India Pak Divide: विभाजन विभीषिका के दंश और मुस्लिम लीग

Partition of India and Pakistan: इस वीभत्सकारी विभाजन के लिए वे ही नेता जिम्मेदार थे जिनका भविष्य इस विभाजन से उज्ज्वल होने वाला था। विभाजन सिर्फ देश का विभाजन नहीं था ।

Update:2023-08-14 16:24 IST
Partition of India and Pakistan (फोटो: सोशल मीडिया )

Partition of India and Pakistan: विभाजन और विभीषिका दोनों ही शब्द अपने आप में दर्दनाक हैं। भारत का विभाजन एक ऐसी कहानी को बयां करता है जिसमें सदियों पुराने जीवन-शैली का अनियोजित, अनियंत्रित, असंगठित तरीके से विस्थापन और पलायन हुआ। बंटवारे की घोषणा के चलते लाखों लोग रातों-रात अपने घर से पलायन को मजबूर हो गए थे। इस वीभत्सकारी विभाजन के लिए वे ही नेता जिम्मेदार थे जिनका भविष्य इस विभाजन से उज्ज्वल होने वाला था। विभाजन सिर्फ देश का विभाजन नहीं था । वरन यह वर्षों से विद्यमान सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक परिवेश का विभाजन था। यह विभाजन मानव सभ्यता की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक था।जिसमें अनुमानतः दस लाख लोग मारे गए और डेढ़ करोड़ लोगों का पलायन हुआ। इस विभीषिका को भारतीय स्मृति पटल से या तो मिटाने का प्रयास किया गया या फिर उसके प्रति जानबूझकर उदासीनता बरती गई। इस विभाजन की त्रासदी के घाव इतने गहरे हैं कि आज भी देश के बहुत बड़े हिस्से, खासकर पंजाब और बंगाल में बुजुर्ग लोग 15 अगस्त को सिर्फ विभाजन के ही रूप में याद करते हैं। ऐसी घटनाओं का कारण भले ही तात्कालिक हो परन्तु इनके मूल में धार्मिक असहमति का ऐतिहासिक बीज शामिल होता ही है।

अगर हम विभाजन के कारणों की बात करें तो भिन्न-भिन्न प्रकार के कारण देश के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। पश्चिम इतिहासकारों तथा राजनेताओं जैसे जॉन स्ट्रेची, चर्चिल और एमेरी ने हिंदुओं तथा मुसलमानों की पारस्परिक दुश्मनी को देश के विभाजन का कारण बताया। डॉ. अंबेडकर जैसे कुछ भारतीय लेखकों ने भी अंग्रेजों के विश्लेषण को स्वीकार किया है। वही कुछ राष्ट्रीय इतिहासकारों ने अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' की नीति को भारत के बंटवारे का कारण बताया। एक पक्ष का यह भी मानना था कि मुसलमानों ने अपने राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए धर्म और संस्कृति का सहारा लिया । जिसके कारण पाकिस्तान की स्थापना हुई। बंटवारे के कई कारण हैं । लेकिन किसी एक कारण के साथ जोड़ना समस्या का अतिसरलीकरण होगा।

देश में चल रही राष्ट्रवादी लहरों में दरार डालने के लिए अंग्रेजों की चतुराईपूर्ण कोशिशें तथा मुस्लिम ‌लीग के सांप्रदायिक एजेंडे ने आधुनिक काल में मनुष्यता पर विभाजन द्वारा बड़ा संकट खड़ा किया गया। अंग्रेज भी यह महसूस करते थे कि उभरती हुई राष्ट्रीयता को रोकने के लिए प्रतिसन्तुलित करने वाला तत्त्व मुस्लिम मध्य वर्ग में ही मिल सकता है और इसको कार्यान्वित करने के लिए 1905 में बंगाल का विभाजन किया । यद्यपि यह विभाजन सफल नहीं रहा । फिर भी विभाजन का समर्थन करने वाले में कुछ बड़े-बड़े मुसलमान जमींदार इत्यादि ही थे।

16 अगस्त, 1946 को मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान बनाने के लिए 'सीधी कार्रवाई ' का आह्वान किया

विभाजन की विभीषिका की शुरुआत तो तभी हो गयी थी जब कैबिनेट मिशन योजना के तहत मिली-जुली केंद्रीय सरकार पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बनी और मुस्लिम लीग ने उसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था। जिसके बाद मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त, 1946 को पाकिस्तान बनाने के लिए 'सीधी कार्रवाई ' का आह्वान किया। मोहम्मद अली जिन्ना ने घोषणा की कि हमारे पास "या तो एक विभाजित भारत होगा या एक नष्ट भारत होगा।” मुस्लिम लीग के एक और नेता राजा ग़ज़नफ़र अली खाँ ने, जो पंजाब से आए थे, यह दावा किया कि "सीधी कार्रवाई' का अर्थ है 'जिहाद'- जिहाद के जो भी अर्थ हो सकते हैं उन सभी अर्थों में ।” ‘सीधी कार्रवाई दिवस' पर प्रस्ताव के बाद मुसलमान तथा मुसलमान इतर नेताओं के उत्तेजक भाषण हुए। ग़ैरजिम्मेदाराना भाषणों ने सारे वातावरण को दूषित कर दिया जिसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रायः संपूर्ण भारत पर प्रभाव पड़ा। बंगाल और सिंध की सुहरावर्दी सरकार ने 16 अगस्त को छुट्टी घोषित कर दी।

उन दिनों में बंगाल की स्थिति विशेष रूप से जटिल थी। प्रांत में, बहुसंख्यक आबादी ने प्रतिनिधित्व किया (56 फ़ीसदी मुसलमान और 42 फ़ीसदी हिन्दू) इसमें मुसलमान ज्यादातर पूर्वी हिस्से में केंद्रित थे। इस जनसांख्यिकीय संरचना और विशिष्ट घटनाओं के परिणामस्वरूप, यह प्रांत एकमात्र ऐसा था जिसमें एक मुस्लिम लीग सरकार 1935 में प्रांतीय स्वायत्तता योजना के तहत सत्ता में थी। नतीजतन, कलकत्ता के निवासियों, 64 फ़ीसदी हिंदुओं और 33 फ़ीसदी मुसलमानों को तब दो अत्यधिक विरोधी संस्थाओं में बांटा गया था। इस पृष्ठभूमि के खिलाफ, विरोध ने कलकत्ता में भारी दंगों की शुरुआत हुई। हत्या, लूट, बलात्कार, अग्निकांड के द्वारा बदले और प्रतिशोध के कार्य का तांडव होने लगा। इस तांडव में उत्प्रेरक के रूप में मुस्लिम लीग के नेता कार्य कर रहे थे। मुस्लिम लीग के उस्मानी नामक एक नेता ने उकसाते हुए कहा कि 'इस भूमंडल पर कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो मुसलमान को कुचल सके। जीवित मुसलमान गाजी होता है और मरने के बाद वह शहीद हो जाता है।' 72 घंटे के भीतर कलकत्ता में 10,000 से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवा दी, घायलों की संख्या 15,000 से अधिक थी और 100,000 से अधिक निवासियों को बेघर छोड़ दिया गया। 'स्टेट्समैन' के ब्रिटिश संवाददाता किम क्रिस्टेन ने लिखा है, ''युद्ध के अनुभव ने मुझे कठोर बना दिया है, किन्तु वह भी इतनी भयानक विभीषिका वाला नहीं होता। यह दंगा या महज उन्माद नहीं था। इसके लिए तो शब्द मध्ययुग में से खोजना होगा।''

15 अक्टूबर को नोआखाली और टिप्परा में भीषण उत्पात होने लगे। बहुत बड़े पैमाने पर लूट, सम्पत्तिविनाश, हत्या और स्त्रियों के साथ बलात्कार हुए। हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया। यह लड़ाई कई दिन तक होती रही। सरकार और पुलिस तथा सेना ने फिर भी कोई सहायता नहीं दी और न सन्तप्त लोगों की रक्षा की। क्षति का अनुमान नहीं लगाया जा सका परन्तु गैर- सरकारी हिसाब से 5000 लोगों के प्राण गए और सम्पति का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ। हिन्दुओं का बलात् धर्मं परिवर्तन और स्त्रियों के साथ कुकृत्य पूर्वी बंगाल के उत्पादों के निकृष्टतम स्वरूप थे।

धार्मिक दंगों का जन्म

इस हिंसा ने बिहार, संयुक्त प्रांत (आधुनिक उत्तर प्रदेश), पंजाब और उत्तरी पश्चिमी फ्रंटियर प्रांत के आसपास के क्षेत्रों में और धार्मिक दंगों को जन्म दिया। इन घटनाओं ने भारत के अंतिम विभाजन के लिए बीज बोए। भारत के विभिन्न हिस्सों को दहला देने वाली 1946 और 1947 में हुई सांप्रदायिक हिंसा की व्यापकता और क्रूरता पर विस्तार से लिखा गया है। हिंसा की प्रकृति न केवल लोगों के जीवन को नष्ट करने, बल्कि दूसरे समूह की सांस्कृतिक और भौतिक उपस्थिति को भी मिटा देने की थी। यह यथार्थ है कि जिन क्षेत्रों ने इस हिंसा को देखा, उन्होंने उन्हीं समुदायों को सदियों से सह अस्तित्व में रहते देखा था। पंजाब, बिहार, संयुक्त प्रांत और निश्चित रूप से बंगाल कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जहां सह-अस्तित्व जीवन का एक तरीका रहा है। झड़पें होती थीं, लेकिन वह आमतौर पर स्थानीय थी और जितनी जल्दी शुरू होती थी, उतनी ही जल्दी खत्म भी होती थीं। 1947 से पूर्व के पंजाब में एक भी ऐसे गांव की पहचान कठिन होगी, जिस पर किसी खास समुदाय द्वारा विशिष्टता के साथ दावा किया जा सके।

20 फरवरी, 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने हाउस ऑफ कॉमन्स में घोषणा की थी कि सरकार ने 30 जून, 1948 से पहले सत्ता का हस्तांतरण कर भारत छोड़ने का फैसला किया है। हालांकि पूरी प्रक्रिया को लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा तेजी से एक साल पहले किया गया था। माउंटबेटन 31 मई, 1947 को लंदन से सत्ता के हस्तांतरण पर मंजूरी लेकर नई दिल्ली लौटे थे। 2 जून, 1947 की ऐतिहासिक बैठक में विभाजन की योजना पर मोटे तौर पर सहमति बनी थी। भारत के विभाजन का निर्णय एक पूर्व शर्त की तरह था। सामान्य तौर पर इस योजना का व्यापक विरोध हुआ और विशेष रूप से इस विचार का कि भारत जैसे देश का विभाजन धार्मिक आधार पर किया जाना चाहिए।

लॉर्ड माउंटबेटन ने सभी दलों के नेताओं के साथ लंबे विचार विमर्श के बाद 3 जून, 1947 को भारत के विभाजन की योजना प्रस्तुत कर दी। इसमें पंजाब और बंगाल के विभाजन पर भी विचार किया गया था । क्योंकि इन प्रांतों के सभी मुस्लिम इतर दलों ने इसकी मांग की थी। इस मांग को मान्यता देने से जिन्ना को परेशानी हुई और उन्होंने कहा कि इससे मुसलमानों को जो पाकिस्तान मिलेगा वह 'विकृत और खंडित' होगा। अनेक दलीलों के बाद कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने यह योजना स्वीकार कर लिया और देश के विभाजन की तैयारी आरंभ हो गई।

जून 1947 में, माउंटबेटन ने सर सिरिल रैडक्लिफ (बैरिस्टर) को दो सीमा आयोगों की अध्यक्षता करने के लिए कहा एक बंगाल के लिए और एक पंजाब के लिए उन्हें भारत का कोई ज्ञान नहीं था और वे इससे पहले कभी भारत नहीं आए थे। माउंटबेटन ने इसे एक अनुकूल बिन्दु माना क्योंकि कोई भी उन पर पक्षपाती होने का आरोप नहीं लगा सकता था। सीमा आयोग के सदस्य समान रूप से अलग-अलग थे, और विभाजन पर सहमत नहीं हुए थे। इस प्रकार निर्णय लेने की जिम्मेदारी रेडक्लिफ को सौंप दी गई थी। वे 8 जुलाई को भारत आए और उन्होंने 12 अगस्त तक अपनी रिपोर्ट पूरी कर ली थी।

योजना के सिद्धांतों पर सभी दलों द्वारा सहमत होने के बावजूद भी माउंटबेटन भारत के सांप्रदायिक स्थिति से कुछ डरे हुए थे। उनको यह भी निश्चय नहीं था कि इंग्लैंड में स्थिति का क्या स्वरूप बन गया है। इसलिए उन्होंने शक्ति हस्तांतरण की तारीख जून 1948 से पीछे हटाकर 15 अगस्त, 1947 कर दी। यह सत्य है कि प्रत्यक्ष में भारत में कई भागों की स्थिति भयावह थी। कोलकाता की हत्याओं के समय से भारत में अनेक भागों में जहां-तहां उत्पात हो चुके थे। पंजाब और बंगाल निःसंदेह तूफान के प्रधान केंद्र थे। 3 जून को जब देश के विभाजन की अंतिम घोषणा की गई तो पंजाब और बंगाल के हिंदुओं को तथा पंजाब के सिखों को बड़ा असंतोष हुआ। पंजाब में सिखों की मांग थी कि चिनाब नदी को पाकिस्तान और हिंदुस्तान के बीच की सीमा मानी जाए जिससे अधिक से अधिक सिख साथ-साथ रह सके। बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने संयुक्त बंगाल की योजना की निंदा की और विधानसभा के गैर-मुस्लिम विधायकों से प्रांत के विभाजन का निर्णय करवा लिया। इन विषयों से मुसलमान का रोष उभर पड़ा। वे अविभाजित पंजाब और बंगाल को पाकिस्तान में मिलना चाहते थे।

भारत विभाजन के दौरान अमानवीय स्थितियां

जाहिर तौर पर भारत विभाजन के दौरान जिस तरह की अमानवीय स्थितियां बनी , उसकी कल्पना भी किसी ने उस समय नहीं की थी। 4 जून , 1947 को भारत में अंतिम ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा संबोधित पत्रकार सम्मेलन में जनसंख्या स्थानांतरण के प्रश्न पर दिए गए उत्तर से उपर्युक्त बात और भी स्पष्ट हो जाती है। जनसंख्या स्थानांतरण पर माउंटबेटन ने कहा," व्यक्तिगत रूप से मैं कोई दिक्कत नहीं देखता, स्थानांतरण के कुछ उपाय स्वाभाविक रूप से आएंगे...लोग अपने आप को स्थानांतरित कर लेंगे।..." जाहिर है कि माउंटबेटन को कल्पना भी नहीं थी कि विभाजन के दौरान कैसी स्थितियां उत्पन्न होंगी, उनका उपर्युक्त बयान भारत विभाजन की त्रासदी के यथार्थ से कोसों दूर था।

करोड़ों लोग विभाजन के बाद ऐसी स्थिति में ढकेल दिए गए जिसके बारे में जान‌ आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मीलों तक पैदल चलते हुए बाढ़, तेज धूप तथा दंगों को झेलते हुए लोग अपनी मंजिल तक पहुंचे। कुछ लोग रास्ते में ही दंगों, अत्यधिक थकावट तथा भोजन की कमी आदि से काल कवलित हो गए । विभाजन के बारे में पंजाबी, उर्दू, हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं तथा अंग्रेजी भाषा में लिखे साहित्य में अंत्यंत मार्मिक ढंग से उस दौर की मार्मिक अवस्था का चित्रण किया गया है। सरकार द्वारा जारी विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस पत्र के अनुसार, जैसे-जैसे काफ़िलें चलते थे, उन गांवों से अधिक से अधिक लोग जुड़ते जाते थे। जहां से वे गुजरते थे, काफ़िलों की लंबाई बढ़ती जाती थी, जो 10 मील से 27 मील तक लम्बा फैल जाता था, इसमें हजारों की तादाद में लोग शामिल हो जाते थे। शरणार्थियों को न केवल सड़क पर हिंसा का सामना करना पड़ा, बल्कि वे सदी की सबसे भीषण बाढ़ में से एक के शिकार हुए। इस खतरनाक यात्रा में लोगों को भूख, बीमारी, थकावट और प्रकृति की कठोर परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। उपमहाद्वीप के मूसलाधार मानसून को सहन करते हुए वे गीली दलदली भूमि और भारी वर्षा से गुजरे।

3 अक्टूबर, 1947 को 'द ट्रिब्यून' अखबार के शिमला संस्करण का लेख उन शरणार्थियों पर भारी बारिश और बाढ़ के प्रभाव को दर्शाता है। लोग विकट परिस्थितियों से होकर पंजाब पहुंचे थे। पंजाब के कई शहर जैसे जालंधर और फिरोजपुर पानी से भर गए थे और परिणामस्वरूप, बिजली के बिना थे। पंजाब की तुलना में बंगाल में दशकों तक जारी विस्थापन और पुनर्वास का रूप अलग ही था। अधिकारियों ने संकट की भयावहता को कम करके आँका, और न सिर्फ शरणार्थियों को अपने घर लौटने के लिए प्रेरित किया, बल्कि पूर्वी बंगाल के विस्थापितों को किसी भी तरह की राहत देने से इनकार कर दिया। विभाजन के दौरान सिन्ध के अल्पसंख्यकों (हिन्दू एवं सिख) को जितनी विकराल एवं भयावह त्रासदी सहनी पड़ी, उसका कटु अनुभव सिन्ध छोड़कर आए लोगों के मन में आज भी जीवन्त है। 17 दिसम्बर, 1947 को सिन्ध के हैदराबाद तथा 06 जनवरी,1948 को राजधानी कराची में हुए भयावह दंगों ने हिन्दू एवं सिखों (अल्पसंख्यकों) को इस हद तक भयभीत कर दिया था कि नवम्बर 1947 तक 2,50,000 लोग, जनवरी 1948 तक 4,78,000 तथा जून 1948 तक 10 लाख से अधिक लोगों को सिन्ध छोड़कर जाना पड़ा।

बँटवारे के समय भारत और पाकिस्तान के बीच पलायन करने वाले लोगों ने रेलगाड़ियों का व्यापक रूप से उपयोग किया था। भारत और पाकिस्तान के बीच आपसी परामर्श से रेल सुविधा को जारी रखा गया था। हर दिन 5-6 ट्रेनें दोनों ओर से चलती थीं। ऐसी कई डरावनी कहानियाँ भी हैं, जिनमें रेलगाड़ियाँ जब अपने अंतिम गंतव्य स्थान पर पहुँची तो उनमें केवल लाशें और घायल व्यक्ति ही मौजूद थे। विभाजन के दौरान महिलाओं को भारी नुकसान उठाना पड़ा और विभाजन एवं उसके आघात का उनका अनुभव पुरुषों से बहुत अलग था। उनका अपहरण किया गया और उनके साथ बलात्कार किया गया। कई को वेश्यावृत्ति वालों के हाथों बेच दिया गया। बहुतों को अपना धर्म बदलने और उन्हीं पुरुषों से शादी करने के लिए मजबूर किया गया, जिन्होंने शायद उनके परिवार का वध किया हो। इसके अलावा, उनके अपने परिवार के सदस्य अक्सर परिवार के सम्मान को बचाने के लिए उन्हें मारने की कोशिश करते थे। भारत सरकार ने 33,000 महिलाओं के अपहरण की सूचना दी, जबकि पाकिस्तान सरकार ने 50,000 महिलाओं के अपहरण का अनुमान लगाया। लेकिन इन आँकड़ों ने पीड़ा की सीमा को बहुत कम करके आंका।

विभाजन के काफ़िलें विशेष रूप से भीड़ के हमले की चपेट में थे। लोग बिना भोजन, पानी, आश्रय, स्वच्छता के बिना चले। इस कारण हज़ारों बुजुर्ग और बच्चे थकावट, भुखमरी से मर गए। भारतीय उपमहाद्वीप में लोगों का बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ। इसके परिणामस्वरूप लाखों शरणार्थियों ने उन प्रांतों और शहरों में अपना बसेरा स्थापित किया, जिनके साथ पहले से उनका कोई संबंध नहीं था। परिवार, संस्कृति या भाषा की दृष्टि से भी वे एक समान नही थे। ऐसे में उन्हें अपनी ज़िंदगी नए सिरे से शुरू करनी पड़ी। विभाजन के दौरान हुई हिंसा में करीब 10 लाख लोग मारे गए और करीब 1.46 करोड़ शरणार्थियों को बेघर होना पड़ा।

यह भी एक बड़ा अजीब संयोग है कि जिस विदेशी सत्ता ने एकता व धर्मनिरपेक्षता की धारणाओं को विकृत करने में योगदान दिया था, वही भारतीय एकता के सबसे ईमानदार समर्थक के रूप में सामने आई और उसने भारतीयों एवं उनके नेतृत्व को इस उपमहाद्वीप के विभाजन के लिए उत्तरदायी ठहराया।

( लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं। )

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