एक अद्भुत स्वाधीनता सेनानी

दिल्ली में मेनन, तेलमंत्री केशवदेव मालवीय (Keshavdev Malviya) (बस्ती के) और स्वयं नेहरू ने तय किया कि सिंचाई मंत्री तथा राज्य सभा सदस्य हाफिज मुहम्मद इब्राहिम (Hafiz Muhammad Ibrahim) को लोकसभा के लिए अमरोहा से लड़ाया जाय। लगभग पचास प्रतिशत अमरोहा के मतदाता मुसलमान थे।

Written By :  K Vikram Rao
Published By :  Shashi kant gautam
Update:2021-11-11 19:48 IST

आचार्य कृपलानी : photo - social media

मगर कृपलानी का अमरोहा से उपचुनाव (amroha by-election) बड़ा जटिल और महत्वपूर्ण था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु (Prime Minister Jawaharlal Nehru) तथा इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) भी प्रयत्नशील थीं कि दादा लोकसभा न पहुंचे। भारतीय गणराज्य (republic of india) के संसदीय निर्वाचन इतिहास में यह अनूठा अध्याय था। कांग्रेस प्रत्याशी (Congress candidate) का चयन शीर्ष नेताओं ने किया था। हाफिज साहब का।

तभी एक विकराल हादसा (27 अप्रैल 1963) अमरोहा (मुरादाबाद) लोकसभा उपचुनाव (Lok Sabha by-election) के वक्त हुआ था। तब राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की दादी के पिताश्री प्रधानमंत्री थे। उनके संज्ञान में ही एक विधि-विरोधी, बल्कि जनद्रोही हरकत हुई थी। अप्रत्याशित, अनपेक्षित तथा अत्यन्त अवांछित थी। सत्तारूढ़ कांग्रेस (Conjgress Party) के प्रत्याशी का नामांकन पत्र समय सीमा बीत जाने के बाद स्वीकारा गया था। कलक्ट्रेट (जिला निर्वाचन अधिकारी कार्यालय) के दीवार पर लगी घड़ी की सुइयों को पीछे घुमा दिया गया था। इस घटना की रपट दिल्ली के दैनिकों तथा मुम्बई की मीडिया, विशेषकर अंग्रेजी साप्ताहिक "करन्ट" (28-30 अप्रैल 1963) में प्रमुखता से छपी थी। शीर्षक के हिन्दी मायने थे कि ''कांग्रेसी उम्मीदवार के अवैध नामांकन पत्र को घड़ी कि सुई घुमाकर वैध किया गया।''

पचास प्रतिशत अमरोहा के मतदाता मुसलमान थे

दिल्ली में मेनन, तेलमंत्री केशवदेव मालवीय (Keshavdev Malviya) (बस्ती के) और स्वयं नेहरू ने तय किया कि सिंचाई मंत्री तथा राज्य सभा सदस्य हाफिज मुहम्मद इब्राहिम (Hafiz Muhammad Ibrahim) को लोकसभा के लिए अमरोहा से लड़ाया जाय। लगभग पचास प्रतिशत अमरोहा के मतदाता मुसलमान थे। अर्थात चोटी बनाम बोटी का नारा कारगर हुआ। अतः जिला कांग्रेस अध्यक्ष रामशरण का नामांकन वापस लेकर हाफिज मुहम्मद इब्राहिम का प्रस्ताव पेश हुआ। इसके लिए केन्द्रीय मंत्री केशवदेव और मालवीय जी दिल्ली से मोटरकार से मुरादाबाद कलक्ट्रेट पहुचे। यह सब अंतिम दिन (27 अप्रैल 1963) को हुआ।

मगर दिल्ली (Delhi) से मुरादाबाद (Moradabad) वे लोग शाम तक पहुचे। तब तक चार बज चुके थे। भीड़ जा चुकी थी। उस सन्नाटे में कलक्टर ने नामांकन को दर्ज कर लिया। चालाकी की कि घडी में दो बजा दिये और फोटो ले ली। विरोध हुआ पर उसे करने वाले विरोधी नेता केवल कुछ ही थे, बात बढ नही पायी। फिर भी कलेक्टर स्वतंत्र वीर सिंह जुनेजा ने बात दबा दी। मगर मतदान में हिन्दुओं ने जमकर वोट डाला। आचार्य कृपलानी (Acharya Kripalani) जीत गये। हाफिज साहब का मंत्रीपद और राज्य सभा की मेम्बरी चली गई। आचार्य कृपलानी ने, लोहिया के आग्रह पर, नेहरू सरकार में अविश्वास का सर्व प्रथम प्रस्ताव लोकसभा में रखा। तब भारतीयों की दैनिक औसत आय तीन आने बनाम तेरह आने वाली मशहूर बहस चली थी।

आचार्य कृपलानी की अंतिम, अत्यधिक यादगार घटना 

आचार्य कृपलानी की अंतिम, अत्यधिक यादगार घटना थी आपातकाल के समय। जॉर्ज फर्नांडिस (George Fernandes) और मैं (अभियुक्त नम्बर—2) बड़ौदा डाइनामाइट केस में फांसी की सजा की प्रतीक्षा में थे। हम पच्चीस अभियुक्तों की रक्षा में एक समिति बनी थी। दादा कृपलानी अध्यक्ष बने। सीबी गुप्ता कोषाध्यक्ष। लोकनायक जयप्रकाश नारायण (Lok Nayak Jayaprakash Narayan) संरक्षक थे। वकील सभी प्रसिद्ध थे।

राम जेडठमलानी (Ram Jedthmalani), फाली नारीमन, सोली सोरबजी, अशोक देसाई, शांति भूषण इत्यादि। दादा कृपलानी की मांग पर मोरारजी काबीना ने हमारा मुकदमा वापस लेने का निर्णय कराया। तब अटल बिहारी बाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee), लालकृष्ण आडवाणी (Lal Krishna Advani), एचएम पटेल, चौधरी चरण सिंह, जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा आदि की काबीना के समर्थन से भारत सरकार ने डायनामाइट केस निरस्त कर दिया। दादा कृपलानी के कारण हमारा नया जन्म हुआ। तो ऐसे आचार्य कृपलानी को उनकी जयंती पर हमारा नमन।

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