नेताओं का दलित टूरिज़्म - कह दें, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो

पॉलिटिकल टूरिज़्म का मुक़ाम है - किसी न किसी दलित का घर। रात को रुकना, खाना, नहाना और वीडियो व फोटो सोशल मीडिया पर डाल कर लाइक, ट्वीट व रिट्विट गिनना। कमेंट लिखवाना। पढ़ना।

Written By :  Yogesh Mishra
Published By :  Shashi kant gautam
Update:2022-05-09 15:32 IST

नेताओं का दलित टूरिज़्म: Photo - Social Media

Lucknow: राजनीति (Politics) जब किसी सवाल को लेकर परेशान, हलकान दिखती है तो बस समझिये कि सवाल व समस्या ख़त्म नहीं होने वाली। बढ़ने वाली है। हमारे राजनीतिक हलकों में इन दिनों दलितों को लेकर काफ़ी चिंता देखी जा रही है। राजनेताओं के पॉलिटिकल टूरिज़्म (Political tourism of politicians) के शौक़ जग जाहिर हैं। पॉलिटिकल टूरिज़्म का मुक़ाम है - किसी न किसी दलित का घर। रात को रुकना, खाना, नहाना और वीडियो व फोटो सोशल मीडिया पर डाल कर लाइक, ट्वीट व रिट्विट गिनना। कमेंट लिखवाना। पढ़ना। यह शौक़ किसी एक राजनीतिक दल तक सीमित नहीं है। कभी कांग्रेस (Congress) के राहुल गांधी (Rahul Gandhi) यह करते हुए दिखते थे। मिलते थे। अब भाजपा (BJP) इसी नक़्शे कदम पर देखी जा रही है।

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh Politics) में दलितों की सियासत (politics of dalits) करने वाली बसपा (BSP) या उसके नेता यह करते हुए कभी नहीं देखे गये हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती (BSP supremo Mayawati) को किसी ने दलित की लड़ाई लड़ते नहीं देखा होगा। किसी दलित से मिलते या फिर पीड़ित उत्पीड़ित दलित परिवार की महिला को ढाँढस बँधाते या फिर गले मिलते पाया ही नहीं जा सकता है। पर कांग्रेस व भाजपा हैं कि दलितों के लिए जान दिये जा रहे हैं।

बसपा सुप्रीमो मायावती: Photo - Social Media  

दलितों को जगह दी जाये

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (Rashtriya Swayamsevak Sangh) ने भी अघोषित तौर पर हर स्वयंसेवक के घर में डॉ. भीमराव अंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) का एक चित्र लगाने को कह रखा है। संघ की पेशानी पर अब इसे लेकर बल पड़ने लगे हैं कि दलित उसकी ओर तेज़ी से मुख़ातिब क्यों नहीं ? फोकस है कि दलितों को जगह दी जाये।

RSS: Photo - Social Media

आज़ादी से आज तक राजनेताओें ने हिंदू समाज में सबसे अधिक चिंता दलितों की की है। पर यदि आरक्षण को छोड़ दिया जाये तो इस चिंता का कोई लाभ दिखता नहीं है। आरक्षण (Reservation) का लाभ भी इस समाज के दस फ़ीसदी मुट्ठी भर लोगों से आगे नहीं बढ़ पाया है। इस दस फ़ीसदी आबादी की तीसरी पीढ़ी दलित आरक्षण का लाभ उठाकर 'सवर्ण' बन जा रही है। पर किसी राजनेता में यह ताक़त नहीं है कि आरक्षण के लाभ को ऊर्ध्वाधर की जगह क्षैतिज करने का फ़ैसला ले ले। आरक्षण कैसे समूचे दलितों तक पहुँचे, इस पर कोई फ़ार्मूला दे।

यह जानते हुए कि हम एक आर्थिक युग (economic age) में प्रवेश कर गये हैं। जी रहे हैं। किसी भी जात व जमात की आर्थिक हैसियत बढ़ जाती है तो वह तमाम कुरीतियों का शिकार होने से बच जाती है। आरक्षण ने दलितों में एक 'सवर्ण' तबका बना दिया है। पर कहीं से कोई स्वर नहीं फूट रहा है। राजनीति ने पहले अल्पसंख्यक, सवर्ण, दलित और पिछड़ा ख़ेमा तैयार किया। बात राजनेताओें के मन की नहीं हुई तो पिछड़ा में मोस्ट ओबीसी, दलितों में मोस्ट दलित बना दिया। बाँटा, छाँटा व राज किया।

आरक्षण: Photo - Social Media

पहली दलित कविता

दलित अंग्रेज़ी शब्द डिप्रेस्ड क्लास का हिन्दी अनुवाद है। भारत में वर्तमान समय में 'दलित' शब्द का अनेक अर्थों में उपयोग होता है। साहित्य में दलित वर्ग की उपस्थिति बौद्ध काल से मुखरित रही है किंतु एक लक्षित मानवाधिकार आंदोलन रूप में दलित साहित्य मुख्यतः बीसवीं सदी की देन है। दलित साहित्यकारों में से अनेक ने दलित पीड़ा को कविता की शैली में प्रस्तुत किया। कुछ विद्वान 1914 में 'सरस्वती' पत्रिका में हीरा डोम द्वारा लिखित 'अछूत की शिकायत' को पहली दलित कविता मानते हैं। कुछ अन्य विद्वान स्वामी अछूतानंद 'हरिहर' को पहला दलित कवि कहते हैं, उनकी कविताएँ 1910 से 1927 तक लिखी गई। उसी श्रेणी मे 40 के दशक में बिहारी लाल हरित ने दलितों की पीड़ा को कविता-बद्ध ही नहीं किया, अपितु अपनी भजन मंडली के साथ दलितों को जागृत भी किया । दलितों की दुर्दशा पर बिहारी लाल हरित ने लिखा :

एक रुपये में जमींदार के, सोलह आदमी भरती ।

रोजाना भूखे मरते, मुझे कहे बिना ना सरती ॥

दादा का कर्जा पोते से, नहीं उतरने पाया ।

तीन रुपये में जमींदार के, सत्तर साल कमाया ॥

रवींद्र प्रभात ने अपने उपन्यास 'ताकि बचा रहे लोकतन्त्र' में दलितों की सामाजिक स्थिति (social status of dalits) की वृहद चर्चा की है। वहीं डॉ. एन.सिंह ने अपनीं पुस्तक 'दलित साहित्य के प्रतिमान' में हिन्दी दलित साहित्य के इतिहास कों बहुत ही विस्तार से लिखा है।'ठाकुर का कुँआ' प्रेमचन्द्र की एक प्रसिद्ध कहानी है,जिसका कथानक अस्पृश्यता केंद्रित है।

ब्रिटिश शासकों ने समाज को सांप्रदायिक तौर पर बांटा

1931-32 में गोलमेज सम्मेलन (round table conference) के बाद जब ब्रिटिश शासकों ने समाज को सांप्रदायिक तौर पर बांटा तो, उन्होंने उस वक्त की अछूत जातियों के लिए अलग से एक अनुसूची बनाई, जिसमें इन जातियों का नाम डाला गया। आज़ादी के बाद के भारतीय संविधान (Indian Constitution) में भी इस औपनिवेशिक व्यवस्था को बनाए रखा गया। इसके लिए संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 जारी किया गया, जिसमें भारत के 29 राज्यों की 1108 जातियों के नाम शामिल किये गए।

ब्रिटिश शासन का दौर: Photo - Social Media

अनुसूचित जातियों की इस संख्या से दलितों की असल तादाद का अंदाज़ा नहीं होता। क्योंकि ये जातियां भी, समाज में ऊंच-नीच के दर्जे के हिसाब से तमाम उप-जातियों में बंटी हुई हैं। जब भारत में मुस्लिम धर्म आया, तो ये दलित और दबे-कुचले वर्ग के लोग मुसलमान बने। जब यूरोपीय औपनिवेशिक का भारत आना हुआ, तो यही लोग उनकी सेनाओं में भर्ती हुए। जब ईसाई मिशनरियों ने स्कूल खोले, तो इन दलितों को उन स्कूलों में दाखिला मिला और वो ईसाई बन गए।

दलितों के घर राजनेताओं का भोजन

दलितों के घर जो भी राजनेता भोजन करने जाते हैं, वे सोचते हैं कि वे दलित उद्धार (Dalit salvation) का इतिहास लिख रहे हैं, पर हक़ीक़त यह है कि वे दलितों पर बोझ बनते हैं। भले ही एक दिन के लिए। क्योंकि कोई भी नेता दलित के यहाँ जाता है तो अपनी सरकार की सभी योजनाएँ जो उसने दलितों के हितों के लिए बना रखी हैं, लेकर नहीं जाता है। जिस गाँव में वह दलित के घर रुकता है, उस गाँव में उसकी ही सरकार के विकास की रोशनी तक नहीं पहुँच पाती है।

दलित के घर नेता अचानक नहीं जाता है। पहले किसी एक बेचारे दलित का घर चिन्हित किया जाता है। उसके घर मंत्री या विधायक जी की पसंद के सामान पहुँचाये जाते हैं। एसी लगवाया जाता है। सोफा डलवाया जाता है। कई बार तो यह देखा गया है कि 'दलित टूरिज़्म' (Dalit Tourism) के बाद आधी रात को मंत्री जी शहर के किसी सितारा होटल में अवतरित हो जाते हैं। क्योंकि मीडिया सो चुका रहता है। कोई पूछने वाला नहीं रहता है। दलित के घर रुकने व भोजन करने का सियासी एजेंडा पूरा हो चुका रहता है।

दलित के घर जाने पर माननीय पीने वाला पानी भी साथ लेकर जाते रहे हैं। अभी योगी सरकार (Yogi Sarkar) के मंत्री नंदी जिस वीडियो से वाहवाही लूट रहे हैं, उसमें उनके नहाने के लिए जो प्लास्टिक की बाल्टी इस्तेमाल हो रही है उसका टैग तक नहीं उतरा है। साफ़ है बाल्टी खास मंत्री जी के लिए ख़रीदी गयी है। माननीय ही नहीं, उनके शागिर्द भी बाद में कभी जा कर उस बेचारे दलित का हाल तक नहीं पूछते। जिसके यहाँ रुक कर, खाना खा कर उनके माननीय ने दलित उद्धार का इतिहास रचा था। गंगा स्नान किया हुआ सवर्ण या पिछड़ा मंदिर में जा सकता है पर गंगा स्नान किया हुआ दलित नहीं? केवल चुनाव को छोड़ कर दलित दूसरे समाज के साथ लाइन में भी नहीं लग सकता है। इस विसंगति को दूर करने में तक़रीबन पचहत्तर साल में माननीयों ने कुछ नहीं किया। यह सवाल पूछा जाना चाहिए।

मुलायम सिंह यादव: Photo - Social Media



यादव अब साइकिल से दूध बेचता नहीं दिखता

एक दौर था कि मुलायम सिंह (Mulayam Singh) ने पिछड़ी जाति में शुमार किये जाने वाले यादवों की सियासत का मोहडा सँभाला, उन्होंने यादवों की आर्थिक हैसियत में बेतहाशा इज़ाफ़ा किया। आज कोई भी थाना बिना यादव के चलाना मुश्किल है। कोई यादव साइकिल से दूध बेचता नहीं दिखता है। उत्तर प्रदेश के किसी इलाक़े में कोई फ़ंक्शन करें तो आपके सेलिब्रिटी की सूची में एक न एक यादव का नाम ज़रूर आ जायेगा। आर्थिक हैसियत बदली तो यादव पिछड़ों में सवर्ण बन गया। पर मायावती भी चार बार मुख्यमंत्री रहीं, उन्होंने दलितों की आर्थिक हैसियत सुधारने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। हद तो यह हुई कि मायावती जिस जाटव समाज से आती हैं, वह भी जस की तस पड़ी है। इसके लिए हमारे कोई माननीय मायावती को नहीं कोसते हैं कि आख़िर उनकी सरकार होने के बाद भी दलितों की हैसियत नहीं ठीक हुई?

हमें तुमसे कुछ न चाहिए, मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो

याद आता है कि इन्हीं राजनेताओें को अठारह बीस फ़ीसदी होने के बाद भी अल्पसंख्यक कहे जाने वाली जमात की बहुत चिंता रहती थी। वे एक टोपी वाला, दाढ़ी वाला अग़ल बग़ल ज़रूर रखते थे। उनके घर जाना, सेवाइयां खाना, रोज़ा इफ़्तार करना, खजूर खाना व खिलाना करते थकते नहीं थे। आज उस क़ौम की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में दलितों को चाहिए कि एक दिन का तीर्थ समझकर उनके घर पहुँचने वालों से बेसाख़्ता कहें- "हमें तुमसे कुछ न चाहिए, मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो।" क्योंकि ये अपने घर आपको खाने पर नहीं बुलायेंगे। यदि आप पहुँच गये तो खुद को इनके डाइनिंग टेबल पर नहीं पायेंगे।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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