कासगंज : मुद्दा सिर्फ और सिर्फ समाज शास्त्र का है, कानून व्यवस्था का नहीं

Update:2018-02-02 13:11 IST
UP: कासगंज के बाद अब गंजडुडवारा की फिजां बिगाड़ने की कोशिश

संजय भटनागर

उत्तर प्रदेश के कासगंज में 26 जनवरी को जो कुछ भी हुआ वो कहीं भी कभी भी हो सकता है। मुद्दा कानून व्यवस्था का नहीं है, हिन्दू मुसलमान का भी नहीं है क्योंकि यह मुद्दा सालों साल से बोये जा रहे उस जहर के बीज का है जो खास मौसम में प्रस्फुटित हो जाता है। इस जहर के पेड़ के लिए यह मौसम अनुकूल है। मौसम इससे बेखबर है अथवा बाखबर, इस पर भी बहुत दिमाग लगाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ये ‘मानसूनी हवाएं’ हर पांच सालों में रुख बदलती हैं और यह रुख बदल चुका है।

मुद्दा चन्दन का भी नहीं, न ही नौशाद का, क्योंकि मानसूनी हवाएं तो धर्मनिरपेक्ष होती हैं भले ही पांच सालों में रुख बदलें। थोड़ी देर के लिए हम लोगों को यह मान लेना चाहिए कि यह मुद्दा मौसम का नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से मौसमी है। हाँ, विडम्बना यह है कि इसका लेना देना भूगोल से नहीं है बल्कि समाज शास्त्र से है। बस प्रॉब्लम यहीं से है, जब हम मौसम को, मानसून को और गर्म हवाओं को सिर्फ भौगोलिक प्रक्रिया मान कर चल रहे हैं जबकि इसकी उत्पत्ति समाज शास्त्र से है। जी हाँ, सन्दर्भ कासगंज और कासगंज जैसे अन्य मुद्दे हैं। सवाल यह है कि क्या कासगंज को पूरा उत्तर प्रदेश अथवा मौजूदा मौसम के अनुसार पूरा भारत मान लिया जाये और चन्दन की दुखद मौत को मौसम-जनित त्रासदी मान कर स्थिति से समझौता करते हुए खामोश बैठ जाया जाये और एक और कासगंज की जमीन तैयार करने में लग जाया जाए? प्रश्न जटिल है क्योंकि मामला पूरी तरह समाज शास्त्र का है और हम लोग हल भूगोल में ढूंढ रहे हैं।

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चन्दन तिरंगा फहराता है तो इसमें मुश्किल नहीं होनी चाहिए क्योंकि संविधान और कानून उसे इसकी पूरी इजाजत देता है लेकिन उसको गोली मार दी गयी दूसरे धर्म के लोगों द्वारा। बात पूर्णविराम की नहीं बल्कि अल्पविराम की है। क्या हुआ, कैसे हुआ जो नहीं होना चाहिए था ? यह कौन सा मौसम है जिसमें राष्ट्रीयता के प्रदर्शन पर गोली चल जाती है? जुलूस की अनुमति थी या नहीं, तिरंगा यात्रा निकाले जाने की अनुमति थी या नहीं ,ये बातें गौण हैं क्योंकि यह मामला कानून व्यवस्था का, हिन्दू मुसलमान का है ही नहीं, यह पूर्ण रूप से समाज शास्त्र है जो इंडियन पीनल कोड की किसी भी धारा के मायाजाल से बहुत अलग है, भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की जटिलताओं से इतर है।

सवाल यह है कि राष्ट्रीयता के प्रदर्शन का मानदंड क्या होना चाहिए, इसके प्रदर्शन के तौर तरीके का निर्धारण क्या राजनीतिक मौसम पर आधारित होना चाहिए अथवा हृदय की गहराईयों से उपजा भाव इसका स्रोत होना चाहिए। एक बात तो तय है कि यह विषय राजनीति शास्त्र का नहीं है और मैं फिर कहूंगा कि यह विशुद्ध समाज शास्त्र है। लगभग 16 वर्ष पूर्व भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को राजधर्म निभाने की सीख दी थी। यहाँ हालाँकि यह बात संदर्भहीन है लेकिन शासन चलाने में संवाद से अधिक संकेतों की भूमिका होती है।

उत्तर प्रदेश में कासगंज है, योगी सरकार है और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं। यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि कासगंज की घटना के पांच दिन बाद मुख्यमंत्री योगी ने बयान दिया ‘प्रदेश में अराजकता बर्दाश्त नहीं की जाएगी’ ...फिर वही बात योगीजी, यह अराजकता का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि यह मुद्दा कानून व्यवस्था का है ही नहीं बल्कि विशुद्ध समाज शास्त्र है यह। हाँ अंतिम बात- चन्दन नौशाद की जगह होता अथवा नौशाद चन्दन की जगह होता तब भी आंसू किसी मां -बाप के ही खर्च हो रहे होते -अकारण ही।

(लेखक न्यूजट्रैक/अपना भारत के कार्यकारी संपादक हैं)

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