Hindi Sahitya Sammelan: हिन्दी साहित्य सम्मेलन में गुजरे दिन

Hindi Sahitya Sammelan: साहित्य में कभी-कभी उखमज की तरह कुछ कहावतें उग आती हैं जो बेहद फूहड़ होने के बावजूद अत्यंत प्रभावी और तीव्र असरदार होती हैं । सतसैया के दोहरे जैसी।

Written By :  Harish Mishra
Update:2022-10-07 11:06 IST

हिन्दी साहित्य सम्मेलन में गुजरे दिन: Photo- Social Media

Lucknow: साहित्य में कभी-कभी उखमज की तरह कुछ कहावतें उग आती हैं जो आकार- प्रकार में बौनी और सुनने- सुनाने में बेहद फूहड़ होने के बावजूद अत्यंत प्रभावी और तीव्र असरदार होती हैं । सतसैया के दोहरे जैसी।

'हिन्दी साहित्य चल रहा धक्का पेल ,

कोई आठवीं पास कोई आठवीं फेल।'

इस कहावत की मातृभूमि हिंदी साहित्य सम्मेलन इलाहबाद का पवित्र प्रांगण है, जिसकी नींव महामना मदन मोहन मालवीय और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जैसे मनीषियों ने रखी है। हिंदी साहित्य सम्मेलन की जानकारी देना मेरा प्रयोजन नहीं है क्योंकि गूगल और यूट्यूब या विकिपीडिया पर बेशुमार जानकारी उपलब्ध है। यहां मेरा विषय क्षेत्र मेरे निजी संस्मरण हैं।

वाक़या उस समय का

वाक़या उस समय का है, जब हिन्दी साहित्य सम्मेलन में दो फाड़ हो गया था। हिंदी साहित्य के मुख्य गुट के मुखिया श्रीप्रभातशास्त्री थे। दूसरे धड़े के कर्ता-धर्ता प्रभातशास्त्री के रिश्तेदार और कभी उनके दाहिने हाथ रहे श्रीधरशास्त्री थे, जिसे वे सम्मेलन मार्ग के आसपास ही कहीं किराये के दो तीन कमरों में संचालित कर रहे थे। हालांकि दोनों ही शाखाएं अनचाही अलगौझी के बाद भी साहित्य की सगुणवादी अर्थात द्रव्यवादी विचारधारा की पोषक थीं। यह लेख मुख्य शाखा तक ही सीमित है।

चंद्रलोक सिनेमा को लेकर चल रहा गतिरोध समाप्त हो गया था ।आशा के विपरीत मानसरोवर सिनेमा हॉल वाले कांड की बुजुर्ग और छात्र नेताओं के पुरज़ोर प्रयासों के बावजूद पुनरावृत्ति नहीं हो सकी।परिणाम स्वरूप बहुत से छात्रनेता निराश हुए और समकालीन युवापीढी को कायर और काहिल बताकर शांत हो गये। अब तो साहित्य और सिनेमा मित्र राष्ट्रों की तरह परस्पर सहिष्णु भाव से कदम ताल कर रहें हैं।

साहित्य सम्मेलन में बड़े लेखकों का सम्मान होना,व्याख्यानमालाओं का आयोजन प्रायः होता ही रहता था। उनमें से कुछ अहिंदीभाषी विद्वान अंग्रेजी में अपने लेख या भाषण पढ़ते/देते थे और जिनका हिन्दी अनुवाद श्रोताओं को पूर्व से ही वितरित कर दिया जाता था ताकि लोग सहजता से वक्ता के कथन को समझ सकें -' और यहीं से पूर्वोक्त कहावत का भ्रूण आकार लेना शुरू करता है। वस्तुत: ऐसी स्थितियों से निपटने के लिये आउट सोर्सिंग का सहारा लिया जाता था।

क्योंकि सम्मेलन के अधिकांश पूर्ण कालिक कर्मियों को या तो अंग्रेज़ी आती नहीं थीं और आती भी थी तो इस लेवल तक नहीं कि वे अंग्रेजी से हिन्दी में तर्जुमा कर सकें। एक खास बात और थी कि अधिकांश कर्मचारियों ने उच्चस्तरीय उपाधियां सम्मेलन से ही प्राप्त की थीं। इससे उनके ज्ञान का अनुमान आप लगा सकते हैं। विषय लंबा खिंच रहा है, क्योंकि विषय वस्तु उपन्यास की है और जिसे मैं रिपोर्ताज शैली में निपटाने की कोशिश कर रहा हूं।

गौर करने लायक बात

फिलहाल, उन दिनों भी स्वभावत: अर्थिक तंगी से गुज़र रहा था और यहां प्रसंगवश गौर करने लायक बात है कि मेरी आर्थिक तंगी से मुझसे ज्यादा मुझे चाहने वाले तंग रहते थे। क्योंकि तंगी में उन्हीं गिने चुने लोगों को तंग किया करता था जो निरपराध बुद्धिजीवी थे और यदि उनका कोई अपराध था भी;तो सिर्फ इतना कि वे मेरी संभावित प्रतिभा पर तरस खाते थे,मेरी नालाकियत पर रहम करते थे और फलतः अंततः मेरी मदद करते थे। मेरी भी मजबूरी थी कि मैं इन्हें ही तंग करने के लिए मजबूर था।

कारण साफ़ था कि अन्य किसी जगह से उधार के नाम पर पैसा लेकर न लौटाने पर लात खाने की शतप्रतिशत संभावना तय थी। भला इंसान उधार देने और वसूलने;दोनों ही अवसरों पर भला ही रहता है, वैसे ही जैसे -संत न छोड़े संतई,कोटिक मिले असंत।

व्यक्तिगत तौर पर मेरी मदद करने वालों की फ़ेहरिस्त लंबी है। अतः नाम गिनाने में असमर्थ हूँ। सारी बातें आठवें दशक के उत्तरार्द्ध के अंतिम चरण और नवें दशक के पूर्वार्द्ध की हैं। उड़ियाभाषा के ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त किन्ही साहित्यकार का सम्मेलन में सम्मान होना था। क्षमा करें उनका नाम मुझे याद नहीं आ रहा है।

उनका भाषण अंग्रेजी में था और समय कम था क्योंकि वह सम्मेलन में जिस शाम को मिला उसके दूसरे दिन ही कार्यक्रम था। मेरे लिए तो 'बिल्ली के भाग से छींका फूटा 'वाली कहावत चरितार्थ हो गई। डॉ सत्य प्रकाश मिश्र ने यह काम मुझे दे दिया। सत्य प्रकाश जी उस समय सम्मेलन में प्रचारमंत्री थे और मेरे गाइड भी थे। सत्य प्रकाश जी का मनोविज्ञान अत्यंत प्रखर था।वे सामने वाले के हाव-भाव से ताड़ लेते थे कि वह क्या चाहता था विशेष कर उनके संपर्क की परिधि में निरंतर रहने वाले की।जब मैं दिन में दो-तीन बार प्रणाम करता या उनके घर पर कुछ चर्चा के बहाने सप्ताह में कई बार चक्कर लगाता तो निश्चित तौर पर भांप लेते कि भक्त को अब कुछ चाहिए है। और कुछ न कुछ इंतजाम कर ही देते। सो,अनुवाद का काम दे कर मेरी मदद उन्होंने कर दी।

अपने मुँह अपनी प्रशंसा करना

अपने मुँह अपनी प्रशंसा करना अच्छी बात नहीं है, लेकिन मेरे अनुवाद की इतनी सराहना हुई कि मेरे गुरु डॉ सत्य प्रकाश ने कार्यक्रम की समाप्ति पर जलपान के समय श्री प्रभात शास्त्री ,डॉ रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी,उपेन्द्र नाथ अश्क ,लक्ष्मीकांत वर्मा सहित तमाम लोगों के मध्य मुझे बुलाया और बताया कि अनुवाद मैंने ही किया है।उस घटना से मेरे तीन साल के अर्थोपार्जन की व्यवस्था हो गई क्योंकि प्रभातशास्त्रीजी जी भी बहुत प्रभावित हुए थे।मेरे कंधे पर हाथ फेरते हुए कहा था-'बहुत बढ़िया बंधु। '

साहित्य जगत में उन दिनों प्रभात शास्त्री की प्रशंसा किसी प्रतिष्ठित पुरस्कार सेकम न थी। वे हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमन्त्री थे। उनके हाथ में ढेरों पुरूस्कार थे। निर्धन साहित्यकारों को देने के लिये रोजगार थे। नौकरियां थीं। सम्मानित करने के लिए मानद उपाधियां थीं। बिना मेहनत के देने के लिये ढेर सारी डिग्री थीं। मैं उस रात इतना आह्लादित था कि बमुश्किल सो सका। उसमें भी नींद का अधिकांश हिस्सा सपनों के भेंट चढ़ गया।

सपने साकार हुए । तने कि अनुमानित थे। किशोरावस्था व युवावस्था की वय:संधि में देखे गये सपनें अक्सर "यदि मैं होता किन्नर नरेश '"वाली शैली में होते हैं। जो पूरे होने के लिये नहीं बल्कि सिर्फ देखे जाने के लिए बने होते हैं। फलतः जितना मिल गया, उतने में खुश था। खुश होने के अलावा कोई चारा भी नहीं था क्योंकि नाखुश होकर मैं सम्मेलन का क्या उखाड़ लेता सिवाय मिली मिलाई रोजी-रोटी छोड़ने के !और जो मेरे लिए उस वक़्त रिस्की था।

प्रख्यात इतिहासकार वामन दास वसु (डॉ वी डी वसु) ने अपनी निजी लाइब्रेरी सम्मेलन को दान कर दी थी। संयोगवश सभी किताबें अग्रेजी में थीं और बहुमूल्यवान भी। बहुत समय से सम्मेलन के ऊपरी छज्जे पर जैसी आयी थीं, वैसी ही अलमारी में रखी पडी थीं। अभीतक उनकी cataloging भी नहीं हुई थी। कीड़े- मकोड़े ,दीमक ,चूहे सरीखे पुस्तक प्रेमी तथा पराश्रित जीव जंतुओं के आक्रमणों का पहला चरण लगभग प्रारम्भ हो चुका था कि शास्त्री जी का किसी दिन आकस्मित निरीक्षण के दौरान उस स्थान पर दृष्टि चली गई जहाँ पर दर्जनों बड़ीबड़ी अलमारियां खड़ी थीं।

धूलधूसरित अलमारियों और उनके नीचे पुस्तक प्रेमी दीमकरूपी कीटों को रेंगते देख कर शास्त्रीजी जरा ठिठके और फिर जोर से छींके जिससे उनके मुहँ मे पहले से पडी पान की गिलोरी जो अब तक पीक बनकर बाहर निकलने के लिए आतुर थी ,को मुश्किल से दाहिने हाथ से रोका । इसका परिणाम यह हुआ कि आसपास के लोग रंगीन होने से बच गए । फिर क्या था-?वही हुआ जो होना चाहिए था या कि ऐसी घटनाओं पर जो होने की परंपरा है। शास्त्रीजी ने पहले गुस्साने की मुद्रा की बनाई। फिर आग बबूला होकर संस्कृत सह अंग्रेजी सह अर्धअवधी कम दारागंजी मिश्रित खड़ी हिन्दी मे दो तीन मिनट तक उच्च ,निम्न और समाहार ;तीनों प्रकार के स्वरों में काफी कुछ बोले।जिसका अनुवाद वहां के बोली विशेषज्ञ कर्मचारियों ने इस प्रकार किया

'हिदी भाषा के लिए उनके (शास्त्रीजी) समेत कितने लोगों ने कितनी कुर्बानी दी है और कुछ ने तो प्राण तक न्यौछावर कर दिया है। किंतु आजकल के नये दौर के लोगों को कोई फ़िक्र ही नहीं। सिर्फ वेतन लेने के अलावा रत्ती भर भी काम नहीं करते ।'

इसके बाद शास्त्रीजी ने संस्कृत के किसी श्लोक का वाचन किया जिसका भावानुवाद यह था कि सम्मेलन के कर्मचारी बिना सींग -पूछ वाले जानवरों की भांति सम्मेलन के धनधान्य पूर्ण परिसर में विचरण कर रहे हैं।बेरहमी से सम्मेलन की संपत्ति को घास मानकर चर रहे हैं ।

शास्त्री जी के साथ साथ डॉ सत्य प्रकाश मिश्र और श्याम कृष्ण पांडेय भी चल रहे थे। श्याम पांडेय तत्समय महामंत्री के पद पर कार्यरत थे। शास्त्रीजी इन दोनों की ओर मुखातिब हुए, फिर तंज कसते हुए पूछा 'बंधुओं ,ये सब काम आप लोगों का है I इसी लिए तो लुच्चो को भगा कर आप लोगों को रखा गया है। चलिए जो होना था हो गया। आगे की सोचिये। '

अबतक कुछ और लोग आ गये । इनमें प्रकाशन मंत्री बाल कृष्ण पांडेय और ग्रंथपाल दुबेमैडम और एक क्लर्क किस्म का अर्ध विकलांग प्राणी जिसका नाम विनोद बाबू था, शामिल थे बालकृष्ण पांडेय ने सम्मेलन से ही आचार्य की उपाधि प्राप्त की थी। मिडल स्कूल तक अग्रेजी भी पढ़ चुके थे। अपने को अन्यों से अधिक बुद्धिमान समझते थे। अतएव बिन मांगे सलाह देने की आदत सी पड़ गई थी।

बोल उठे-"बीती ताहि वीसारि दे- हि। आगे की सुधि लेहि।"

बदले में शास्त्रीजी ने उनकी ओर शाबासी की जगह घृणापूर्ण दृष्टि से घूरा। पांडेयजी को यह अपेक्षा नहीं थी। वह लुढकते लुढ़कते बचे और खिसक लिये। "सारी पुस्तकों का पहले मूल्यांकन करा लिया करा लिया जाये तो उचित रहेगा।" डॉ सत्य प्रकाश ने सुझाव देते हुए कहा ,"मैंने एक बार सरसरी नजर से देखा है कि इनमे बहुत सी सामग्री आउट डेटेड हो गई है। "श्याम पांडेय ने भी सत्य प्रकाशजी का समर्थन किया और एक प्रकार से तय हो गया कि डॉक्टर वसु द्वारा दान की हुई पुस्तकों का मूल्यांकन होना चाहिए।

यह भी तय हो गया कि मूल्यांकन का तरीका ,अवधि, मूल्यांकन कर्ताओं का चयन करने के लिए एक समिति गठित की जावे ताकि पारदर्शिता बनी रहे ।विनोदबाबु सब देखऔर सुन रहाथा । अचानक हकलाते हुए बुदबुदाया- न-न- न नौटंकी ।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र हैं। ) 

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