किसान आंदोलन: कल्पना से परे था ऐसा अंत...

किसान आंदोलन की शुरुआत से ये सवाल लगातार उठ रहे थे कि आंदोलनकारियों का सरकार के सुलह के हर कदम पर अड़ियल रवैया आखिर क्यों है?

Update: 2021-01-26 15:42 GMT

रामकृष्ण वाजपेयी

तीन कृषि कानूनों के विरोध को लेकर 26 नवंबर से शुरू हुए किसान आंदोलन का आज लालकिले पर शर्मनाक, देश का अपमान करने वाली व दिलली के विभिन्न भागों में हुई हिंसा की घटनाओं के साथ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के साथ अंत हो गया। किसान अपने घरों को वापस लौटने शुरू हो गए हैं। दिल्ली सुरक्षा बलों के हवाले कर दी गई है। किसानों के धरने से प्रभावित पांच सीमावर्ती नाकों पर इंटरनेट कनेक्शन बंद कर दिया गया है। राष्ट्रीय पर्व के दिन गणतंत्र व लोकतंत्र को आघात पहुंचाने वाली घटनाओं ने पूरे देश को शर्मसार किया है। ऐसे लोग किसान नहीं हो सकते। इन घटनाओं के बाद इस आंदोलन ने लोगों की सहानुभूति को भी खो दिया है।

सरकार से सुलह पर किसानों का अड़ियल रवैया क्यों

इस आंदोलन की शुरुआत से ये सवाल लगातार उठ रहे थे कि आंदोलनकारियों का सरकार के सुलह के हर कदम पर अड़ियल रवैया आखिर क्यों है? क्यों नहीं वह किसानों के हित में बातचीत से कुछ हासिल कर आगे बातचीत के लोकतांत्रिक तरीके पर नहीं बढ़ रहे हैं?

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सवाल किसान यूनियनों के संयुक्त मोर्चे से भी है। दिल्ली की घटनाओं को दुर्भाग्यपूर्ण बता देने भर से उसके दामन पर लगे दाग धुल नहीं जाएंगे। फिलहाल जो हालात हैं उसमें ये किसान यूनियनें अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकतीं। जब किसान यूनियनों को ट्रैक्टर रैली के रूटों पर पांच हजार लोगों और इतने ही ट्रैक्टरों की अनुमति थी तो भी क्यों कर एक लाख से अधिक ट्रैक्टरों को जमा किया।

आंदोलन के नाम खालिस्तान समर्थकों की साजिश

लगातार से सवाल उठ रहे थे और कई मामले पकड़ में भी आए थे कि आंदोलन के नाम खालिस्तान समर्थक संगठन अपनी योजना को अमली जामा पहनाना चाहता है। बावजूद इसके किसान संगठन क्यों नहीं चेते। क्यों वह खालिस्तान समर्थक संगठनों की मलाई खाते रहे। इसका पूरा मतलब यही है कि किसान संगठनों के नेताओं से अलगाववादियों की कहीं न कहीं मिली भगत थी।

किसानों की समस्याओं से सबकी सहानुभूति थी। सुप्रीम कोर्ट तक ने हस्तक्षेप किया बावजूद इसके इऩ किसान यूनियनों ने सुप्रीम कोर्ट और उसके द्वारा नियुक्त की गई समिति का भी सम्मान नहीं किया। अपना अड़ियल रुख बनाए रखा। समिति के सदस्यों पर सवाल खड़े कर दिये। समिति की बैठकों में जाने से इनकार कर दिया।

शाहीनबाग-सीएए के बाद दिल्ली में फिर हिंसा

कुल मिलाकर जिस तरह शाहीनबाग सीएए के विरोध के नाम पर षडयंत्र का एक केंद्र बन गया था जिसकी परिणति दिल्ली में हुई हिंसा के रूप में सामने आई। उसी तर्ज पर चलते हुए किसान यूनियनों ने केंद्र सरकार के मंत्रियों के साथ बातचीत में अड़ियल रुख अपनाए रखा मानो किसान, किसानों की समस्या हल करना इनकी मंशा थी ही नहीं। और जिन मंसूबों के साथ ये जमा हुए थे उसे आज अमलीजामा पहना दिया गया।

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मीडिया रिपोर्ट्स में लगातार यह बात कही जाती रही है कि विदेश में बैठे अलगाववादी संगठन किसानों के बहाने अपने कायरतापूर्ण कार्यों को अंजाम देने के मंसूबे बना रहे हैं। इसे लेकर देश की सर्वोच्च सुरक्षा एजेंसी एनआईए ने कई संगठनों को समन भी जारी किये। खुफिया रिपोर्टों में भी इस बात पर लगातार आगाह किया जाता रहा कि देश विरोधी ताकतें आंदोलन के बीच सक्रिय हो रही हैं। किसानों को ऐशो आराम और इंटरनेट सुविधा आदि देने में कई ताकतें सक्रिय हैं जो आंदोलन को खींचना चाहती हैं।

कृषि कानूनों को डेढ़ साल के लिए स्थगित करने की पेशकश तक ठुकराई

हद तो तब हो गई जब केंद्र सरकार ने किसान संगठनों के आगे झुकते हुए डेढ़ साल के लिए नये कृषि कानूनों को स्थगित करने की पेशकश की लेकिन किसान संगठनों ने इसे भी ठुकरा दिया। और छह सात महीने तक डेरा डाले रहने के संकेत दिये।

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खुफिया रिपोर्टों ने पाकिस्तान से सोशल मीडिया एकाउंट्स बनाकर आंदोलन का दुरुपयोग करने की बात भी कही गई बावजूद इसके किसान संगठन नहीं चेते। आज पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी वास्तविक किसानों से वापस लौटने की अपील कर रहे हैं। किसानों की वापसी शुरू हो चुकी है। लेकिन इसी के साथ एक बात और हुई है कि इस आंदोलन ने अलगाववादी चेहरा दिखाकर देश के किसानों की सहानुभूति भी खो दी है। किसानों का इससे बड़ा अहित कोई हो नहीं सकता।

राहुल गांधी- केजरीवाल सरकार सबकी बोलती बंद

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की भी अब बोलती बंद हो गई है। दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार भी मुंह छिपा रही है। अलबत्ता केंद्र की मोदी सरकार को किसानों से सहानुभूति की कीमत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बदनामी के रूप में चुकानी पड़ रही है। सवाल यही है कि क्या किसान संगठन अलगाववादियों के हाथों बिक गए थे और किसानों के स्वाभिमान का सौदा करने में भी उन्हें शर्म नहीं आयी। इन किसान यूनियनों में अधिकांश पंजाब और फिर हरियाणा की थीं।

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दिल्ली की घटनाओं में भी अलगाववादी ताकतों की भूमिका बहुत कुछ कह जा रही है। स्पष्ट रूप से यह राष्ट्रद्रोह की खौफनाक साजिश थी जिसमें मोहरा कथित किसान यूनियनें और किसान बन गए। जिन्होंने तिरंगे का अपमान करने से भी गुरेज नहीं किया।

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