जब बंटा देश- किसने दिया था शरणार्थियों को सहारा

उस दौर में दिल्ली जंक्शन, जिसे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन भी कहा जाता है, में आ रहे शरणार्थियों को दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी (डीबीएस) के वालंटियर इलाज के लिए अपने सेंट स्टीफंस अस्पताल लेकर जा रहे थे या फिर सिविल लाइंस के ब्रदरहुड हाउस परिसर में शरण दे रहे थे।

Written By :  RK Sinha
Update:2024-08-13 19:00 IST

जब बंटा देश- किसने दिया था शरणार्थियों को सहारा: Photo- Social Media

मनोज कुमार को सारा देश उनकी देशभक्ति से रची-बसी फिल्मों की मार्फत बखूबी जानता है। उन्होंने एक बार बताया था कि उनका परिवार जब देश के बंटवारे के बाद सरहद के उस पार से लूटा-पिटा 1947 में दिल्ली में आया तो उनके परिवार के कई सदस्य दंगाइयों के हमलों के कारण चोटग्रस्त थे। उनका छोटा भाई बीमार था। तब उन सबका इलाज सेंट स्टीफंस अस्पताल में हुआ था। उस दौर में दिल्ली जंक्शन, जिसे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन भी कहा जाता है, में आ रहे शरणार्थियों को दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी (डीबीएस) के वालंटियर इलाज के लिए अपने सेंट स्टीफंस अस्पताल लेकर जा रहे थे या फिर सिविल लाइंस के ब्रदरहुड हाउस परिसर में शरण दे रहे थे। देश के बंटवारे के कारण पाकिस्तान से लाखों हिन्दू और सिख शरणार्थी दिल्ली आए थे। ये ज्यादातर दिल्ली जंक्शन पर ही आते थे। तब इनके पास नए शहर में खुले आसमान के अलावा कुछ नहीं होता था। उस भीषण दौर में दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी, राष्ट्र स्वंयसेवक संघ और कुछ सिख संगठनों के कार्यकर्ता ही शरणार्थियों को मदद दे रहे थे।

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दरअसल भारत के लिए हरेक स्वाधीनता दिवस दो तरह की अनुभूतियां लेकर आता है। पहला, देश को ब्रिटिश सरकार के चंगुल से मुक्ति मिल गई। इसलिए उन तमाम स्वाधीनता सेनानियों के प्रति मन में अपार श्रद्धा का भाव पैदा होने लगता है, जिनके बलिदानों की वजह से गोरे यहां से गए। दूसरा, देश को 15 अगस्त 1947 को आजादी के साथ बंटवारे का दंश भी झेलना पड़ा। भारत दो भागों में बंट गया। उस दौर में राजधानी दिल्ली में लाखों हिन्दू और सिख शरणार्थी आ गए थे। तब दिल्ली जंक्शन पर आने वालों में मिल्खा सिंह भी थे। वे आगे चलकर महान धवाक बने। देश के बंटवारे के समय इंसानियत मरी पड़ी थी। मिल्खा सिंह के माता-पिता का कत्ल कर दिया गया था। पर तब भी कुछ फऱिश्ते तो मौजूद थे ही। वे उन्हें रेल के लेडीज कूपे में छिपाकर ले आए थे। वे अपनी बहन से बिछड़ गए थे। जरा सोचिए कि अनजान और विभाजन के कारण अस्त-व्यस्त शहर में मिल्खा सिंह अपनी दंगों के दौरान गुम हो गई बहन को कैसे खोज रहे होंगे। पर उन्होंने अपनी बहन को अंततः तलाश कर लिया था।

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देश की राजधानी होने के बावजूद दिल्ली विभाजन की घड़ी में उस समय, आज के मुकाबले एक छोटा सा शहर ही तो था । तब सेंट स्टीफंस अस्पताल की हेड डॉ. रूथ रोसवियर के नेतृत्व में यहां घायल और बीमार शरणार्थियों का इलाज हो रहा था। डॉ.रूथ ब्रिटिश नागरिक थीं। इस अस्पताल को दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी ने 1885 में खोला था। इसी ने सेंट स्टीफंस कॉलेज स्थापित किया था। अब इसने सोनीपत में सेंट स्टीफंस कैम्ब्रिज स्कूल भी खोला है।

दूसरी ओर देखें तो करोल बाग में डॉ. एन.सी. जोशी उस संकट के दौर में दिल्ली वालों की सेवा में जुटे रहते थे। करोल बाग में 1947 के दौरान जब दंगे भड़के तो उसके शिकार डॉ.जोशी भी हो गए थे। उधर, इरविन अस्पताल ( अब लोक नायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल) के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉ बनवारी लाल और उनके कबूल चंद वाल्मिकी जैसे मेहनती साथियों के द्वारा रोगियों का दर्द दूर किया जा रहा था। दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी के वर्कर बहुत से रोगियों को

लेडी हार्डिंग मेडिकल अस्पताल भी इलाज के लिए लेकर जा रहे थे। तब तक नई दिल्ली एरिया का यह एकमात्र कायदे का अस्पताल था। उस दौर में इधर की प्रिंसिपल-डायरेक्टर डॉ. के.जे. मैक्डरमेट ( 1946- 1948) और डॉ. ओ.पी.बाली (1948-1950) की देखरेख में रोगियों की भीड़ का खुशी-खुशी इलाज हो रहा था। 1947 तक इधर की छात्राएं अपना सालाना इम्तिहान देनेके लिए लाहौर जाती थीं। उनका इम्तिहान किंग एडवर्ड मेडिकल कालेज में होता था। तब ये कॉलेज पंजाब यूनिवर्सिटी का हिस्सा था। इस बीच, दिल्ली वालों की सेवा करने में डॉ. विशम्भर दास भी थे। उन्होंने सन 1922 में नई दिल्ली एरिया में बिशम्भर फ्री होम्पैथिक डिस्पेंसरी की स्थापना की और जीवनपर्यंत दीन-हीनों का इलाज करते रहे। उनके नाम पर डॉ. विशम्बर दास मार्ग है,जिसे 1965 से पहले एलेनबे रोड कहा जाता था।

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आपको अब भी बहुत सारे शरणार्थी परिवार मिल जाएंगे जो बताएंगे कि अगर दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी से जुड़े फादर इयान वेदरवेल और उनके साथियों का साथ ना मिलता तो वे कहीं के नहीं रहते। वे विभाजन के कारण सड़क पर आ गए थे। फादरवेदरवेल दिन-रात शरणार्थियों के पुनर्वास में लगे थे। 1925 में स्थापित ब्रदरहुड हाउस में हर रोज शरणार्थियों को रहने के लिए छत और गरम और ताजा भोजन मिल रहा था। वेदरवेल का भारत से सबसे पहले रिश्ता तब स्थापित हुआ था जब दूसरा विश्व महायुद्ध चल रहा था। वे ब्रिटेन की फौज में थे। पंजाब रेजीमेंट में थे। भारत के कुछ शहरों में रहे भी थे। विश्व महायुद्ध की समाप्ति के बाद उनका जीवन बदला। उनका सैनिक की नौकरी से मन उखड़ने लगा। वे युद्ध के विरूद्ध बोलने- लिखने लगे। उन्होंने जंग के कारण होने वाली तबाही को अपनी आंखों से देखा था। उससे वे विचलित रहने लगे थे। उन्हें युद्ध की निरर्थकता समझ आ गई थी। तब उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से थी आलजी (धर्म शास्त्र) की डिग्री ली। वे अपने जीवन में शांति चाहते थे। समाज सेवा करने की उनकी इच्छा थी। कुछ समय तक लंदन में रहे और फिर भारत आ गए। फादर इयान वेदरवेल ने फिर अपना शेष जीवन गरीब गुरुबा और हाशिये पर धकेल दिए लोगों के हक में काम करने में लगा दिया। फादर इयान वेदरवेल फादर वेदरवेल की जान बसती थी भारत में। उन्हें यहां का सब कुछ अच्छा लगता था। यहां के लोग, बच्चे, पेड़, पौधे, नदियां वगैरह। फादर वेदरवेल की शख्सियत पर महात्मा गांधी का प्रभाव साफ नजर आता था।

भारत जब अपना स्वाधीनता दिवस मना रहा है, तब हमें स्वाधीनता सेनानियों के साथ-साथ उन तमाम अनाम शख्सियतों का स्मरण कर लेना चाहिए जिन्होंने शरणार्थियों को सहारा दिया था। एक बात समझ लें कि तब देश में सरकार नाम की कोई चीज नहीं रह गई थी। सब तरफ अराजकता और अव्यवस्था थी। उस दौर में निस्वार्थ भाव से शरणार्थियों का साथ देने वालों को सदैव याद रखा जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

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