हाजी अली: समान हैं इस्लाम और संविधान में महिलाओं और पुरुषों के अधिकार
शरीअत एप्लिकेशन अधिनियम 1935 के तहत मुसलमानों को अपनी व्यवस्था का पालन करने का जो अधिकार मिला हुआ है, वह अभी शादी, तलाक, गज़ारा भत्ता और विरासत तक सीमित है। हालांकि अब तो उस पर भी सवालिया निशान लगे हुए हैं और 3 तलाक का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।
उबैदुल्लाह नासिर
लखनऊ: मुंबई हाई कोर्ट ने वहां की प्रसिद्ध हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर 2012 से लगी पाबंदी को अवैध करार देते हुए समाप्त करने का आदेश दिया है। अदालत ने इस प्रतिबंध को संविधान में महिलाओं और पुरुषों को दिए गए बराबरी के दर्जे के खिलाफ बताते हुए राज्य सरकार और हाजी अली दरगाह ट्रस्ट को आदेश दिया है कि वे दरगाह में आने वाली महिलाओं के लिए पूर्ण सुरक्षा के प्रावधान करें।
भेदभाव पर ऐतराज
अदालत ने यह फैसला अखिल भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन नामक संगठन की एक जनहित याचिका पर दिया है। याचिका में कहा गया था कि दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर लगाई गई पाबंदी न केवल संविधान में दी गई बराबरी के अधिकारों के खिलाफ है बल्कि इस्लामी सिद्धांतों और शिक्षा विरोधी भी है। क्योंकि इस्लाम में महिलाओं और पुरुषों को बराबर के अधिकार दिए गए हैं। अदालत ने इस दलील को स्वीकार करते हुए कहा कि जब मक्का (काबा) और मदीना (मस्जिद ए नबवी) में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध नहीं है तो हाजी अली या किसी अन्य दरगाह या पूजास्थल में प्रवेश करने पर प्रतिबंध कैसे लगाया जा सकता है। हाजी अली ट्रस्ट ने दलील दी थी कि इस्लाम महिलाओं को बुजुर्गों की कब्रों के पास जाने की अनुमति नहीं देता है। इसके लिए ट्रस्ट ने कुरआन की कुछ आयतों का भी हवाला दिया था। लेकिन अदालत ने उसे स्वीकार करने से इनकार करते हुए कहा कि इन आयतों में ऐसा कुछ नहीं कहा गया है कि महिलाएं मंदिर, मस्जिद या अन्य किसी पूजास्थल में प्रवेश नहीं कर सकती हैं।
अदालत ने कहा कि कुरआन में स्पष्ट है कि वह सेक्स बराबरी का पक्षधर है। अदालत ने यह भी कहा कि इस प्रतिबंध को हटाने से इस्लाम का बुनियादी रूप नहीं बदलेगा। इससे पहले इसी मुंबई हाई कोर्ट ने सरनगीरिय मंदिर में पिछले 400 वर्षों से महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबंदी भी खत्म कर दी थी। दरगाह ट्रस्ट द्वारा यह भी दलील दी गई कि पूजास्थलों पर महिलाओं से छेड़छाड़, उत्पीड़न, और अन्य सुरक्षा संबंधी मुद्दे खड़े होते हैं, जिस पर कोर्ट ने राज्य सरकार और ट्रस्ट क्वान की सुरक्षा सुनिश्चित करने का आदेश दिया है।
बाकी है अंतिम फैसला
बहरहाल हाई कोर्ट ने अपने फैसले पर अमल के लिए 6 सप्ताह का समय दिया है। इसी बीच ट्रस्ट द्वारा निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का इरादा जताया गया है। दरगाह के ट्रस्टी मुफ्ती मंजूर ने फैसले को गैर इस्लामी और व्यवस्था के खिलाफ करार दिया है और सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की बात कही है। लेकिन संभावना है कि वहां भी यह फैसला बरकरार रखा जाएगा क्योंकि संविधान में जो बुनियादी अधिकार देश की सभी महिलाओं और पुरुषों को प्राप्त हैं, उनमें समानता का अधिकार भी शामिल है और अदालत ऐसा कोई फैसला नहीं दे सकती जो उनके अधिकारों का उल्लंघन करता हो। शरीअत एप्लिकेशन अधिनियम 1935 के तहत मुसलमानों को अपनी व्यवस्था का पालन करने का जो अधिकार मिला हुआ है, वह अभी शादी, तलाक, गज़ारा भत्ता और विरासत तक सीमित है। हालांकि अब तो उस पर भी सवालिया निशान लगे हुए हैं और 3 तलाक का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। जिसके खिलाफ खुद मुस्लिमों ने ही आवेदन कर रखा है। तो दरगाहों आदि में महिलाओं के प्रवेश के बारे में अदालत ट्रस्ट का तर्क मान लेगा इसकी उम्मीद नहीं के बराबर है। फिर भी ट्रस्ट को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार है और वह अपने अधिकार का उपयोग करना चाहता है तो किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
मुद्दे पर बंटा है मुस्लिम समाज
दरअसल इस मुद्दे पर खुद मुस्लिम समाज ही दो भागों में बंटा है। वहाबी संप्रदाय के लोग दरगाहों पर जाने, खासकर मन्नत आदि मानने के खिलाफ हैं, जबकि बरेलवी संप्रदाय के लोग दरगाहों आदि में जाना उचित और धर्म के अनुसार मानते हैं। बरेलवी पंथ में भी महिलाओं के धार्मिक स्थलों आदि पर जाने को लेकर मतभेद हैं। जैसे अजमेर शरीफ की दरगाह, हजरत बख्तियार काकी की दरगाह आदि पर महिलाओं के जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। लेकिन निर्णय के खिलाफ बरेलवी उलेमा की हिस्सेदारी भी सामने आ गई है। आला हजरत अहमद रजा खां की मज़ार के सज्जादा नशीन मौलाना हसन रजा खां ने कहा है कि इस फैसले की समीक्षा बड़े वकीलों से करा के सुप्रीम कोर्ट में अपील की जानी चाहिए। यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि बरेलवी पंथ भी महिलाओं के कब्र, सताना और दरगाहों पर जाने का विरोधी है। मौलाना शहाबुद्दीन रिजवी सचिव पार्टी रजाई मुस्तफा दरगाह आला हजरत, बरेली ने कहा है कि खुद आला हजरत और अन्य विद्वानों ने महिलाओं के दरगाह और कब्रिस्तान आदि पर जाने का विरोध किया है।
देव करने उलेमा ने भी इस फैसले का विरोध किया है। फतवा ऑनलाइन के मुफ्ती अरशद फारूकी ने कहा है कि इस्लाम ने केवल पुरुषों को कब्रिस्तान में जाने की अनुमति दी है, जबकि महिलाओं पर प्रतिबंध लगाया है। उन्होंने कहा कि हाजी अली की दरगाह एक पवित्र स्थान है उसे मनोरंजन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। जिससे उसकी बेहुरमती होती है समाज की शुद्धता के लिए यह प्रतिबंध लगा रहना चाहिए।
शिया आलिम मौलाना कल्बे जव्वाद ने कहा कि रौज़ों करबलाई इमाम बाड़ों आदि स्थानों पर महिलाओं के जाने की अनुमति है लेकिन उनके नियम कानून का ध्यान रखा जाना चाहिए। जबकि मौलाना आगा रूही ने कहा कि जब हज और प्रार्थना में महिलाओं को पूरी आजादी है तो कहीं पर प्रतिबंध का सवाल ही नहीं उठता। लेकिन हाल माहौल को देखते हुए उनके लिए अलग से व्यवस्था होनी चाहिए। यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि हाजी अली दरगाह पर भी महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध नहीं था, केवल समय निर्धारित था और मूल कब्र पर महिलाओं के जाने पर पाबंदी थी क्योंकि वो कभी कभी अशुद्ध भी होती हैं। लेकिन याचिकाकर्ता नूरजहां को यह प्रतिबंध अपने मौलिक अधिकारों का उल्लंघन लगा और उन्होंने अदालत की शरण ली।
संविधान सर्वोपरि
एक बात हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र है जहां संविधान के अनुसार ही अदालत चलती है, शरीयत के हिसाब से नहीं। व्यवस्था वहीं तक लागू रहेगी जहां तक यह व्यवस्था एप्लिकेशन अधिनियम तक जाती है। तो हर मामले में व्यवस्था की दुहाई देना उचित नहीं है। उलेमा को चाहिए कि वे शरई स्थिति स्पष्ट करें। तथ्यों को वहीं छोड़ कर, इस पर खुद अमल तय करने का ख़ुदाई आपराधिक कर्तव्य नहीं निभाएं। क्योंकि संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। मामला खुदा और उक्त व्यक्ति के बीच ही रहने दें। शरई स्थिति कोई माने या न माने, सजा या पुरस्कार उसी के सिर होगा।
(फोटो साभार: खबरइंडियाटीवी.कॉम)