड़ामणि देखते ही श्रीराम भावविह्वल हो जाते हैं। एक सामाजिक जन की तरह लक्ष्मण के साथ विलाप करने लगते हैं।
तं मणिं हृदये कृत्वा रुरोद सहलक्ष्मणः।
यथैव धेनुः स्त्रवति स्नेहाद् वत्सस्य वत्सला।
तथा ममापि हृदयं मणिश्रेष्ठस्य दर्शनात्।।
युद्धकाण्ड का वह प्रसंग जहाँ पर किसी को भी संशय उत्पन्न हो सकता है कि शत्रु के भाई को शरणागति प्रदान करें या न करें। लेकिन धर्मज्ञ श्रीराम के अन्तःकरण में कोई संशय नहीं उत्पन्न होता। धर्म एवं शील से युक्त व्यक्ति लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश का विचार नहीं करता। श्रीराम के अन्तःकरण में भी किसी प्रकार का संशय नहीं है। उपस्थित वानर समूह से विचार-विमर्श अवश्य होता है लेकिन शरण आये हुये व्यक्ति का परित्याग कदापि श्रीराम के द्वारा नहीं हो सकता। उनका यह उद्घोष है कि :-
आर्तों वा यदि वा दृप्तः परेषां शरणं गतः।
अरिः प्राणान् परित्यज्य रक्षितव्यः कृतात्मना ।।
(युद्धकाण्ड, 18.28)
वस्तुतः वानरों के प्रति जो श्रीराम का उपदेश है, उसमें जो महत्त्वपूर्ण तत्त्व यह है कि-शरणागति प्रदान करना धर्म का विषय है। यदि शरणार्थी का संरक्षण न किया गया और वह अपने ही सामने नष्ट हो जाय तो उस व्यक्ति के सभी संचित पुण्य भी उसी समय उसका साथ छोड़ देते हैं। अतः विभीषण को शरणागति प्रदान करना ही हम सबके पुष्य का कारण है। यही हमारे पुण्य में अभिवृद्धि का हेतु है। इसी शुभ कर्म से धर्म का तो पालन होगा ही, साथ ही साथ यश और स्वर्ग की प्राप्ति का हेतु भी बनेगा।
धर्मिष्ठं च यशस्य च स्वर्यं स्यात् तु फलोदये।
(युद्धकाण्ड, 18.32)
रामायणरूपी अरण्य में प्रवेश करने से चहुँ ओर राम ही दिखाई पड़ते है। पहले हम तपस्वी राजकुमार श्रीराम को देखते हैं, तदनन्तर उनके अनेक रूप हमारे सामने आते हैं, चले जाते हैं क्योंकि उनका तो यही शाश्वत धर्म है-रूपं रूपं प्रतिरूपं बभूव । उनकी जैसे ही इच्छा हुई, आपके सामने अपने उस रूप में उपस्थित हो जाते हैं। वानरों को शिक्षा दे रहे थे, दशरथनन्दन के रूप में लेकिन बीच में ही कहते हैं :
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद व्रतं मम ॥
(युद्धकाण्ड, 18.33)
यह तो सहस्राक्षरा वाक् है, एक बार जो उनके सामने सश्रद्ध समर्पित हो गया, स्तुति में रत हो गया उसके लिये कहीं भी भय नही है क्योंकि भयमुक्त करना ही उनका धर्म है। यही उनका शाश्वत व्रत भी है।
जब श्रीराम अपने संकल्प अथवा व्रत के महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं तो उसका स्वरूप सब को स्पष्ट होने लगता है। सुग्रीव जैसे सभी प्रज्ञावान् वानरों को तत्काल यह अनुभूति हो जाती है कि धर्म यही है जो श्रीराम के द्वारा प्रवर्तित किया गया। बार-बार धर्मज्ञ सम्बोधन से सभी ने श्रीराम का सत्कार भी किया है।
किमत्र चित्रं धर्मज्ञ लोकनाथशिखामणे।
यत् त्वमार्यं प्रभाषेथाः सत्त्ववान् सत्पथे स्थितः ॥
(युद्धकाण्ड, 18.36)
यह आश्चर्यचकित करने वाली वाणी महाराज सुग्रीव के द्वारा प्रस्तुत हो रही है जिनके चित्त में श्रीराम के विषय में किसी प्रकार का संशय नहीं है। यहाँ उनके द्वारा श्रीराम के लिये उद्घोष है कि- आप सत्पथ पर स्थित हैं। बहुत ही सुन्दर विशेषण यहाँ पर श्रीराम के लिये, सुग्रीव के द्वारा कहा गया है। वस्तुतः धर्मज्ञ एवं लोकनाथशिरोमणे ! कहने के बाद कुछ भी शेष नहीं रह जाता।
श्रीराम के और भी बहुत से अभिधान हैं। वस्तुतः वे चक्रवर्ती सम्राट के पुत्र हैं। चक्रवर्ती सम्राट जैसे मन में धर्म को धारण करते हैं, वैसे क्रोध को भी। क्रोध में वे साक्षाद् यम ही हैं, ऐसा समझना चाहिए। श्रीराम का यह स्वरूप हम सब समुद्र के प्रति उबलते हुये क्रोध के रूप में देख सकते हैं। लेकिन वे तो आत्मतत्त्वनिष्ठ हैं, यह क्रोध विवेक के साथ है, विवेक के साथ जो क्रोध होता है वह व्यक्ति अपने आत्मज्ञान से ही शान्त कर लेता है। होता तो यह है कि वह तम ही नहीं सत्त्व एवं रजोगुण पर भी विजय प्राप्त कर लेता है।
यः समुत्पतितं देह आकाशान्मन्युमुल्बणम्।
आत्मजिज्ञासया यच्छेत् स गुणानतिवर्तते ।।
(श्रीमद्भागवतमहापुराण, 6.4.14)
जैसे ही वरुणालय के मुख से सश्रद्ध वाणी प्रस्तुत हुई श्रीराम, करुणा वरुणालय के रूप में दर्शनीय हो गये। एक ही श्लोक में महर्षि ने समुद्र के मुख से उसका अनुशासन प्रस्तुत कर दिया।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च राघव।
स्वभावे सौम्यतिष्ठन्ति शाश्वतं मार्गमाश्रिताः ।।
तत्स्वभावो ममाप्येष यदगाधोऽहमप्लवः।
विकारस्तु भवेद् गाध एतत् ते प्रवदाम्यहम्।।
(युद्धकाण्ड, 22.26;27)
श्रीराम का दायित्व है कि वह सभी के धर्म एवं शाश्वतमार्गं को और प्रतिष्ठित करें। यही उन्होंने किया भी। श्रीराम कभी भी क्षणमात्र के लिये गुरुजनों, ऋषियों एवं तपस्वियों आदि की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते हैं। वस्तुतः यह उनकी कुल परम्परा है। श्रीराम के मार्गदर्शक के रूप में एक ओर वसिष्ठ, विश्वामित्र, भरद्वाज जी हैं तो दूसरी और अगस्त्य जैसे महामुनि भी। सबके सब राम की शक्ति और उनके स्वरूप से भी परिचित हैं लेकिन शिष्य अथवा पुत्र के प्रति जो वात्सल्य है, वह प्रत्येक गुरु और पिता को यही प्रेरित करता है कि इन्हें सर्वशक्ति सम्पन्न बनाये। श्रीराम सभी की बातों का अनुकरण करते हैं, सबसे प्राप्त शक्तियों को संजोते हैं। यही तो शिष्य के रूप में उनका शाश्वतधर्म है। श्रीराम विश्वेश्वर के रूप में रावण को नहीं परास्त करना चाहते। वे तो चाहते हैं कि गुरुजनों की शिक्षा एवं शक्ति से रावण को परास्त करूँ।
भगवान् अगस्त्य को चिन्ता हो गई। यह युद्ध बहुत कठिन है। कुल देवता की आराधना आवश्यक है। साक्षाद् उपस्थित हो जाते हैं और कहते हैं कि इस युद्ध में विजय के लिये यह सपर्या कर ही लेना चाहिए और आदित्यहृदय स्तोत्र सुनाकर युद्ध के लिये प्रेरित करते हैं। श्रीराम, वे जैसा कहते हैं, उसी मार्ग का अनुसरण करते हैं:
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यसनातनम्।
चेन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ।।
(युद्धकाण्ड, 105.3)
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥4॥
(युद्धकाण्ड, 105.4)
सर्वमठलमाठल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्॥
(वही, 105.5)
महाराज दशरथ का संकल्प था कि राम का राज्याभिषेक हो लेकिन काल के व्यवधान में यह नहीं सम्भव हुआ। राम को, तपस्वी जीवन व्यतीत करने के लिये अरण्यवासी होना पड़ा और भरत राज्य के उत्तराधिकारी हुये लेकिन श्रीराम ने भरत को वचन दिया था कि पिता के संकल्प को पूर्ण करके मैं तुम्हारे संकल्प को पूर्ण करूँगा। यह जब अवसर उपस्थित हुआ, उस समय श्रीराम ने भरत के निवेदन को स्वीकार किया।
भरतस्य वचः श्रुत्वा रामः परपुरंजयः।
तथेति प्रतिजग्राह निषसादासने ।
(युद्धकाण्ड, 128.12)
धर्म के सभी तत्त्व श्रीराम के अन्तःकरण में प्रतिष्ठित हैं। श्रीराम शास्त्र और लोक दोनों के ममज्ञं हैं। उसके अनुसार अपने आचरण एवं कर्म से लोक के मार्गदर्शन के लिये प्रस्तुत करते हैं। श्रीराम का आदर्श कालान्तर में धर्म की अनेक परिभाषाओं के साथ उपस्थित होता है। अभी तक केवल एक ही प्रतिमान 'था- 'वेदोऽखिलोधर्ममूलम्' लेकिन यह तत्त्व महर्षि वाल्मीकि के व्याख्यान से अपने प्रकाश को बिखेरने लगा जो :
धृतिःक्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
के रूप में समाज का मार्गदर्शन करने लगा।
ऋषिगण सृष्टि के नियमन में विशिष्ट नियामक तत्त्वों को ही स्वीकार करते हैं। विशेषतः जो शाश्वत और अनन्त हो तथा सृष्टि के सर्वोच्च स्वतन सत्ता के रूप में प्रतिष्ठित हो। महर्षि वाल्मीकि ने इस शाश्वत एवं नियामक तत्त्व को श्रीराम के रूप में दर्शन किया। यही नहीं उसे समाज के लिये परम कल्याणकारी माना। जैसे सृष्टि यज्ञ, सृष्टि की प्रक्रिया के रूप में विहित है वैसे ही श्रीराम का आदर्श समाज के नियमन के लिये आदर्श रूप में है। देवों का धर्म है कि-ऋत का पालन करें। कभी भी सूर्य या आदित्य इसका उल्लंघन नहीं करते। वे नियमित रूप से प्राची में ही उदित होते हैं, उनके पूर्व उषा का आगमन, आकाश से जलवृष्टि आदि देवों का धर्म है। इन्द्र को धर्मकृते विपश्चिते (धर्म का कार्य करने वाले), धर्मणामित्रावरुणा (मित्र और वरुण धर्मपूर्वक अपने नियमों की रक्षा करते हैं) और मित्र को सत्धर्मणा परमे व्योमनि (ऋग्वेद, 5.63.1) के रूप में सम्बोधित किया गया है। वेद का सौष्ठव - 'सत्य' और उसकी प्रतिष्ठा है। ऋत और सत्य ही सृष्टि के आधार हैं। इसी का अनुसरण और पालन करते हुये व्यक्ति संकल्पवान् होता है अर्थात् दीक्षा का अधिकारी होता है जिसके माध्यम से उसका तप निरन्तर चलता रहता है। सदैव इन्हीं के स्मरण एवं अनुस्मरण में वह काल की मर्यादा का भी अतिक्रमण कर जाता है। यह सब एक साथ यदि देखना है तो श्रीराम की जीवन यात्रा में दिखाई पड़ जायेगा। इसीलिये महर्षि वाल्मीकि ने राम को धर्म के मूतिमान् विग्रह के रूप में हम सबके सामने प्रस्तुत किया। इससे सभी प्रकार के संशय का विनाश तो हुआ ही मोक्ष का साधन भी प्राप्त हो गया। महर्षि वाल्मीकि तो ब्रह्माजी से यह भी कह गये कि अब मेरे द्वारा किसी और काव्य रचना की आवश्यकता ही नहीं है।
कृतं रामायणं ब्रह्मन् व्यक्तं मोक्षस्य साधनम्।
निःसन्देहो ह्यहं भूतः क्षोभमोह विवर्जितः।।
किमर्थपरं ग्रन्थं करिष्यामि वृथोद्यतः ।।
(बृहद्धर्मपुराण; 27.6-7)
श्रीराम की चर्चा का अवसर भी उन्हीं की कृपा से प्राप्त होता है। ऐसे परम कृपालु के विषय में जो कुछ व्यक्त करने का आनन्द प्राप्त हुआ वह उन्हीं की सपर्या के रूप में यहाँ समर्पित है।
श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम
श्रीराम राम शरणं भव राम राम
( लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र , वाराणसी के क्षेत्रीय निदेशक है।यह लेख ‘कला व संस्कृति में श्रीराम’ पुस्तक से लिया गया है। यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के संरक्षक , संस्कृति व पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के मार्ग दर्शन , प्रमुख सचिव पर्यटन व संस्कृति मुकेश कुमार मेश्राम के निर्देशन, संस्कृति निदेशालय के निदेशक शिशिर तथा कार्यकारी संपादक तथा अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डॉ लव कुश द्विवेदी के सहयोग से प्रकाशित हुई है। )