Dalit literature: दलित लेखक नहीं मानते कि ग़ैर दलित रच सकता है दलित साहित्य
Dalit Literature: शोधकर्ताओं का यह कहना है कि उस काल में इसे दलित साहित्य जैसा नाम नहीं दिया गया था। लेकिन इनमें दलितों के प्रति चिंता और उनके प्रति समाज में हो रहे अन्याय को प्रदर्शित किया जाता था।
Dalit Literature: कई शोधकर्ताओं ने दलित साहित्य आंदोलन के प्रारंभ का पता लगान का प्रयास किया है। कुछ का मानना है कि इसका प्रारंभ बुद्ध के समय का हो सकता है। कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि इसको प्रारंभ करने वाले चौदहवीं शताब्दी के संत चोखा मेला थे। जबकि शोधकर्ताओं ने इसकी शुरुआत के लिए महात्मा फुले (1828-90)और कुछ ने प्रोफ़ेसर एस.एम. माते(1886-1957) को इसका श्रेय दिया है। शोधकर्ताओं का यह कहना है कि उस काल में इसे दलित साहित्य जैसा नाम नहीं दिया गया था। लेकिन इनमें दलितों के प्रति चिंता और उनके प्रति समाज में हो रहे अन्याय को प्रदर्शित किया जाता था। इसलिए इन साहित्यकारों को दलित साहित्य आंदोलन के अगुवाओं में शामिल किया जा सकता है।
आधुनिक समय में अपने विचारों व जीवन के प्रति दृष्टिकोण तथा सही उद्देश्यों को प्राप्त करने के संघर्ष के लिए डॉ अंबेडकर (Dr. Ambedkar) ने भी दलित साहित्य में अपना स्थान बनाया है। मराठी साहित्य का इतिहास (History of Marathi Literature) इस बात को प्रदर्शित करता है कि नई साहित्यिक धारा का श्रेय उन्हीं साहित्यकारों को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने साहित्य की धारा को गंभीरता से प्रभावित किया हो। उनका लेखन मुख्य रूप से मराठी भाषा में गंभीर लेखों तक ही सीमित है। जो उनके ही कुछ मराठी पत्र पत्रिकाओं 'मुकनायक','जनता' तथा 'प्रबुद्ध भारत' में प्रकाशित हुए हैं। उनके कुछ गंभीर लेख अंग्रेज़ी भाषा में भी प्रकाशित हुए हैं।
साहित्य के इस प्रकटीकरण को , जिसमें सामाजिक चेतना की बात प्रमुख रूप से उभरती हो, ही दलित साहित्य कहा जाता है। सवाल यह उठता है कि यदि दलित साहित्य का प्रारंभ डॉ अंबेडकर से ही होता है तो दलित साहित्यिक आंदोलन डॉ अंबेडकर की मृत्यु के बाद कैसे और क्यों इतना आगे बढ़ा?
दलित साहित्य का विकास (Development of Dalit Literature) भी डॉ अंबेडकर (Dr. Ambedkar) के आंदोलन का एक हिस्सा बना। जो लगभग 1920 से प्रारंभ हुआ। हालाँकि उसके पहले भी बहुत से लेखकों ने अपने साहित्य के ज़रिये ब्रिटिश सरकार (British Government) का ध्यान दलितों की दुर्दशा की ओर दिलाने का प्रयास किया था। इन लेखकों ने मनुस्मृति व हिंदुत्व के क्रूर नियमों पर हमला किया। इनमें से कुछ साहित्यकार थे, गोपाल बाबा वेलेंगकर, पंडित कोंडी राम व किसान फागोजी बंसोल । गोपाल बाबा वेलेंगकर ने अंग्रेज़ी में लिखा। वह भारतीय सेना में थे। उन्होंने उस समय जन चेतना जगाने की कोशिश की। जब ब्रिटिश सेना में अछूत युवकों के भर्ती पर प्रतिबंध लगाया गया था।
किसान फागोजी बंसोल ने डॉ अंबेडकर का किया था विरोध
हालाँकि किसान फागोजी बंसोल ने उस समय डॉ अंबेडकर का विरोध किया था। जब 1935 में उत्तरी महाराष्ट्र (North Maharashtra) के पावले में उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। उनकी कविताएँ हिंदुत्व पर गंभीर हमले करती हैं। दलित साहित्य डॉ अंबेडकर (Dalit Literature Dr. Ambedkar) के आंदोलन के पहले बहुत कम ही लिखा गया था। डॉ अंबेडकर एक दूरदृष्टि वाले रचनात्मक राजनीतिज्ञ तथा समाज शास्त्री थे। उन्होंने 1945 में मुंबई में पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी और सिद्धार्थ कॉलेज की स्थापना की। क्योंकि उनका मानना था कि शिक्षा लोगों के लिए नये रास्ते खोलती है। और दलितों को इसका फ़ायदा उठाना चाहिए ।उनका संदेश था- "एकता, शिक्षा व आंदोलन।" जिसका अधिक से अधिक लोगों ने अनुसरण किया। इसके लिए सामाजिक व राजनीतिक मोर्चों पर अनेक प्रकार के आंदोलन भी चलाये गये। 1950 में जब इस कॉलेज से दलित छात्रों का पहला बैच स्नातक बनकर निकला तो उस समय घनश्याम तलवाटकर तथा अन्य लोगों ने सिद्धार्थ साहित्य संघ नाम की एक साहित्यिक संस्था का गठन किया। बाद में इसी संगठन से महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ का भी गठन किया गया। दलित नाम होने के बावजूद इनके साहित्य में समाज पर तथा कथित पढ़े लिखे लोगों की मान्यताओं का प्रभाव दिख जाता था।
प्रबुद्ध भारत में हुआ प्रकाशन
इस दौर के साहित्य का मुख्यरूप से ' प्रबुद्ध भारत' में प्रकाशन हुआ। जो रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया ( पूर्व में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन) का मुख्य पत्र था। इसके अलावा डॉ अंबेडकर के जन्म दिवसों पर निकाली जाने वाली दलित पत्रिकाओं में ऐसे साहित्य का प्रकाशन होता था। इसी समय तत्कालीन मराठी साहित्य प्रमुख रूप से ब्राह्मण लेखकों - बी.एस. खांडेकर , एन.एस. फड़के जैसे लेखक रहे। (यहाँ तक कि दलित साहित्य पर भी इन्हीं लेखकों का प्रभाव अधिक था। चूँकि दलित साहित्य में ऐसे लेखों या कहानियों का ही बाहुल्य था।जिसमें इनकी समस्याओं पर चिंता व्यक्त की जाती थी। लेकिन वह भी खांडेकर व फड़के की शैली से पूरी तरह से प्रभावित होता था।
इसी काल में अन्ना भाऊँ साठे , जिनके जन्म का पता नहीं 1969 जो मार्क्सवादी व मैक्सिमम गोर्की जैसे लेखकों से अधिक प्रभावित थे, का भी उदय हुआ। इन्होंने बहुत ही प्रभावशाली तरीक़े से दलितों के जीवन और उनकी आवाज़ को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने में काफ़ी महत्वपूर्ण काम किया। हालाँकि डॉ अंबेडकर ने कामरेड डांगे के साथ मिलकर 1938 में ब्लैक एक्ट के खिलाफ प्रदर्शन किया। और जिसने श्रमिक आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई पर इससे कोई सामाजिक क्रांति करने लायक़ माहौल बनाने में सफलता नहीं मिल सकी। उच्च वर्ण का नेतृत्व जो कि रुस की क्रांति से प्रभावित था, पर उसका यह मानना था कि इस तरीक़े से देश में जातिवाद तथा आंतरिक गतिरोधों को समाप्त करने के लिए किसी क्रांति की आवश्यकता नहीं है।
दलित लेखकों ने एक अलग सम्मेलन किया था आयोजित
14 अक्टूबर, 1956 का दिन न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व का भी था, क्योंकि इस दिन दलितों ने एक नये सांस्कृतिक जीवन का रास्ता भी पा लिया था। इसी दिन दलित लेखकों ने एक अलग सम्मेलन आयोजित किया। इस प्रकार के सम्मेलन की ज़रूरत महात्मा फूले ने लगभग सौ वर्ष पूर्व महसूस की थी, जब उन्होंने मराठी ग्रंथकार सभा , वार्षिक सम्मेलन जिसे अब साहित्य सम्मेलन कहा जाता है, दलित लेखकों का सर्व प्रथम सम्मेलन बंबई में 1958 में महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ के तत्वावधान में किया गया।
15 फ़रवरी, 1958 को ' प्रबुद्ध भारत' में प्रकाशित 'बंधु मानव' शीर्षक से लेख में इस प्रकार के सम्मेलन की आवश्यकता पर प्रकाश डाल गया था। इससे इस बात का साफ़ पता लगता है कि उच्च वर्ण के लोगों की निगाह में दलित लोगों की समस्याओं के प्रति कितनी उदासीनता थी। अपने उद्घाटन भाषण में अन्ना भाऊँ साठे ने दलित साहित्य के उद्देश्य को वर्णित किया। लेकिन यह भी दलित साहित्य के क्रियाकलापों में कोई बहुत गति नहीं ला सका। वास्तव में एक दो अपवादों को छोड़कर कोई भी दलित लेखक समकालीन लेखकों के स्तर तक नहीं पहुँच पाया।
साठ का दशक मराठी साहित्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण
साठ का दशक मराठी साहित्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण था। इस दौर में अनेक धाराओं ने जन्म लिया। इसी काल में श्रमिकों की समस्याओं को प्रतिबिम्बित करने वाली नारायन सुखे की कविताएँ आईं। इसी काल में छोटी पत्रिकाओं का आंदोलन भी चला। और इसी काल में मराठी साहित्य में 'यंग्री यंग मैन' का भी प्रादुर्भाव हुआ। अन्ना भाऊँ साठे व शंकर राव ख़रात भी दलितों के बारे में लिखते रहे। 1960 में कुछ कहानियाँ प्रकाशित हुईं। जिन्होंने दलित साहित्य आंदोलन को गति प्रदान की। ये कहानियाँ भाऊँ राव वधुल की थीं। इन कहानियों में सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था। और इसने उसे काफ़ी झटका भी पहुँचाया। संक्षिप्त कहानियों का उनका संग्रह ' जेह्वा मी जात चोरलीहोती' ( जब मैंने अपनी जाति स्वीकार की।) इस संग्रह ने पूरे मराठी साहित्य जगत में चेतना पैदा कर दी। मराठी पत्रिकाओं व अख़बारों ने इसका स्वागत किया।कुछ लोगों ने इसे काले लोगों के जाज संगीत जैसा ही माना। जबकि कुछ अन्य लोगोंके लिए यह एक दलित महाकाव्य जैसा ही था। जबकि कुछ लोगों ने इसकी इन संक्षिप्त कहानियों को एक बिजली के झटके जैसा माना।
मार्क्सवाद व गोर्की के प्रभाव से लिखने वाले नारायन सुखे की कविताओं के अतिरिक्त साठ के ही दशक में एक तीसरी धारा भी दलित लेखकों की बही। जिसे यंग्री यंग मैन लोगों ने छोटी पत्रिकाओं को प्रकाशित करके चलाया। ये तीनों ही धाराएँ मुख्य रूप से व्यवस्था के खिलाफ थीं। और आपस में एक दूसरे से सहानुभूति रखती थीं। अनेक दलित लेखक इन छोटी पत्रिकाओं में लिखते थे। वास्तव में भाऊ राव भागुल की क्रांतिकारी कविताएँ छोटी पत्रिका ' पकता'में ही प्रकाशित हुईं थीं। लेकिन छोटी पत्रिकाओं का यह आंदोलन अपनी जड़ें नहीं जमा सका। जब हम इसके कारण के बारे में पता लगाते हैं तो हमें यह भी पता लगता है कि दलित साहित्य आंदोलन तेज़ी से क्यों बढ़ा?
मराठावाद क्षेत्र आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र बन कर उभरा
दलित साहित्य पर विचार करने के बाद अब हम फिर मुख्य आंदोलन की ओर आते हैं। डॉ अंबेडकर द्वारा औरंगाबाद में मिलिंद कॉलेज की स्थापना के बाद मराठावाद क्षेत्र आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र बन कर उभरा। इस कॉलेज के अधिकांश छात्र व अध्यापक इसी मराठावाड ग्रामीण क्षेत्रों से आये थे। कुछ ग़ैर दलित अध्यापक भी इस दलित आंदोलन से जुड़े हुए थे। जहां पर साहित्यिक व सांस्कृतिक क्रांति के विचारों का आदान प्रदान हुआ। दलितों ने कॉलेज की वार्षिक पत्रिका निकाली। और इसके लिए दिशा निर्देश कॉलेज के प्रिंसिपल एम.वी. चिटनीस की ओर से प्राप्त हुआ।कॉलेज के प्रिंसिपल एम.एन. वानखेड़े, जो उच्च अध्ययन के लिए अमेरिका गये हुए थे, लगभग इसी समय औरंगाबाद वापस लौटे। वह अपने साथ वहाँ का 'ब्लैक लिटरेचर' भी लाये थे। जिसमें क्रांति की भाषा व अत्यधिक कटु अनुभवों की अभिव्यक्ति थी। उन्होंने ब्लैक लिट्रेचर व दलित साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया ।1967 आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण वर्ष रहा। महाराष्ट्र बुद्ध साहित्य परिषद ने इसी वर्ष तीस अप्रैल को भुसावल में अपना सम्मेलन किया। इस सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में बोलते हुए डॉ.एम.एन. वानखेड़े ने कुछ मूलभूत सवालों को उठाया। जिसमें मुख्य रूप से महाभारत व रामायण की पुनर्समीक्षा थी।उन्होंने कहा कि दलित साहित्य का कोई स्थान नहीं है।जैसा कि ब्लैक लिटरेचर का है। दलित लेखकों को क्रांति करना चाहिए और उन्हें स्वयं अपना साहित्य रचना चाहिए । जिसमें उनकी अपनी समस्याएँ हों। मिलिंद कॉलेज औरंगाबाद के छात्र व अध्यापक अपना अलग साहित्यिक मंच( फोरम) चाहते थे, इसलिए उन्होंने मिलिंद साहित्य परिषद की स्थापना की। इसके लिए कोष जुटाया गया। और एक त्रैमासिक पत्रिका 'अस्मिता' का प्रकाशन शुरू किया गया।
महाराष्ट्र में साहित्यिक संघर्ष और समस्याएँ नामक विषय पर वाद विवाद
इसके पहले ही अंक में महाराष्ट्र में साहित्यिक संघर्ष और समस्याएँ नामक विषय पर वाद विवाद किया गया। जिसमें यह पता लगा कि दलित साहित्य की दिशा क्या है? इस पत्रिका में दलित साहित्यकारों में व्याप्त कुंठा को निकालने/ व्यक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।इसने दलित लेखकों की नई पीढ़ी को काफ़ी प्रोत्साहित किया। दया पवार ने जुलाई,1969 के ' प्रतिष्ठान' में अपेक्षित नव्या जेनिवा (उपेक्षित के लिए नई चिंता) में ऐसे लेखकों के बारे में अपने विचार प्रस्तुत किये। महाराष्ट्र बुद्ध साहित्य सभा के तत्वावधान में बंबई में एक और साहित्यिक सम्मेलन 1967 में आयोजित किया गया। इसका अत्यधिक महत्व था। जिसमें बंबई, शोलापुर व नासिक जैसी जगहों से भी साहित्यकारों ने आकर आपस में विचार विमर्श किया। इस विचार विमर्श के दौरान तमाम सवालों के जवाब ढूँढने में। भी आसानी हुई और अनेक साम्य भी स्थापित हुए। पहला प्रतिनिधि संग्रह दलित कविताओं का 'आकार' भी इसी सम्मेलन में प्रकाशित किया गया। जिसमें बाबू राम भागूल, दया पवार , अर्जुन डांगले, प्रो यादव राव, गन गुंगे,बांधु माधव, जोखा कांबले,हीरा वानसोडे जैसे कवियों की रचनाएँ प्रकाशित हुईं। ' आकार' में प्रकाशित होने वाली दलित कविताओं का यह पहला पुस्तक संग्रह था।
मारन स्वास्ता को 1968 में राज्य पुरस्कार से किया सम्मानित
इन कविताओं का केंद्र परंपरागत तथाकथित पढ़े लिखे लोगों के अनुभवों पर आधारित था। जिसका परिणाम यह हुआ कि यह संग्रह बिना किसी ध्यानाकर्षण व सम्मान के रह गया। भाऊ राव भागूल का दूसरा संग्रह जो कि छोटी कविताओं ' मारन स्वास्ता ' ( सस्ती होती मौत) को 1968 में राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया और यह मराठी लघु कहानियों के इतिहास का मील का पत्थर बना।
महाराष्ट्र बुद्ध साहित्य सभा द्वारा एक साहित्यिक बैठक का किया आयोजन
महाद में महाराष्ट्र बुद्ध साहित्य सभा (Maharashtra Buddha Sahitya Sabha) द्वारा एक साहित्यिक बैठक का आयोजन किया गया। दलित आंदोलन के इतिहास (History of Dalit Movement) में महाद का एक महत्वपूर्ण स्थान है। 1927 में डॉ अंबेडकर ने यहीं से अपना संकल्प प्रारंभ किया था। भाऊ राव भागूल ने इस साहित्यिक बैठक की अध्यक्षता की। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वह इस सम्मान के कितने उपयुक्त हैं। महाराष्ट्र की सामाजिक , सांस्कृतिक व आर्थिक ज़रूरत को देखते हुए उन्होंने एक अलग दलित साहित्य की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। उनके इस भाषण में दलित साहित्य के प्रति उनके गहरे चिंतन और विचारों का झलक मिलती है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह साहित्यिक बैठक दलित साहित्य के आंदोलन में एक क्रांतिकारी कदम था।
(लेखक पत्रकार हैं)